छड़ी रे छड़ी!

तख़्ती

छड़ी रे छड़ी!

आलोक कुमार मिश्रा

          केरल हाइकोर्ट ने हाल ही में अपने एक फैसले में कुछ ऐसा कहा जिसे सुनकर नागरिकों और विशेषकर हम शिक्षकों का एक तबका अपनी खुशी को छुपाए न छुपा सका। संबंधित ख़बर की क्लिप वॉट्सएप और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बड़े स्तर पर साझा की जाने लगी। इस फैसले में अदालत ने विद्यालयों में अनुशासन बनाए रखने में छड़ी की भूमिका को एक तरह से स्वीकार किया। जस्टिस पीवी कुन्हिकृष्णनन ने कहा कि शिक्षकों को बिना दुर्भावनापूर्ण इरादे के दी गई मामूली सजा के लिए आपराधिक केस से बचाया जाना चाहिए। केरल डीजीपी को इस संदर्भ में सर्कुलर जारी करने और उसे महीने भर के भीतर लागू करने का निर्देश भी दिया गया। कोर्ट का साफ़ मानना था कि शिक्षकों को छड़ी रखने की इजाजत मिलनी चाहिए जिससे विद्यार्थियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना रहे और वे अनुशासनहीनता न करें। ऐसे मामले में कोई भी कार्यवाही करने से पहले पुलिस द्वारा समुचित जांच किए जाने पर जोर दिया गया।

 

       हमारा समाज एक ऐसी गुरु-शिष्य परंपरा में विश्वास करता रहा है जिसमें विद्यार्थी को सही मार्ग पर लाने के लिए, सही सीख व सबक सिखाने के लिए गुरुजन द्वारा सख्ती दिखाने, दंड दिए जाने और कठोर परीक्षा लेने की बात निहित रही है। एकलव्य की कहानी इसी की बानगी है। शिक्षक की छड़ी उसकी पहचान के साथ जुड़ी रही है। हाल में कुछ रील वायरल हुईं जिसमें अपने-अपने क्षेत्रों के सफल लोग जब अपने शिक्षक से मिले तो उन्होंने उनके हाथों में छड़ी पकड़ाई और उससे प्रतीकात्मक रूप से मार खाते हुए का वीडियो बनाया। ये सोचने वाली बात है कि एक शिक्षक और उसके सफल विद्यार्थियों के संबंध में याद रह जाने वाली सबसे बड़ी बात उन्हें टीचर के हाथों पिटना ही लगा। अगर ऐसा है तो क्या सच में ये गर्व करने वाली बात है? क्या मिलकर ज्ञान निर्माण करने की कोई स्मृति, किसी बेहद उपयोगी बातचीत या घटनाक्रम की पुनरावृत्ति ज़्यादा अच्छी बात नहीं होती? पर हमारे समाज में शिक्षकों के साथ हमारे संबंधों के बीच छड़ी ही सबसे बड़ी दिखाई देती है। खासकर पिछली पीढ़ी तक तो ज़रूर ही। इस फैसले पर खुश होने वाला ये तबका दरअसल इसी पुरानी सोच का है।

 

 ये सब हो भी तब रहा जब शैक्षिक जगत पिछले कुछ दशक में काफी बड़े बदलावों का साक्षी रहा है। विद्यार्थी शिक्षा की समस्त प्रक्रिया के केंद्र में आ चुके हैं। शिक्षा के क्षेत्र में निर्माणवादी दृष्टिकोण ने बच्चों को सक्रिय अभिकर्ता मानते हुए उन्हें ज्ञान के सृजन में महत्वपूर्ण और सम्मानित सदस्य के रूप में मान्यता दी है, जिसे व्यापक स्वीकार्यता भी मिली। हमारे देश में आईं पिछली कुछ शिक्षा नीतियां इसकी ताकीद करती हैं। चाहे वह ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005’ रही हो या फिर ‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020’ सभी लोकतांत्रिक स्कूली परिवेश की हामी रही हैं जिनमें विद्यार्थियों को बिना भय और दबाव के रूचिपूर्ण वातावरण में सीखने के अवसरों की बात समाहित है। ‘शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009’ के लागू होने के बाद तो शारीरिक दण्ड देने पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई है। इसी का परिणाम है कि ऐसी घटनाओं में काफी कमी आई है। हालांकि यह पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई है।

 

          आज समय अनुशासन बनाए रखने के लिए विद्यार्थियों को दण्ड देने की जगह रूचिपूर्ण कक्षाई गतिविधियों और ज्ञान सृजन में उन्हें संलग्न करने, उनमें आंतरिक अभिप्रेरणा जगाकर सक्रिय अभिकर्ता व आलोचनात्मक चिंतन करने में सक्षम बनाने का है। इस बदलाव को समझने की सबसे बड़ी ज़रूरत ख़ुद शिक्षकों को ही है। ज़ाहिर है कि बदलाव और समय के पहिए को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता। यह लोकतंत्र और समानता का युग है। इसमें पुरातन सामंती तौर- तरीकों को छोड़ना ही होगा। ये बात तो ठीक है कि शिक्षकों को नाहक परेशान नहीं किया जाना चाहिए, पर छड़ी की छूट भी देना ग़लत होगा।

alok mishra

आलोक कुमार मिश्रा

पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।

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