ज़िया फ़ारुक़ी, zia faruqi

अपनी बेवतनी से तबाह बूढ़ा दरवेश - ज़िया फ़ारुक़ी

              एमएचके इंस्टिट्यूट की लाइब्रेरी में किताबों के दरमियान बैठे हुए बूढ़े दरवेश की तरह अपनी सिम्त आती हुई हर परछाईं, हर आहट पर… मुस्कुराने लगते। रूमाल से अपने होंठ पोंछते और क़रीब-क़रीब हंसते हुए खड़े होकर अपने मेहमान को गले लगा लेते। यूँ तो किताबों से धुएं की मानिंद उठते हुए किरदारों में उनका मन रमा रहता मगर जीती-जागती आँखों की बात अलग होती है। वो चाहते थे उनकी तन्हाई में दख़्ल देने वाले आते रहें… आख़िर उनकी क़ुरबत की शिद्दत से मेरी याद से भी वो लम्हा जाता रहा कि कब उनसे मेरी पहली मुलाक़ात हुई और फिर कैसे मरासिम इतने गहरे होते गये।
किसी सवाल की सूरत है कायनात तमाम
और इस सवाल का आसान सा जवाब है इश्क़
अता न करता अगर वो मिज़ाजे-दरवेशी
तो मेरी ज़ात से रौशन जहाँ नहीं होता
तमाम रात ये आँखें तलाश करती रहीं
मिरा सितारा मगर आसमां पे था ही नहीं

कानपुर से भोपाल तक फैला वो रेत का दरिया किसी अजनबी छागल से दो चार बूंदों के छलकने पर उल्टा भर जाये ये मुमकिन ही नहीं था। उस रेत के दरिया के तह में कभी न बुझने वाली इक प्यास रवाँ थी। वो अक्सर मुझे उत्तर प्रदेश से आये अपने शायर दोस्त से कुछ ऐसे मिलवाते जैसे पराये देस में दो हमवतन मिलते हैं, मगर एक अनजान शायर से कोई क्योंकर मिलता, मैं ज़िया साहब की शफ़क़त का मन ही मन शुक्रियादा करता और महसूस करता कि आख़िरश कैसे अब उनका वतन उनके सीने में दिल बनकर धड़क रहा है।
ज़मीं थी सख़्त मुझे कोई नक़्शे-पा न मिला
तिरी गली से जो निकला तो रास्ता न मिला
मैं सुनाऊं क्या कोई दास्ताँ कि सुबूते-ग़म भी नहीं रहा
मिरे इश्क़नामे को ले गया कोई ताक़-ए-जाँ से निकाल के
वो तो इक ख़्वाहिशे-नाकाम थी जो चीख पड़ी
बेसबब अपनी ही आवाज़ से डरना कैसा

वो बोझिल शाम जब… साहित्य की सभा निपट चुकी थी, फिर काना-फूसियों, सरग़ोशियों और बातों का दौर शुरू हुआ तभी ज़िया फ़ारुक़ी साहब हिंदी भवन के महादेवी वर्मा हॉल से बाहर निकले… कुछ बुझे हुए से लग रहे थे। अपनी बिफरी साँसों से, पनीली आंखों से, लड़खड़ाती आवाज़ और ग़ालिबन पाँच फुट के निढाल बदन से सबका ध्यान हटाकर अपने ख़ुश-पैरहन की ओर ले जाने चाहते थे मगर उनके चेहरे की लालामी कम होकर आँखों में सिमट रही थी, उनका सीना फूलने से पहले ही सिकुड़ा जा रहा था। उस शाम उनकी हस्ती पर दमा का रोग हावी था। चलते हुए क़दमों में लग्ज़िश न हो तो उनके पास इक नौजवान की बांह का सहारा था लेकिन वो मुस्कुराते हुए मानो हर शख़्स को इस चाहत से देख रहे थे कि उन्हें न सही मगर उनकी सुख़नवरी तो संभाली जाये। मैं तपाक से उनके नज़दीक पहुँच गया… मुझे गले लगाते हुए कहने लगे- “मियाँ इतना मत तरसाया करो, मिलते रहो, आपको देखकर अपने तरफ़ की याद ताज़ा हो जाती है।” मैं उनसे रेगुलर न मिलने के कारण शर्मिंदा हो रहा था। उसके बाद मैं उनसे क्या मिलता… वो मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात थी। ज़िया फ़ारुक़ी ज़ईफ़ हाथों की कंपकंपाती हुई सी तहरीर थे, हज़ारों औराक़ उनकी उंगलियों का लम्स पाकर मुक़द्दस सैराबी से तर थे मगर उनकी अपनी प्यास आख़िरी समय तक नहीं बुझी थी।
सोचो तो एक अब्र का टुकड़ा बरस गया
देखा तो दूर दूर हवा में नमी न थी
अनजान रहा मैं भी ग़म ओ गर्द से बरसों
बेगाना रही मुझसे ये दुनिया भी बहुत
मत पूछिए क्या जीतने निकला था मैं घर से
मत पूछिए क्या हार के लौटा हूँ सफ़र से

वो मुझे खोयी हुई दास्तानें सुनाते थे, तारीख़ के उन पन्नों को ज़बानी सुनाते थे जिनकी तहरीर वक़्त के दीमक़ों ने चाट ली थी। वो उन शायरों का ज़िक्र करते जो अपनी ज़िंदगी का मक़्ता लिख चुके थे। इब्ने-सफ़ी का ज़िक्र करते तो उनके चेहरे पर उनका बचपन दिखायी देने लगता और जब उन्हें मंटो की याद आती तो उनके होंठ बेतहाशा कांपने लगते और उनकी आँखों से आसुंओं की पतली धार टपकने लगती।
बेहिसी इतनी कि मैं ख़ुद से भी बेगाना रहूँ
दर्द इतना है कि बेगानों को अपना लिक्खूं

मैं जानता हूँ- एमएचके इंस्टिट्यूट की लाइब्रेरी अब किसी का इंतज़ार नहीं करती, किताबों से धुएं की मांनिद किरदार नहीं उठते हैं, वहाँ इब्ने-सफ़ी और मंटो की बातें अब नहीं होतीं। एक बूढ़ा दरवेश अपनी बेवतनी से तबाह, मिट्टी हो चुका है, एक प्यासा दरिया भाप बनकर उड़ चुका है।

सलीम सरमद

सलीम सरमद

1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।

1 comment on “अपनी बेवतनी से तबाह बूढ़ा दरवेश – ज़िया फ़ारुक़ी

  1. बहुत ही खूबसूरती से लिखा गया है।

    बहुत सराहनीय।

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