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प्रयाग शुक्ल हो जाने की यात्रा

               वह कवि हैं, अनुवादक हैं और चित्रकार हैं और कला, साहित्य जगत के समकाल में एक अनुभवी बुज़ुर्ग की हैसियत रखते हैं। देश ही नहीं, उनकी ख्याति सरहदों को पार कर चुकी है। वह एक भाषा के दायरे में भी नहीं समाते। उनके कला, साहित्य का महत्व स्वयंसिद्ध हो चुका है। फलों से लदे वृक्ष की तरह वह एक सहृदय, सहज, सरल मनुष्य हैं। प्रयाग शुक्ल जी ने आब-ओ-हवा के लिए विशेष बातचीत की और अपनी जीवन यात्रा के कुछ अनसुने मोड़ बताये, प्रयाग शुक्ल होने का अर्थ समझाया। उनकी कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी।
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मेरा जन्म एवं शिक्षा कलकत्ता में हुई। आधे बंगाली तो हम लोग वैसे भी हो ही गये। सारी पढ़ाई बंगाल में हुई तो हम सभी भाई-बहन काफ़ी कामकाज बांग्ला में ही करते रहे। वैसे हम लोग उत्तर प्रदेश, फ़तेहपुर के हैं लेकिन कई बरस पहले हमारे बाबा बंगाल, कोलकाता में आकर बस गये। हमारा पुरखों का व्यापार वहीं था और वहीं बसने के कारण हम सबको इसका फ़ायदा भी हुआ। मुझे तो कुछ ज़्यादा ही फ़ायदा हुआ। कम ही लोग जानते हैं कि मैं अपने काम के लिए जितना हिंदी भाषा-जगत में जाना जाता हूं, उससे कहीं ज़्यादा बांग्ला भाषा-जगत में। एक उदाहरण देता हूं।

सुभाष मुखोपाध्याय (जिन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला) और शंकू घोष (जिनकी किताब का मैंने अनुवाद किया) की बेटियों ने एक व्याख्यानमाला रखी थी। उनकी बेटी सावली मित्रा ने जब मुझे फ़ोन पर कवितापाठ के लिए आमंत्रित किया तब इतनी बड़ी हस्तियों के बीच अपने चयन ने मुझे बहुत चकित किया। उनका कहना था आपने अनुवाद किया है, पिता के साथ काम किया है, आपको आना ही है। बांग्ला साहित्य-जगत की बड़ी नामी हस्तियों के बीच शामिल होना बड़े सम्मान की बात थी… यह उल्लेख इसलिए कि अपरिचित समझ सकें कि बांग्ला साहित्य जगत में मैं किस तरह जाना जाता हूं।

कविताई
जहां तक लिखने की शुरूआत की बात है, वो बचपन की बात है। फ़तेहपुर हमारे पुरखों का गांव है। अपने समय के प्रसिद्ध गीतकार, आल इंडिया रेडियो में काम करने वाले रमानाथ अवस्थी पिता से मिलने आते थे। उनके पिता जगमोहन अवस्थी जी बाबा से मिलने। हम बच्चे उनको अभिवादन करते। जैसे मेरा नाम प्रयाग है, तो वह तुरंत छन्द में चन्द पंक्तियां बोल देते थे, जैसे देखो यह प्रयाग, अभी जाएगा भाग… (उनकी पंक्तियां स्मरण नहीं हैं यह मैं तुकबंदी बता रहा हूं)। बचपन में यह चमत्कार-सा लगता। मेरे मन में यह बात बैठ गयी, शायद उसी का प्रभाव कि मैं भी किसी के नाम से इस तरह की पंक्तियां बोल देता। शायद इसी अभ्यास से मैं कविता की तरफ़ मुड़ा।

