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भवेश दिलशाद की कलम से....

राज बेगम: कश्मीर की आवाज़, कश्मीरी औरतों का इंक़लाब

            दुख इंसानी अहसासों का दिल है और इस दुख के दिल को भेदने वाली आवाज़ का एक नाम राज बेगम। ख़ुशी के गीतों की बनिस्पत दुख के गीत देर तक याद रहते हैं, दूर तक साथ चलते हैं। ऐसे ही गीतों की तरह की एक शख़्सियत का नाम राज बेगम।

श्रीनगर के मगरबल बाग़ इलाक़े में 27 मार्च 1927 के दिन पैदा हुईं राज बेगम के पिता का नाम ग़ुलाम रसूल शेख़ था। बचपन से ही गायकी की तरफ़ उनका रुजहान था और किशोरावस्था तक वह शादियों व सामाजिक समारोहों जैसे मौक़ों पर अपनी सोज़मंद आवाज़ में लोकगीत गाने के लिए शोहरत बटोर चुकी थीं। 1947 के आसपास के वक़्त कश्मीर में भी बाक़ी हिंदोस्तान की तरह आज़ादी के ताज़ा झोंके महसूस किये जा रहे थे और कई लोग अपने जिन आज़ादाना जज़्बात को मुद्दत से दबाये हुए थे, उन्हें ज़ाहिर करने के लिए बेचैन हो रहे थे।

राज बेगम के क़ुदरतन फ़न की पहचान कहते हैं उस्ताद ग़ुलाम क़ादिर लंगू ने की थी, जो ख़ुद सारंगी और लोकगीतों के माहिर थे। लंगू की शागिर्दी में राज बेगम ने कुछ हद तक संगीत और सुरों की तालीम भी ली। हालांकि उनके हालात बहुत मुश्किल थे। समाज और परिवार का लगातार एक ख़ौफ़ और पग-पग की पाबंदी का घेरा तोड़ना एक कश्मीरी औरत के लिए, एक मुसलमान कश्मीरी औरत के लिए आसान काम नहीं था।

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1954 में इतिहास रचा गया, जब लंगू ने राज बेगम की आवाज़ को रेडियो कश्मीर पर संगीत के कार्यक्रम में पहली बार मौक़ा दिलवाया। ऐसा नहीं था कि रेडियो से राज बेगम की आवाज़ गूंजने की देर थी और उन्हें हाथो-हाथ लिया गया था… बल्कि इससे एक पारंपरिक समाज में एक हैरानी और उलझन भी पैदा हुई। कुछ वक़्त लगा लोगों को यह ज़ाहिर करने में कि उन्हें रेडियो से एक कश्मीरी औरत की जानदार आवाज़ में शानदार नग़मे सुनना सुकून दे रहा था।

कश्मीर रेडियो पर उस शुरूआती वक़्त में रिकॉर्डिंग्स की सुविधा नहीं थी। लाइव प्रोग्राम होता था और सुनने वालों की यादों में वह आवाज़ बसकर रह जाती थी। रिकॉर्ड्स बनने का सिलसिला बाद में शुरू हुआ लेकिन 1986 तक रेडियो कश्मीर के लिए गाती रहीं राज बेगम की बदक़िस्मती कही जाये या कश्मीर की ही, उनके गाये हुए प्रोग्रामों के ज़ियादातर रिकॉर्ड्स एक आगज़नी की भेंट चढ़ गये और बाद में एक बार बाढ़ की।

यह कहर टूटा, लेकिन इन मायनों में भला हुआ कि राज बेगम ने ख़ुद और उनकी राह पर चलने के लिए बेचैन कई ज़नाना आवाज़ों ने उनके गाये कई गानों को बार-बार ज़िंदा करने की कोशिश की। राज बेगम की आवाज़ की कुछ ही रिकॉर्डिंग्स अब सार्वजनिक सोशल मीडिया पर मिल जाती हैं। उनकी आवाज़ की लहरदारी, खनक, रेंज, सोज़ और जान सुनने वालों के दिल और रूह से एकदम कनेक्ट होती है।

