
- June 30, 2025
- आब-ओ-हवा
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पुराने नहीं पड़ते... भरत व्यास के शब्द
यह साक्षात्कार 1980 की घटना है जबकि इसे लिपिबद्ध रूप में 2023 में अरुण वर्मा ने अपने चुनिंदा लेखों के संग्रह ‘विविधा में शब्द’ शीर्षक पुस्तक में प्रकाशित किया। साक्षात्कार आधारित लेख का चुनिंदा हिस्सा ‘पं. भरत व्यास (06.01.1918-04.07.1982) से एक मुलाक़ात’ के रूप में यहां प्रस्तुत है…
पं. भरत व्यास से बातों का सिलसिला देर रात तक चलता रहा। मैंने कालिदास के मेघदूत के कुछ श्लोक सुनाये, वे भावविभोर हो गये। महाकवि निराला, प्रसाद की कविताएं, उर्दू की शायरी का अटूट दौर चला। निराला के गीतों के साथ सरोज स्मृति, प्रसाद के आंसू के छन्द मैं सुनाता रहा। अंतरंग बातचीत के दौरान मजाज़, सागर और जोश मलीहाबादी के साथ बंबई में गुज़ारी शामें पं. व्यास की आंखों में चमक भर रही थीं। जोश मलीहाबादी ने अपनी ‘यादों की बारात’ में पं. व्यास का ज़िक्र भी किया है।
कवि सम्मेलन नौ, दस बजे शुरू होना था, रात के ग्यारह के ऊपर हो चुके थे। आयोजक बेचैन हो रहे थे, उन्होंने पं. व्यास जी से कहा पंडित जी देर हो रही है। और व्यास जी ने जो जवाब दिया उससे तो मैं अनंत गौरव से भर उठा, वे बोले अभी मैं अरुण वर्मा जी को सुन रहा हूं, आप कुछ इंतज़ार कीजिए। इसके बाद वे मुझे अपने साथ कवि सम्मेलन के मंच पर ले गये और अपने साथ बैठाया भी। ऐसी आत्मीयता और अद्भुत इंसानियत के धनी थे पं. व्यास।
गीतकार का दुख
उनके साथ जो साक्षात्कार हुआ, उसमें मैंने वर्तमान हिंदी फ़िल्मी गीतों, निर्माता, संगीतकार से गीतकार के संबंध और गीतों पर व्यावसायिकता के दबाव से संबंधित सवाल किये, जवाब में व्यासजी ने कहा, “गीतों में काव्यत्व घट रहा है। ट्यून, लय और संगीत बढ़ रहा है, गीतों की उम्र घट रही है, गीत समय से पहले ख़त्म हो जाता है। तय ट्यून पर गीत की मांग होती है, ऐसा लगता है कि तैयार कफ़न के नाप का मुर्दा मांग रहे हैं। निर्माता गीतकारों की रचना में बदलाव करते हैं, बातचीत के टोन में गीत लिखे जा रहे हैं। कैबरे डांस पर फूहड़ गीत बनते हैं, मन को दुख होता है। पैसों का प्रलोभन बढ़ा है इसलिए व्यावसायिकता भी बढ़ी है। साहित्यिक गीतों की उम्र बाज़ारू गीतों से कहीं अधिक होती है। आजकल संगीतकार गीतकार को दबाकर रखते हैं, हम लोग संगीतकार को नियंत्रण में रखते थे।”
मैंने दूसरा प्रश्न, फ़िल्मी गीतों की भाषा, कवि सम्मेलन के अनुभव, गीतों से संबंधित घटना और देश विदेश के रचनाकारों के प्रभाव आदि के संबंध में पूछा। व्यास जी ने बेबाकी से कहा, “गीतों में हिंदी शब्दों का प्रयोग हो रहा है, टिपिकल उर्दू का इस्तेमाल कम हो रहा है। गानों की भाषा नये नये प्रयोगों के कारण प्रोज़ (गद्यात्मक) हो रही है।
अमर गीतों के बनने के क़िस्से
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से एक बार मैंने पूछा आपकी तबीयत कैसी है, वे बोले, ‘पंडित जी यह तो गीत का मुखड़ा बन सकता है।’ एक बार मेरा बेटा घर से चला गया, तब उस दर्द को मैंने ‘जनम जनम के फेरे’ फ़िल्म के गीत ‘ज़रा सामने तो आओ छलिये’ में लिखा। इसी गीत में यह संदेश दिया ‘पिता अपने बालक से बिछुड़कर सुख से कभी न रह सकता’। एक बार संगीतकार एसएन त्रिपाठी कहीं बाहर गये थे, मैंने उन्हें बुलाने के लिए लिखा, “आ लौट के आ जा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’ और यही पंक्तियां ‘रानी रूपमती’ फ़िल्म के अमर गीत का मुखड़ा बन गयीं। कवि सम्मेलन में हम धर्म संकट में पड़ जाते हैं। जनता फ़िल्मी गीतों की फ़रमाइश करती है, मैं कहता हूं लता, मुकेश, रफ़ी के सुर और संगीत का मज़ा मेरी आवाज़ में कहां से आएगा, पर हमें वही गीत सुनाने पड़ते हैं।
