
- June 28, 2025
- आब-ओ-हवा
- 3
पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी
प्रार्थनाओं का पानी
1 जनवरी, 2014
मैं प्रार्थना करते हुए औरों से अदृश्य रहना चाहता हूँ।
चाहता हूँ – प्रार्थना करते हुए स्वयं को देखूँ। देख सकूँ– मेरा चेहरा दिखायी कैसा देता है!
चाहता हूँ – प्रार्थना करते हुए स्वयं को सुन सकूँ। सुन सकूँ– मेरे शब्द सुनायी कैसे देते हैं!
चाहता हूँ – प्रार्थना करते हुए स्वयं को छू सकूँ। छू सकूँ– मेरे स्पर्श की गहराई कितनी है!
मैं किस हद तक पवित्र शब्दों को तलाश सकता हूँ? मेरे शब्द औरों को प्रभावित कर सकते हैं या नहीं?
मैं किस हद तक पवित्र हो सकता हूँ? मेरी पवित्रता औरों को उसकी अपवित्रता में स्वीकार सकती है या नहीं? हाँ, तो किस हद तक?
प्रार्थना मेरे लिए अपवित्र से पवित्र होने की यात्रा है। अपवित्रता यथार्थ है। पवित्रता आदर्श है।
प्रार्थना मनुष्य का आत्मविश्वास है। वह न तो मनुष्य को कमज़ोर बनाती है- न ही अकर्मण्य। दरअसल वह समूचे प्रयासों और सारी कर्मण्यता के बाद का स्वप्नों को सुरक्षित बनाने की उद्यमिता है। प्रार्थना मनुष्य में धैर्य और नयी ऊर्जा का संचरण है। अंहकार और दंभ का निवारण भी वह। प्रार्थना इस मायने में गतिशीलता का पांरपरिक कर्म है।
सच्ची प्रार्थना को ढोंग के खाँचे में नहीं रखा जाना चाहिए। सारे काम प्रार्थना-पत्र से ही निपटते हैं। प्रार्थना पशु नहीं किया करते। प्रार्थना मनुष्य का एक विनम्र व्यवहार ही है– व्यक्तिगत और सार्वभौमिक अभ्यास के अनुक्रम में। प्रार्थना मनुष्यता का बोध है। इस रूप में भी मानवीय- प्रार्थना दूसरों पर विश्वास की मौलिक और नैतिक कविता है। प्रार्थना स्वयं से वार्तालाप तो है ही। प्रार्थना निष्क्रियता का परिणाम नहीं– वह अपनी आंतरिक सक्रियता की पहल भी। इस मायने में प्रार्थना आत्मनिर्भर कर्म है- न कि निर्भर आत्म।
शायद यही कारण है कि प्रार्थना दुनिया से श्रेष्ठ बौद्धिकों का विषय रही है: इस समय मेरे मन में आ रहा फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की का पात्र, “क्राइम एंड पनिशमेंट” का रस्कोलनिकोव। उसकी प्रार्थना कोई मंदिर में की गयी औपचारिक विनती नहीं थी, बल्कि अपराधबोध और पश्चाताप से भरी एक मौन पुकार। जब वह सोन्या के सामने अपने पाप क़बूल करता है, तो वहाँ एक प्रार्थना है– न केवल क्षमा की, बल्कि मुक्ति की। उसकी प्रार्थना हमें सिखाती है कि यह हमेशा शब्दों में नहीं होती; कभी-कभी यह हमारी आत्मा का वह बोझ होता है जो किसी के सामने खुल जाता है। क्या हम सब कभी न कभी रस्कोलनिकोव की तरह प्रार्थना नहीं करते– बिना शब्दों के, बस एक उम्मीद के साथ?
विलियम शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ के उस राजकुमार के बारे में क्या कहूँ। हैमलेट की प्रार्थना कितनी जटिल थी! ‘होना या न होना’ कहते हुए वह ईश्वर से कम, अपने आप से ज़्यादा सवाल कर रहा था। लेकिन जब वह अपने चाचा क्लॉडियस को प्रार्थना करते देखता है, तो उसे लगता है कि वह प्रार्थना खोखली है। यह मुझे सोचने पर मजबूर करता है– क्या प्रार्थना का मूल्य उसके शब्दों में नहीं, बल्कि उसकी नीयत में होता है? हैमलेट की उलझन कभी-कभी मुझे मेरी अपनी प्रार्थनाओं पर सवाल उठाने को मजबूर करती है– क्या मैं सचमुच दिल से प्रार्थना करता हूँ, या बस एक रस्म निभाता हूँ?
