
- September 8, 2025
- आब-ओ-हवा
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आदित्य की कलम से....
गालियों की सोशियोलॉजी और पॉलिटिक्स
मीडिया में वबाल मचा है कि प्रधानमंत्री को विपक्षी पार्टी के मंच से गाली दी गयी। मुझे बड़ा तआज्जुब हुआ! ये कैसी बेवक़ूफ़ी है! कोई अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी क्यूँ मारेगा भला! सत्ता पक्ष बहुत मुश्किल दौर से गुज़र रहा है और विपक्ष के पक्ष में बिहार में बयार चल रही है। विपक्ष की रैलियों में वैसा ही जनसैलाब देखने को मिल रहा है जैसा अन्ना के आंदोलन के समय दिल्ली में देखने को मिला था। ख़ैर जो भी हो किसी को गाली देना निंदनीय है और जिसने भी यह किया है उसकी सार्वजनिक तौर से भर्त्सना की जानी चाहिए।
गालियों के अनेक प्रकार होते हैं, जिनमें रिश्तेदारी और यौन क्रियाओं से जुड़ी गालियों का स्थान सर्वोपरि है, जिनका केंद्रीय भाव विश्व के हर समाज में लगभग एक जैसा ही रहता है। उत्तर और मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों में तो गालियों को विशेष सम्मान हासिल है और शादी विवाह के अवसरों पर स्थापित परम्पराओं के उलट पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों के ख़िलाफ़ महिलाओं को एक रिवाज के तहत अश्लील टिप्पणियाँ और गालियां देने की खुली छूट दी जाती है। गाँव देहात में पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं के बीच चल रही तक़रारों में (जिसे कज़िया भी कहा जाता है) प्रयुक्त गालियों का जनसामान्य में विशेष आदर देखा गया है, जिसे सारा मोहल्ला मंत्रमुग्ध होकर सुनता है और सालों उस पर चर्चा करके लुत्फ़ उठाता है।
सूत्रों से पता चला है कि बनारस के लोग इस गाली प्रकरण से ख़ासे नाराज़ हैं। काशीनाथ सिंह ने अपने उपन्यास “काशी का अस्सी” के माध्यम से गालियों को साहित्यिक स्वीकार्यता दिलाने में महती भूमिका निभायी है। बिहार का गाली प्रकरण एक सुनहरा अवसर हो सकता था, जिससे गालियों को देशव्यापी राजनीतिक स्वीकार्यता मिल जाती और यह उपलब्धि भी बनारस के खाते में जाती। वैसे भी ऑफ़ द रिकॉर्ड गालियां संसद से लेकर सड़क तक चल ही रही हैं। मगर प्रतिक्रियावादियों के दबाव के चलते मोदी जी ने जो प्रतिक्रिया दी, उससे सम्भवत: बनारस के लोग निराश हुए होंगे। गालियों की सांस्कृतिक धरोहर से संपन्न भोपाल बनारस का परंपरागत प्रतिद्वंद्वी रहा है। भोपालियों ने तो गाली प्रकरण को ज़रा भी गम्भीरता से न लेते हुए सिरे से ख़ारिज कर दिया है- “अमा खां मियां इत्ती सी बात पे कोई रोता है क्या..?”।
गालियों के प्रति सहिष्णुता का विकास उत्तर भारत के व्यापक क्षेत्रों में हुआ है। पंजाब से लेकर महाराष्ट्र तक रोज़मर्रा की बोलचाल की भाषा में यह भरपूर रूप से प्रयुक्त होती है। भारत के अन्य क्षेत्र जैसे दक्षिण और पूर्वोत्तर इस मामले मे पिछड़े मालूम पड़ते हैं। बहुत से क्षेत्रों मे गालियों ने अपनी अलग पह्चान बना ली है। मैं तो कहता हूं सरकार के संस्कृति मंत्रालय को भाषा विभाग के साथ मिलकर न केवल गालियों की पह्चान करनी चाहिए बल्कि इनकी जिओ टैगिंग भी करनी चाहिए क्योंकि गाली देने के अंदाज़ मात्र से उस व्यक्ति के क्षेत्र की पहचान आसानी से हो जाती है।
