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पाक्षिक ब्लॉग विजय स्वर्णकार की कलम से....

क़ाफ़िया कैसे बांधें : भाग-3

           क़ाफ़ियों में किसी अक्षर की क़ैद के बारे में यह तो स्पष्ट है कि यह एक जटिल गुत्थी है जिसे सुलझाना आवश्यक है। ग़ज़ल के विख्यात आलोचक सुल्तान अहमद ने एक जगह लिखा है कि ग़ालिब के निम्न शेर में क़ाफ़िये सुसंगत नहीं हैं।

बस कि मुश्किल है हर इक बात का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

“आसां” और “इंसां” को ज़रा ग़ौर से देखिए। ये मूलतः “आसान” और “इंसान” के संशोधित संस्करण हैं। क्या ये अपने मूल रूप में सुसंगत हैं? बिल्कुल हैं। याद कीजिए रामचरित मानस का दोहा:

जा अस हिसिषा करहिं नर जड़ विवेक अभिमान
परहिं कलप भरि नरक महु जीव कि ईस समान

ग़ज़ल के व्याकरण में काफ़िये के हर्फ़ निश्चित हैं। उसी आधार पर “आसान/इंसान” भी सुसंगत हैं और “अभिमान/समान” भी। सुविधा के लिए इकाई, दहाई, सैकड़ा के स्थान को ध्यान में रखते हुए हम इनकी संगति के आधार को समझने का प्रयत्न करते हैं।

“घर” और “वर” सुसंगत क्यों हैं? इकाई के स्थान पर “र्” दोनों शब्दों में है और यह हर्फ़-ए-रवी है। पहली शर्त पूरी हुई। अब देखिए कि इन दोनों शब्दों में रवी से ठीक पहले की एक-सी मात्रा (“घ” और “व” में) “अ” है। यह दूसरी शर्त पूरी हुई। दो शर्तें पूरी होते ही ये काफ़िये सुसंगत हो जाते हैं। “कमर/समर” के प्रकरण में हमें सैकड़े के स्थान को भी टटोलना होगा। सैकड़े के स्थान पर विराजमान “क” एवं “स” दोनों में एक-सी मात्रा “अ” है। अब देखिए पहले दो शर्तें पूरी हो चुकी हैं। तीसरी शर्त यह हो गयी कि “म” व्यंजन भी कॉमन है। और चौथी यह कि सैकड़े के स्थान पर स्वर “अ” भी कॉमन है। काफ़िये के हर्फ़ इससे आगे नहीं जाते। चार शर्तों के कारण यहां “अमर” की बंदिश हो जाएगी। इसी तरह “शामिल/कामिल” में भी चार ही शर्तें होती हैं। पहली शर्त “ल” व्यंजन जो रवी भी है। दूसरी शर्त दहाई के स्थान पर “इ” की मात्रा। तीसरी शर्त “म” व्यंजन के कारण है और अंतिम चौथी शर्त सैकड़े के स्थान पर “आ” की मात्रा। अगर ये चार शर्तें पूरी होती हैं तो इकाई और दहाई पर स्थित अक्षरों की बंदिश होगी। अगर केवल तीन शर्तें पूरी होती हैं (अर्थात ऊपर के दिये गये काफियों में तीसरी शर्त पूरी न होती हो, केवल पहली, दूसरी और चौथी शर्त पूरी होती हो) तो इकाई, दहाई पर स्थित अक्षरों की बंदिश नहीं होगी। जैसे “सफ़र/असर” या “शामिल/क़ातिल” में।

अब “शाम/काम” को देखते हैं। इसमें भी वही “घर/वर” वाली स्थिति है। “म” रवी है और इससे पहले “शा” और “का” में एक-सी मात्रा “आ” है। “कमाल/धमाल” बिल्कुल “कमर/समर” की तरह हैं। चार शर्तें उसी तरह पूरी हो रही हैं अतः “माल” की बंदिश होगी।

एक और उदाहरण देखिए। “दाना/शाना” सुसंगत हैं लेकिन “दाना/झरना” सुसंगत हैं या नहीं हैं। “दाना” में “आ” रवी है उसके ठीक पहले अब मात्रा विहीन “न” व्यंजन है। तो जैसे “वाक्य” में “क” व्यंजन की स्थिति है वैसे ही “दाना” में “न” की है।