और कैसे भूल सकता हूँ हरमन हेस्से के ‘सिद्धार्थ’ को, जो प्रार्थना को मंदिरों में नहीं, बल्कि नदी की धारा में, पेड़ों की सरसराहट में खोजता है। सिद्धार्थ की प्रार्थना शब्दों से परे थी– वह एक ध्यान था, एक आत्म-खोज। जब वह नदी के किनारे बैठकर ‘ओम’ सुनता है, तो मुझे लगता है कि प्रार्थना का असली रूप यही है– जब हम अपने अहं को छोड़कर उस अनंत से एकाकार हो जाएँ। क्या मेरी प्रार्थना कभी इतनी गहरी हो पाएगी? इन पात्रों को याद करते हुए मैंने महसूस किया कि प्रार्थना हर किसी के लिए अलग होती है।
रस्कोलनिकोव के लिए यह पश्चाताप था, हैमलेट के लिए एक अनुत्तरित प्रश्न और सिद्धार्थ के लिए एक मौन स्वीकृति।
प्रार्थना का कोई एक रूप कहाँ होता है– यह हमारी ज़रूरत, हमारे दर्द और हमारी आशाओं का प्रतिबिंब होती है।
आज रात सोने से पहले मैं अपनी प्रार्थना के बारे में सोचूँगा: क्या वह रस्कोलनिकोव की तरह बोझ से मुक्ति माँगेगी, हैमलेट की तरह सवाल उठाएगी या सिद्धार्थ की तरह शांत होकर सब कुछ स्वीकार कर लेगी? शायद इन सबका थोड़ा-थोड़ा… प्रार्थना का पानी बचा हो तो मन को रेगिस्तान में तब्दील होने से पहले ही प्रक्षालित किया जा सकता है।
खिड़कियाँ खोल दें!
सुबह ज़ल्दी ही नींद खुल गयी, जैसे कोई अनकही पुकार मन को झकझोर गयी हो। खिड़कियाँ बंद थीं, और कमरे में उमस ने डेरा जमा रखा था। मन बेचैन-सा पूछ रहा था- क्या खिड़कियाँ सिर्फ़ बंद रखने के लिए बनी हैं? नहीं, शायद नहीं। वे तो बनी हैं हवा को गले लगाने के लिए, बाहर की ताज़गी को भीतर बुलाने के लिए।
मैंने खिड़कियाँ खोल दीं। परदे हटाये, तो सुबह की नरम धूप ने कमरे को जैसे चुपके से चूम लिया। बाहर का नीला आकाश, पेड़ों की हल्क़ी-सी हिलती छाया, और हवा में घुली मिट्टी की सौंधी महक- सब कुछ जैसे मन के भीतर उतर आया। कमरे की गरम हवा बाहर भागी, और मेरे विचारों को भी जैसे पंख लग गये।
बशीर बद्र की पंक्तियाँ मन में गूँज रही थीं:
नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही
ये खिड़की खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे
खिड़कियाँ खोलना सिर्फ़ हवा का आना-जाना नहीं है। यह तो मन का बंद दरवाज़ा खोलने जैसा है। अगर खिड़कियाँ बंद रखूँगा, तो यह कमरा उमस से भारी हो जाएगा और शायद मेरा मन भी। बाहर की हवा, बाहर की रौशनी – ये सब तो मेरे भीतर की उदासी को पिघलाने के लिए ही हैं।
सुबह की यह हवा मुझे बता रही है : हर नया दिन एक नई शुरूआत है। खिड़कियाँ खोलो, मन को हल्का करो और जो बीत गया, उसे हवा के साथ उड़ जाने दो।
क्रमश:
(पूर्वपाठ के अंतर्गत यहां डायरी अंशों को सिलसिलेवार ढंग से सप्ताह में दो दिन हर शनिवार एवं मंगलवार प्रकाशित किया जा रहा है। इस डायरी की पांडुलिपि लगभग तैयार है और यह जल्द ही पुस्तकाकार प्रकाशित होने जा रही है। पूर्वपाठ का मंतव्य यह है कि प्रकाशन से पहले लेखक एवं पाठकों के बीच संवाद स्थापित हो।)

जयप्रकाश मानस
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।
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साहित्यकार जयप्रकाश जी की लेखकीय क्षमताओं से मैं परिचित हूं।उनका साहित्यिक परिचय देखकर बहुत हर्ष हुआ। वह एक चर्चित नाम हैं और निरन्तर सक्रिय हैं। मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ उनके लिए
आबोहवा में यह डायरी का पृष्ठ एक अलग ही द्वीप से आई ताज़ी हवा का झौंका -सा लगा।
लोक में प्रार्थना वायु की तरह व्याप्त शब्द है ।
इस पर इतना व्याख्यात्मक चिंतन पाठक के मन को स्थितप्रज्ञ कर देता है।
विश्व के अनेक विद्वानों ने इस पर क्या कहा है इसका समावेश डायरी को अधिकाधिक प्रभावी बना रहा है।
लेखक की स्वानुभूति की तीव्रता ने डायरी के इन पृष्ठों को उत्कृष्ट बना दिया है।
बहुत ही बेहतरीन। आब ओ हवा की यह पहल भी अच्छी है और चुनाव भी बेहतरीन है। बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।