अब यह जो मेरी कविता है, ‘धम्मक-धम्मक आता हाथी’, मध्य प्रदेश के आधे से ज़्यादा लोगों की ज़बान पर है। जबकि यह कविता नहीं है! कविता बहुत बड़ी चीज़ है और यह मैंने सीखा सुभद्राकुमारी चौहान से। अपने समकालीनों से उनका केवल एक संकलन। उनका कहना था कविता बनायी नहीं जा सकती, वह तो प्रस्फुटित होती है। वह स्वत: होती है। अब तो ज़्यादातर लोग कविता बनाते हैं। मैंने अभी किसी से कहा कि महीने भर से मैंने कविता नहीं लिखी। उसे आश्चर्य हुआ। मैं रोज़ लिखता हूं डायरी, लेकिन वह कविता नहीं बस डायरी के लिए ही है।

भोपाल
मैं 18 बरस का था, मेरी कविताएं, कहानी दो पत्रिकाओं में छप चुकी थीं। वह भी ‘कल्पना’ में जो उस समय बहुत बड़ी बात होती। वह दौर ऐसा था जब आप दो बड़ी पत्रिकाओं में छपते तो पूरे जगत में जाने जाते। अब वह समय कहां!

ख़ैर, मेरे भोपाल आने की कहानी 1973 से शुरू होती है, जब अशोक वाजपेयी ने उत्सव की शुरूआत की। वाजपेयी जी संस्कृति विभाग में सचिव थे। फिर मैं 1976 में स्वामी जी (जे. स्वामीनाथन) की एग्ज़िबिशन लेकर आया। साथ में, उनकी पत्नी भवानी और हिम्मत शाह जी भी थे। भारत भवन बनने की बात आयी, तब मैं एडवाइज़री कमेटी में था। फिर हर दो माह में बैठकों के लिए आता। स्वामी के साथ से बहुत कुछ मिला मुझे..

दिल्ली
मैं इतनी प्रतिष्ठित पत्रिका ‘कल्पना’ में काम करता था और उसे छोड़कर आ गया। लोगों को आश्चर्य होता कि यह क्यों कर बैठा। इसके पीछे भी एक क़िस्सा है। मेरे दोस्त हुआ करते थे, महेंद्र भल्ला, उपन्यासकार, नाटककार, कवि। उनकी चिट्ठियां आया करती थीं कि हमने यामिनी कृष्णमूर्ति का नृत्य देखा, रविशंकर को सुना, हुसैन की प्रदर्शनी देखी, रामकुमार से मिले, निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती से मिले। एक दिन मैं बेचैन हो गया कि मैं यहां क्यों बैठा हूं! मेरे समय में यह सब घटित हो रहा है और मैं इस सबसे वंचित हूं। तो बिना कुछ ज़्यादा सोचे-समझे, जितने भी पैसे थे मेरे पास हज़ार-पांच सौ लेकर दिल्ली जा धमका।

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                                     वार्ता के समय शिखा टहनगुरिया को अपनी पुस्तक सौंपते प्रयाग शुक्ल.
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रहने की जगह तो थी नहीं। रामकुमार जी से मैं मिला। वह मुझे कहानीकार के रूप में जानते थे। ‘कल्पना’ के लेखक थे तो उसके कारण ही परिचय शुरू हुआ था। बोले, ‘मेरा स्टूडियो है पुरानी दिल्ली में। मैं तो एक बजे यहां से चला जाता हूं, तुम अपना बोरिया-बिस्तर ले आओ और रहो’। बस फिर क्या। फिर तो तीन महीने वहीं रहा। इस घटना ने मेरा जीवन बदल दिया क्योंकि वहां उनसे मिलने कभी तैयब मेहता आते, कभी गायतोंडे। तब भी इनका थोड़ा नाम था, पर इतना बड़ा नहीं। शमशेर बहादुर आते थे और इसी तरह मेरा परिचय स्वामी से हुआ। फिर अंबादास जी और हिम्मत शाह से।

