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नंबरों का खेल

            दसवीं और बारहवीं के परीक्षा परिणाम घोषित हो चुके हैं। तमाम बच्चे और अभिभावक उच्च परिणामों की प्रदर्शनी लगाये बैठे हैं। नब्बे प्रतिशत अंक प्राप्त करने को भी अब कमतर महसूस कराया जा रहा है। अंकों की ये चूहा-बिल्ली दौड़ अब अपनी ऊपरी सीमा को छूकर उसे तोड़ने पर अमादा है। 94-95 प्रतिशत लाने वालों के भी रोते-सुबकते चेहरे ख़बरों और सोशल मीडिया के पटल पर उभर रहे हैं। वो परेशान होकर 99 और 100 की अपनी चाह जता भी रहे हैं और न ला पाने पर अफ़सोस भी। कुछ जो 98 या 99 प्रतिशत की सीमा का अतिक्रमण कर रहे हैं वो बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति की तरह निर्वाण प्राप्ति के मार्ग की गाथा और संघर्ष को बयां कर रहे हैं। एक उत्साहित दर्शक अभिभावक वर्ग भावुक होकर केवल ताली नहीं बजा रहा बल्कि अपने आसपास मौजूद उन विद्यार्थियों को भी घूर रहा है, जो औसत परिणाम ही ला पाये। ग़ौरतलब है कि संख्या के महत्व को रेखांकित करने वाले ‘लोकतंत्र’ में औसत परिणाम वाले ये ही बहुमत में हैं। बस इनकी बात करने वाला कोई नहीं है, असफल हुए को तो पूछ ही कौन रहा है। मुख्यधारा होते हुए भी इन्हें किनारे लगा दिया गया है।

नंबरों के इस मायाजाल में शत प्रतिशत मार्क्स लाये हुए चमकते चेहरे तो हर तरफ़ दिखते हैं लेकिन उनकी थाह लेने वाला कोई नहीं है जो औसत प्रदर्शन कर पाये। ये अलग बात है कि जिन्हें हम आज औसत कह रहे हैं वो भी कई बार पिछली पीढ़ियों के उच्च प्रदर्शन से अधिक होता है। जैसे साठ, सत्तर या अस्सी प्रतिशत वाले लोग। एक और पक्ष की ओर ध्यान जाता है जिस पर अब तक कम बात हुई है। समाज में प्रोफ़ेशनल या आर्थिक रूप से सक्षम साबित हुए लोगों में आख़िर कितने लोग ऐसे रहे हैं जो अपने स्कूली कक्षाओं में नब्बे या उससे अधिक मार्क्स लाये! क्या परीक्षा परिणामों में औसत रहे लोग जीवन में सफलता की दृष्टि से भी औसत रहे या फिर उन्होंने ऐसे कृत्रिम बंधनों को तोड़ कर अलग ही मुकाम हासिल किया? अपने अनुभव से कह सकता हूं परीक्षा परिणामों का जीवन के अलग अलग क्षेत्रों में उच्च या निम्न प्रदर्शन से कोई सीधा सहसंबंध तो नहीं ही होता है।

एक और पक्ष की बात करें तो नंबरों की ये रेस बच्चों के बचपन को भी गहरे तक प्रभावित कर रही है। मध्यवर्गीय परिवारों में स्कूली समय के बाद बच्चों को अलग अलग विषयों की ट्यूशन या कोचिंग के लिए जाना भी आम बात हो गयी है। इसके अलावा हॉबी क्लासेज़, स्पोर्ट्स ट्रेनिंग, म्यूज़िक, योग जैसे अनेक दौरे हैं जहां सब पर श्रेष्ठ बनने का दबाव है। इन सब दबावों के बीच बचपन की नैसर्गिक स्वतंत्रता, जिज्ञासा, अल्हड़ पसंदगी सब दम तोड़ती चली जाती हैं। बच्चों का घंटों किताबों में डूबे रहना उन्हें जानकारी और सूचना से तो लैस कर सकता है पर उन्हें उनके सामाजिक परिवेश को समझने, ज़िम्मेदारियों को निभाने, चुनौतियों से जूझने-टकराने के अवसर मिलने आदि से दूर कर देती है। ये शिकायत आम हो चली कि पढ़ा लिखा होने के बावजूद कोई अमुक बच्चा या व्यक्ति सामाजिक आचरण या व्यवहार में बिल्कुल फिसड्डी है।

बढ़ते तनाव, अकेलेपन, अपराध, आत्म-हत्या की प्रवृत्ति आदि का भी कोई न कोई सिरा इसी नंबर दौड़ की अनंत शृंखला से जुड़ता दिखेगा। आये-दिन ऐसी ख़बरें हमारी चेतना को झिंझोड़ती हैं। समय आ गया है एक राष्ट्र, समाज के तौर पर इस समस्या पर गंभीरता से सोचें, वैकल्पिक रास्तों पर बढ़ें। व्यक्तिगत लाभों की जगह सामूहिक हित की चिंता, सामुदायिक जीवन के अनुरूप मूल्य व आचरण की संस्कृति जवाब बन सकती है।

alok mishra

आलोक कुमार मिश्रा

पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।

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