
- July 28, 2025
- आब-ओ-हवा
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जीवन क्या है? उसकी उत्पत्ति का सूत्र क्या है? चिरंतन प्रश्न को दर्शन, साहित्य और विज्ञान ने अपनी तरह हल करने का उद्यम किया है। इस खोज में जीवविज्ञान के एक अध्येता का यह लेख।
डॉ. आलोक त्रिपाठी की कलम से....
प्लांट फ़िज़ियोलॉजी: 'जीवन' प्रश्न के उत्तर की ओर
मुझे कुछ बहुत समय नहीं लगा निर्धारित करने में कि किस किताब पर लिखूं। अपने विषय के अलावा साहित्य से लगाव ज़रूर रहा है लेकिन वह बस एक रुचि के स्तर तक ही। वैसे मैंने कुछ ज़्यादा किताबें नहीं पढ़ी हैं न ही मैं किताबी कीड़ा हूँ क्योंकि मैं अगर एक पैराग्राफ़ भी पढ़ूं तो घंटा भर या उससे ज़्यादा समय लगता है, उस पर चिंतन करने में।
अब आते हैं ‘शुक्रिया किताब’ वाली किताब पर। ग्रैजुएशन का कॉलेज में पहला दिन और पहला लेक्चर, डॉ. ए.एन. पाण्डे साहब क्लास में। आते ही उन्होंने हम सभी नौजवान विद्यार्थियों के बीच एक सवाल फेंका, जिसे कोई भी लपक नहीं पाया।
“जीव विज्ञान क्यों पढ़ते हैं?”… “जीवन को परिभाषित करने के लिए”… “अभी तक टनों काग़ज़ छापकर भी हम उस विषय में कुछ नहीं जानते।” तब इस सवाल ने हैरान भी किया, परेशान भी और यह कहना शायद अभद्रता है कि हमारी जिज्ञासा को ज़िंदगी भी देता रहा। मैं अपने काम में मसरूफ़ भी रहा इसलिए मैं यह दावा नहीं कर सकता।
वैसे मेरे दिमाग़ में ये सवाल अभी तक ज़िंदा है, और सच में इसका उत्तर अब भी, मेरे पास भी नहीं है। पर हां, मुझे लगता है कि मैं उसके थोड़ा क़रीब ज़रूर पहुंचा हूं। और इसी बात से उस किताब का ज़िक्र आता है, जिसका नाम ऊपर लिखा है।
फ़्रैंक बी. सैलिस्बरी और क्लॉन डब्ल्यू. रॉस (Frank B. Salisbury, Cleon W. Ross) लिखित उस किताब (प्लांट फ़िज़ियोलॉजी) में एक चैप्टर है जल पर, जिसका सारांश लॉरेन आइज़ली की कही बात में मिलता है। “यदि इस धरती पर कोई जादू है, तो वह पानी में समाहित है।”
जैसे-जैसे समय बीतता गया प्रोफ़ेसर साहब का सवाल मेरे साथ ही बूढ़ा हो रहा था। क़रीब 25 साल बाद जब मैं ख़ुद अपनी किताब “बायो मॉलिक्यूल: द मॉलिक्यूलस ऑफ लाइफ़” लिखने लगा, तो यह एक तरह की ज़िद थी कि जीवन की परिभाषा के रास्ते में कम से कम एक क़दम तो चलें। फिर मैंने पहला चैप्टर ही लिखा, जिसका नाम दिया “फ़िलॉस्फ़ी ऑफ़ बायोकेमिस्ट्री” और किताब के पूरा होने तक मुझे समझ में सिर्फ़ इतना ही आया कि जीवन जल से ही प्रस्फुटित हुआ है और होता है। अर्थात अभी तक की समझ यह कहती है, जल ही वह संरचना है जिसमें उपापचय चलता है, जिसे जीवविज्ञान की भाषा में जीवन कहते हैं। लेकिन जैसा ओशो कहा करते थे, “विज्ञान किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देता, बस उसे एक क़दम पीछे कर देता है”। जल की संरचना में जीवन तो चलता है लेकिन चलना शुरू कैसे करता है? का उत्तर अभी शेष है।

डॉ. आलोक त्रिपाठी
2 दशकों से ज्यादा समय से उच्च शिक्षा में अध्यापन व शोध क्षेत्र में संलग्न डॉ. आलोक के दर्जनों शोध पत्र प्रकाशित हैं और अब तक वह 4 किताबें लिख चुके हैं। जीवविज्ञान, वनस्पति शास्त्र और उससे जुड़े क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखने वाले डॉ. आलोक वर्तमान में एक स्वास्थ्य एडवोकेसी संस्था फॉर्मोन के संस्थापक हैं।
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बहुत अनूठेपन से गंभीर विषय पर बात आरंभ हुई और क्रमशः जिज्ञासा बढ़ती गई किन्तु पुस्तक तक आते-आते लेख समाप्त हो गया ।
अगले लेख की प्रतीक्षा है।