मुझ पर प्रसाद के आंसू का बहुत प्रभाव है, निराला मेरे प्रिय कवि हैं, मैं कविता और जीवन में आशावादी हूं। फ़िल्मों में मुझे वी. शांताराम ने प्रभावित किया, उन्हीं ने मुझसे अनेक गीत लिखवाये। ‘नवरंग’ फ़िल्म में एक गीत, ‘आज मधु वातास डोले’ पंक्ति में मैंने शांताराम जी से कहा इसमें वातास शब्द रखूं या नहीं, शांताराम जी ने अर्थ सुनकर कहा, वातास ज़रूर रखो।
साहित्य और व्यक्तित्व
हमारी पीढ़ी और आज की पीढ़ी में बड़ा अंतर है। आज भारतीयता कम हो रही है, हमारे आदर्श गांधी, नेहरू, सुभाष थे, इनके आदर्श अमिताभ, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा हैं। इनकी लोकप्रियता बंदरों जैसी है, ये लोकप्रिय तो हैं, लेकिन प्रतिष्ठित नहीं।
प्रभाव की बात कहूं तो कालिदास के प्रति गहरी श्रद्धा है। मराठी और बंगाली साहित्य मुझे बहुत पसंद है। मैं मराठी भाषा को महाभारत और बंगाली भाषा को रामायण मानता हूं। आजकल कविता समाप्त हो रही है, वह मन पर चोट नहीं करती। बुद्धि को विज्ञान प्रभावित कर सकता है, पर मन को तो कविता ही प्रभावित करेगी। एक प्रसंग याद आ रहा है हास्य कलाकार मेहमूद किसी ज़माने में मेरा कार ड्राइवर था। कार चलाते चलाते वह ‘तेरे द्वार खड़ा भगवान, भगत भर दे रे झोली’, गाना गाता जाता था। राज कपूर महान है, अब कुछ पथभ्रष्ट हो गया है। मुकेश ने अधिकतर मेरे गाने गाये हैं, वह आम आदमी का गायक था।
संगीतकारों में मुझे मदन मोहन, नौशाद, रोशन, सी. रामचंद्र, एसएन त्रिपाठी, एसडी बर्मन, शंकर जयकिशन प्रिय हैं। हां, मैंने गीतों में उर्दू के शब्द प्रयोग किये हैं। मेरा एक बहुत लोकप्रिय गीत है, इसे आप प्रार्थना या भजन भी कह सकते हैं। ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम’, इस गीत में मालिक की जगह ईश्वर लिखता तो मुसलमान भाई नाराज़ हो जाते, ख़ुदा लिखता तो हिंदू भाई। इसलिए मैंने मालिक शब्द का प्रयोग किया। मेरा यह गाना कई स्कूलों में बच्चों के द्वारा और जेलों में क़ैदियों के द्वारा प्रार्थना के रूप में रोज़ गाया जाता है। ये मेरे गीत लेखन जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है।”
पंडित भरत व्यास से यादगार मुलाक़ात और साक्षात्कार मेरे जीवन का बहुत बड़ा अविस्मरणीय क्षण है, जो एक उत्सव बन गया था। उनके साथ सुबह गुज़री, शाम गुज़री, रात भी नज़दीक आ गयी लेकिन ऐसा नहीं लगा कि उम्र तमाम गुज़री। सीहोर से जाने के बाद उनके प्रेम और आत्मीयता से भरपूर दो पत्र भी मेरे पास आये थे। वे आज तक मैंने धरोहर की तरह संभाल रखे हैं।

डॉ. अरुण वर्मा
37 वर्षों तक अध्यापन के बाद प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त। उज्जैन के प्रतिष्ठित कालिदास समारोह के आयोजन में 50 वर्षों तक सक्रिय भूमिका निभायी। कालिदास अकादमी की पत्रिकाओं का वर्षों संपादन किया और अनेक शैक्षणिक संस्थाओं के साथ संबद्ध रहे। आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन, प्रसारण। देश में अनेक प्रतिष्ठा आयोजनों में आपने व्याख्यान दिये। इन दिनों स्वतंत्र रचनात्मक लेखन।
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यादगार बातें हैं, भरत व्यास के शब्द और भी अधिक बहुत अधिक प्रासंगिक हैं गीतों में काव्यत्व के संदर्भ में।
बहुत अच्छा आलेख है।
भरत व्यास के गीतों में उनकी व्यथा दिखती है ।
बातचीत से गीत लेखन के कई पहलू सामने आए जो आज भी प्रासंगिक हैं। बहुत आभार ।
गीत-संगीत पर महत्वपूर्ण बातें।
गीतों में काव्यत्व की कमी है ….जैसे तैयार कफ़न के नाप का मुर्दा माँग रहे हैं,,,भरत व्यास जी की बातें बहुत हृदयस्पर्शी हैं,, चिंतनीय भी,,