दिनमान
शुरू में चार बरस मैंने फ़्रीलांसिंग की। जॉब नहीं करता था, जॉब का इरादा भी नहीं था मेरा कभी। ‘कल्पना’ पत्रिका में भी जॉब जैसा नहीं था। फिर मैं 1969 में जब 30 बरस का था और विवाहित हो चुका था, मैंने दिनमान पत्रिका में काम किया। वात्स्यायन जी का साथ मिला। उसमें मैंने बहुत काम किया। मुझे जो पैसे मिलते, उससे जीवन चलने लगा। दिनमान में मैंने दस साल कॉलम लिखा। उससे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। आज मैं जो भी हूं, जैसा भी हूं, जो कर रहा हूं, उस कॉलम की वजह से। उसी की वजह से सारे कला-जगत से परिचय हुआ। जिससे यह हुआ कि मुझे जगह-जगह से निमंत्रण मिलने लगे। यह सब दिनमान की वजह से। पत्रिका ही ऐसी थी कि उसमें किसी का एक ख़त भी छप जाता तो वह जाना जाता था, उसे सम्मान मिलता था।

ये लालू यादव, नीतीश कुमार समाजवादी आंदोलन से जुड़े थे और चिट्ठियां लेकर आते थे कि दिनमान में छप जाएं तो इन्हें पहचान मिलेगी। यह मेरे लिए जॉब तो था पर ऐसा नहीं कि कोई बंधन था। संपादक भी रघुवीर सहाय जैसे मस्तमौला मिले।

अशेष
हैदराबाद पहुंचने का लाभ यह हुआ कि मुझे बद्रीविशाल जी का साथ मिला। और यह कि सभी कलाओं में मेरी रुचि बढ़ी। नहीं तो यह सब नहीं होता… मैं 12 वर्ष नाट्य विद्यालय की पत्रिका निकाल सका और सभी क्षेत्रों के हस्ताक्षरों के बीच पहचाना गया।

एक जॉब मुझे करना पड़ा, लेकिन उसने मुझे बहुत कुछ दिया। राजेंद्र माथुर जी के साथ काम करने का मौक़ा मिला। वह नईदुनिया छोड़कर नवभारत टाइम्स में आये और उन्होंने मुझे मांग लिया। वहां मुझसे इतना काम कराया गया कि मुझे लगने लगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं। मैं मुक्त घूमने वाला इंसान संपादकीय संभाल रहा हूं। रविवारीय भी देखता, कुछ अपना भी लिखता। लगभग दस पन्ने रोज़ हाथ से लिखता, एडिट करता। शायद उसी का असर है कि मैं इस अवस्था में भी एक-दो पन्ने रोज़ लिख पाता हूं। इसके लिए मैं माथुर साहब को धन्यवाद देता हूं। वह बहुत सुंदर समय था, बड़ा लाभकारी।

मेरे जीवन में सुंदर घटनाएं घटीं। क्षेत्र विशेष नहीं बल्कि विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों के संपर्क में आया मैं। उनको दूर से या पास से देखा मैंने, भले एक बार ही उनके पास बैठा लेकिन मैं इसे उपलब्धि मानता हूं क्योंकि बड़े लोगों के पास थोड़ी देर भी बैठना, क्या होता है उससे एक तरंग, एक करंट, जिसे उर्जा बोल सकते हैं, ऐसा कुछ मिलता है। संघमित्रा जी, रतन थियाम, कारंत जी सबके साथ काम किया, अनुवाद किया।

मैं 18 बरस का था, तब शुरूआत की थी और आज 85 बरस की आयु में भी, अच्छा लगता है मैं अपनी जीविका स्वयं अर्जित करता हूं। धनसंचय कभी नहीं किया। अपनी बेटी तिथि का विवाह कर चुका हूं।

डॉ. शिखा टहनगुरिया

डॉ. शिखा टहनगुरिया

चित्रकार, कवि डॉ. शिखा टहनगुरिया ने भील चित्रकारी संबंधी विषय पर शोध किया है। देश के कई शहरों में चित्र प्रदर्शनियों इनके नाम हैं। इनके रेखांकन एवं कविताओं को भी प्रमुख पत्रिकाओं में स्थान मिला है। इन दिनों भोपाल स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में सेवारत हैं।

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