आवाज़ के कारनामे

  • — महाराज क़ौल अपने लेख में लिखते हैं, डल झील की तरह ही राज बेगम की आवाज़ भी कश्मीर का प्रतीक बन गयी। संगीतप्रेमी मानते हैं कि वह आधुनिक कश्मीर की सबसे महान गायिका रहीं।
  • — औतार मोता के लेख के अनुसार, राज बेगम की गायकी के कुछ दीवाने उन्हें ‘कश्मीर की आशा भोसले’ तो कुछ और लोग उन्हें ‘कश्मीर की रेशमा’ कहना चाहते थे। बेगम अख़्तर भी उनकी ऊँची, दिल छू लेने वाली, गहरी और धड़कती हुई आवाज़ की मुरीद थीं। बेगम अख़्तर ने तो उन्हें मशवरा दिया था कि वह सिर्फ़ ग़ज़ल ही गाएं।
  • — क़ैसर कलंदर लिखते हैं, राज बेगम और नसीम अख़्तर, दोनों ने मेरी धुनों पर अपनी आवाज़ से एक बड़ा कारनामा किया। राज की आवाज़ में मिर्ज़ा आरिफ़ का गीत… रुम्म गयम शीशस बेगुरर ग़ुम बना मेयौं… कई उत्कृष्ट प्रस्तुतियों में से एक है। दोनों औरतों ने रेडियो कश्मीर के पहले दशक के दौरान ख़ासी शोहरत हासिल की।
  • — प्रसिद्ध गायिका आरती टीकू कौल ने सोशल मीडिया पर लिखा, “राज बेगम ने अपनी गहरी, गूंजती आवाज़ से लाखों दिलों को छुआ। संगीत में न्यूनतम/बिना किसी प्रशिक्षण के, उनमें शब्दों को अत्यंत गहराई और भाव के साथ गाने की अद्भुत प्रतिभा थी। हाँ, वह हमें रेशमा की याद दिलाती हैं… जो केवल अपनी आवाज़ की गहराई और सही भावनाओं के दम पर ही बुलंद थीं।
  • — राज बेगम ने कश्मीर फ़िल्म ‘महजूर’ के लिए प्लेबैक सिंगिंग के ज़रिये भी एक इतिहास रचा था। उनकी ज़िंदगी पर या उससे प्रेरित कम से कम एक वृत्तचित्र और एक फ़ीचर फ़िल्म बन चुकी है।
  • — पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी जैसे सम्मानों से भी उन्हें नवाज़ा गया।

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संघर्ष, मुक़ाम और क्लाइमेक्स

कौल लिखते हैं कि राज बेगम ने उन्हें बताया था कि 21 बरस की उम्र में, दुविधाजनक हालात में प्रोफ़ेशनल सिंगिंग के हक़ में फ़ैसला किया था। उनके पति की तरफ़ से सार्वजनिक तौर पर गाने की मनाही थी, लेकिन बाद में जब मियां बीवी के बीच इस बात को लेकर तकरारें हुईं, तो यह मनाही धीरे-धीरे ख़त्म हो गयी।

कश्मीर की बुलबुल कही गयी, अपने क़ुदरतन फ़न के लिए अवाम के साथ ही उस्तादों और महान कलाकारों से सराही गयी, साल-हा-साल रेडियो कश्मीर के लिए गाती रही इस आवाज़ का अंजाम क्या हुआ? कौल के मुताबिक़, उन्हें हज़ार अवॉर्ड मिले, लेकिन राशि वाला कोई अवॉर्ड मुश्किल से मिला। वह ग़रीब इसलिए भी थीं, क्योंकि रिटायरमेंट से पहले उनकी कमाई का इकलौता ज़रिया रेडियो कश्मीर से आने वाली तनख़्वाह थी, जो इतनी कम थी कि इसे एक मज़ाक़ ही कहा जाये तो ठीक। कश्मीर की सबसे बड़ी गायिका को दो वक़्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल रहा।

कश्मीर में कलाकारों की क्या अहमियत है, राज बेगम की मिसाल से समझा जाना चाहिए। वे अपने कला के काम से गुज़ारा नहीं कर सकते। कहते हैं जिस मुल्क में कलाकारों की क़द्र नहीं होती, वह महान या अग्रणी नहीं कहा जा सकता। इस विचार के पीछे भावना यही है कि कला इंसान की रूह को कभी-कभी तो इतना ऊपर उठाती है, जितना धर्म भी न उठा सके।

कश्मीर की औरतें अपनी आवाज़ का जादू आज बिखेर पा रही हैं, तो इसका बड़ा श्रेय राज बेगम के संघर्ष को जाता है। 26 अक्टूबर 2016 वह तारीख़, जब अपनी और कश्मीर की बदबख़्ती से जूझते हुए ख़ुद एक दर्द भरा गीत बन गयी यह आवाज़ जहाने-फ़ानी से रुख़सत हुई। आइए, इस आवाज़ की यादों को सलाम करना न भूलें…

भवेश दिलशाद, bhavesh dilshaad

भवेश दिलशाद

क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।

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