एक दूसरी तरह से समझें तो “दाना” को “दानअ” और “शाना” को “शानअ” की तरह भी देखा जा सकता है। यहां “तासीस” और “दख़ील” की पूर्ति होने के कारण “आनअ” की बंदिश रहेगी। अब चूंकि “झरना” में “न” व्यंजन तो है लेकिन उसके ठीक पहले “र” व्यंजन है और उसके पहले “अ” की मात्रा है। इसलिए दोनों शब्दों (दाना/झरना) में तासीस वाली स्थिति नहीं है जबकि “दाना/शाना” में है। इसी तरह “दाना/झरना” उसी तरह हैं जैसे “दानअ” और “झरनअ”। इसे समझने के लिए अर्थवान एक शब्द युगल देखिए “सावन” और “उपवन”। अगर विभीषण/विभूषण सुसंगत हैं तो ये भी हैं।

अब फिर “आसान/इंसान” पर आते हैं। यहां “न” रवी है। पहली शर्त पूरी हुई। दूसरी- दहाई के स्थान पर एक-सी “आ” की मात्रा है। तीसरी शर्त के अनुसार दोनों शब्दों में दहाई पर स्थित “स” व्यंजन एक-सा है। चौथी शर्त पूरी नहीं हो रही है क्योंकि इससे ठीक पहले “इंसान” में “न” व्यंजन है और “आसान” में “आ” की मात्रा है। अतः चौथी शर्त पूरी नहीं हुई इसलिए तीसरी शर्त पूरी होते हुए भी काम की नहीं है। अब पहली दो शर्तें ही पर्याप्त हैं, इन शब्दों को सुसंगत काफिया सिद्ध करने के लिए। अतः इन शब्दों में “सान” की बंदिश न होकर “आन” की बंदिश ही रहेगी अर्थात पहली दो शर्तें ही लागू होंगी।

अब “आसां/इंसां” पर विचार कीजिए। “आं” हर्फ़-ए-रवी है। स्वर काफ़िये (चूंकि वे स्वयं दीर्घ स्वर के होते हैं) में रवी के आगे स्वर साम्यता की कोई भी शर्त नहीं होती है। समझने के लिए भी इसे भी “आसअ” और “इंसअ” लिख कर देखिए; “साजन/इंजन” की तरह (अंत के अनुस्वार से कोई अंतर नहीं पड़ता इसलिए छोड़ दिया)। “विभीषण/विभूषण” की तरह ये भी सुसंगत होंगे। “आसां/इंसां” भी सुसंगत हैं।

स्वर काफ़िये देखने-सुनने में उतने अच्छे नहीं लगते जितने अन्य काफ़िये। इसलिए भ्रम बना रहता है।

काफ़िये की जोड़ियों को परखने के लिए इकाई पर रवी को रखिए। तत्पश्चात यदि दहाई पर स्वर साम्यता है तो सैकड़े पर जाएं अन्यथा यहीं रुक जाएं। यही क्रम अपनाएं। “आसां/इंसां” में इसलिए इकाई के स्थान पर रुक जाएं। आगे अगर स्वर की साम्यता नहीं है, तो व्यंजन की साम्यता को भूल जाइए। स्वर काफ़िये के साथ मुसीबत यही है कि वे अटपटे और उलझन में डालने वाली स्थिति में ले आते हैं, इसलिए “आसां/इंसां” और “दाना/झरना” सुसंगत नहीं लगते और ऐसी स्थिति से बचना चाहिए।

विजय कुमार स्वर्णकार, vijay kumar swarnkar

विजय कुमार स्वर्णकार

विगत कई वर्षों से ग़ज़ल विधा के प्रसार के लिए ऑनलाइन शिक्षा के क्रम में देश विदेश के 1000 से अधिक नये हिन्दीभाषी ग़ज़लकारों को ग़ज़ल के व्याकरण के प्रशिक्षण में योगदान। केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियंता की भूमिका के साथ ही शायरी में ​सक्रिय। एक ग़ज़ल संग्रह "शब्दभेदी" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। दो साझा संकलनों का संपादन। कई में रचनाएं संकलित। अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित।

1 comment on “क़ाफ़िया कैसे बांधें : भाग-3

  1. सुल्तान अहमद साहब को मैं ‘पहल’ के ज़माने से पढ़ता रहा हूँ। वो बहुत अच्छे आलोचक हैं। लेकिन उन्होंने ग़ालिब के जिस काफिये का हवाला दिया है, उससे कोई भी confuse हो सकता है। क्योंकि ये मसला ही ऐसा है।

    आपने बहुत स्पष्टता से इस गुत्थी को सुलझाया है। इस तरह की ज़रूरी जानकारी आमतौर पर नहीं मिल पाती, और नए रचनाकार ही नहीं, बल्कि वरिष्ठ भी संशय की स्थिति में बने रहते हैं।

    ऐसे लेखों से निश्चित ही मेरे जैसे ग़ज़ल के अन्य विद्यार्थियों के लिए भी लाभ होगा।

    हार्दिक आभार एवं शुभकामनाओं सहित

    धर्मेन्द्र तिजोरीवाले’आज़ाद’

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