ऐसा नहीं है कि गाली का मामला सभ्य समाज में पहली बार उठा है। हमारा पुलिस विभाग गालियां देने और गालियां खाने के मामले में सर्वोच्च स्थान पर वर्षों से सुशोभित हो रहा है। अनेक कार्यस्थलों पर इसका प्रयोग धड़ल्ले से होता है जबकि गालियों के प्रयोग निषेध हैं, इससे संबंधित गाइडलाइनें भी जारी की जाती रही हैं। फिर भी समाज पर इसका कोई असर दिखायी नहीं देता। अंग्रेज़ी बोलने वाले प्रगतिशील लोगों में भी गालियों का व्यापक प्रचलन है। बहुत से कार्यस्थलों पर अंग्रेज़ी की गालियों के उपयोग की मौन स्वीकृति है, बशर्ते कि उसके हिंदी या वर्नाक्युलर संस्करण का उपयोग न किया जाये। प्रगतिशील महिलाओं को इसकी विशेष छूट है।
गालियाँ भावना की तीव्रता प्रकट करने का सरलतम माध्यम हैं। बड़े बड़े वाक्य जिन भावनाओं को प्रेषित करने में असमर्थ होते हैं, वहां प्रसंगानुसार दी गयी छोटी गाली भी यथेष्ठ परिणाम देती है और बिना स्पष्टीकरण दिये भावनाओं का संप्रेषण सफलतापूर्वक करती है। वैसे तो सामान्यतः गालियों का प्रयोग क्रोध, निषेध, आपत्ति, असहमति आदि नकारात्मक रूप में अधिक किया जाता है लेकिन बहुत से रचनात्मक लोग इनका प्रयोग जोश या उत्साह बढ़ाने, शाबाशी देने, आत्मीयता जताने, प्रसन्नता प्रकट करने जैसे अवसरों पर भी करते हैं। गलियों का असर इस बात पर निर्भर करता है वह किस अवसर पर, किस स्थान पर, किन लोगों की उपस्थिति में दी गयी है। इसी से उसके नकारात्मक अथवा सकारात्मक परिणामों की उत्पत्ति होती है।
गालियों का प्रसंग निकला है तो बहुत सी बातों का स्मरण हो रहा है.. लड़कियों द्वारा दी गयी गालियों यथा कुत्ते, कमीने, बदमाश, छिछोरा आदि को नौजवान लड़के तमग़ों की तरह धारण करके आह्लादित होते हैं। ज़रा भी बुरा नहीं मानते। वैसे ही अधेड़ “ठरकी” की उपाधि को अपने युवा बने रहने के प्रमाणपत्र के रूप में खुशी खुशी स्वीकार करते हैं। एक गाना है: ‘हुस्न के लाखों रंग, कौन सा.. रंग देखोगे’। गालियों पर भी ये लाइनें माकूल मालूम होती हैं। ख़ैर! जो भी हो विषयांतर नहीं होना चाहिए, तो हम फिर से उसी मुद्दे पर आते हैं।
हमारा समाज उसको नियंत्रित करने वाले सिस्टम और देश के तथाकथित भाग्यविधाताओं के हाथों में हैं, जिनके दोहरे मानदंड हैं। सिनेमा, टीवी, ओटीटी प्लेटफॉर्म और मोबाइल पर आने वाले कंटेंट में अश्लीलता, हिंसा और गालियों की भरमार होती है, जिसे सेंसर बोर्ड की व्यवस्था के बावजूद आम जनता को खुलेआम परोसा जा रहा है, तब जनता के अलावा न तो कोई पीड़ित होता है न ही अपमानित, न ही इसको नियंत्रित करने में समर्थ लोगों को कोई चिंता, लेकिन एक व्यक्तिगत टिप्पणी पर पूरा देश आहत हो जाता है। गाली काण्ड के विरोध में सत्ता पक्ष ही बंद का आह्वान कर रहा है, जिसका बहुत ही सीमित प्रभाव रहा। लगता है बिहार की जनता ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि जनता के हितों के इतर बात करने वालों को वह सिरे से ख़ारिज कर रही है। जनता असल मुद्दों पर कायम रहना चाहती है और चुनाव भी इन्हीं पर।
(कार्टून कांग्रेस नेता अलका लांबा के एक्स हैंडल से साभार)

आदित्य
प्राचीन भारतीय इतिहास में एम. फिल. की डिग्री रखने वाले आदित्य शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न एनजीओ के साथ विगत 15 वर्षों से जुड़े रहे हैं। स्वभाव से कलाप्रेमी हैं।
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