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क़िस्सागोई

कठोर सच की कहानियां

नमिता सिंह

       आज मैं एक अलग तरह की कहानियों की चर्चा कर रही हूं। मुझे डर है कि वह कुछ लोगों की रुचि के अनुकूल न हो। मैं कारख़ानों की ज़िंदगियों पर आधारित एक कहानी संग्रह पर बात कर रही हूं। कुछ लोग कहेंगे कि ‘क्या है! कभी किसानों पर तो कभी कारख़ानों के मज़दूरों पर.. क्या कोई ख़ुशनुमा, मानव-जीवन के संबंधों, प्रेम-प्रसंगों वाली कृति पर बात नहीं हो सकती..’ वग़ैरह वग़ैरह। दरअसल ‘कारख़ानों में ज़िंदगी’ संग्रह की कहानियों को पढ़ते हुए अपने दिन याद आ गये। पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में हम भी ट्रेड यूनियनों के कार्यक्रमों में शामिल होते थे, फ़ैक्ट्री के सामने धरना देते हड़ताली साथियों का हौसला बढ़ाते तो कभी जुलूसों में नारे लगाते चलते। मज़दूरों की गतिविधियों और उनके जीवन-सूत्रों ने मेरी कई कहानियों को जन्म दिया और उपन्यास-प्रसंगों को भी।

     इसलिए इस संग्रह की कहानियों ने आकर्षित किया। तब किसने सोचा था कि इक्कीसवीं सदी में मज़दूर आसमान में लटक जाएगा! सुपर ह्यूमन हो जाएगा! सप्ताह में सत्तर से नब्बे घंटे तक काम – पूरा जीवन मालिक को समर्पित। अब एआई का युग है। नया मानव या तो स्वयं रोबोट बन जाये या समाज ही मानवरहित हो जाये। मशीनें… केवल मशीनें… रूपांतरित मशीनी मानव। बहरहाल, नयी व्यवस्था में यूनियनों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक ​हटाओ-चार पीछे तैयार। ये अलग बात है कि मशीनी मानव चाहे फ़ैक्ट्री में हो या सजे-सजाये वातानुकूलित आफ़िस में।

       इस संग्रह की क​हानियों में फ़ैक्ट्री मज़दूर हैं, उनका जीवन है और फ़ैक्ट्रियों के भीतर की राजनीति है। अपने समय के अनेक महत्वपूर्ण कथाकारों ने फ़ैक्ट्रियों के भीतर की ज़िंदगी को पास से देखा, जो वहां की व्यवस्था से किसी न किसी रूप से जुड़े रहे। शेखर जोशी, इसरायल, सतीश जमाली, अब्दुल बिस्मिल्लाह, संजीव, राजेंद्र राव, प्रह्लाद चंद्र दास, नारायण सिंह, अमरीक सिंह दीप, श्री नाथ, गोविंद उपाध्याय, उद्भ्रांत, अजीत कौर, शेखर मल्लिक और पुस्तक के संपादक शकील सिद्दीक़ी की कहानियों के अलावा सबसे अधिक प्रभावित करने वाली कहानी ‘आईएसओ-9000’ है, जिसके लेखक जयनंदन हैं।

       यह एक इस्पात कारख़ाने की कहानी है, जिसके मालिकों ने आईएसओ-9000 (सर्टिफ़िकेट) के लिए आवेदन किया है ताकि उच्च गुणवत्ता के सत्यापन के आधार पर यह अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बेचा जा सके। एक कुशल, होनहार, युवा मज़दूर ओवरहेड क्रेन से भट्टी के ऊपर बिजली के स्विच को ठीक करने के दौरान दुर्घटनाग्रस्त होता है और पिघले लोहे के लैडेल (बाल्टी) में, जिसका तापक्रम 1600 डिग्री सेंटीग्रेड है, गिर जाता है। जैसा कि अनुमान था, उसका संपूर्ण व्यक्तित्व ठोस से द्रव में बदलकर, पिघले लोहे में घुल-मिल कर एक हो जाता है। इसके बाद की कहानी है कि किस प्रकार यह भयानक दुर्घटना छिपायी जाती है, कर्मचारियों की घेराबंदी की जाती है ताकि विज़िट पर आयी टीम को कोई सुराग़ न मिले और आईएसओ -9000 का सर्टिफ़िकेट मिल जाये। बेहद झकझोरने वाली व्यापार-व्यवस्था की अमानवीयता को उजागर करती यह कहानी मन पर प्रभाव डालती है। गुमनामी में चली गयी इस मौत से घरवालों को भी कोई मुआवज़ा नहीं मिलता क्योंकि उस दिन वह अनुपस्थित माना गया।

      संग्रह की इन कहानियों में चटकल फ़ैक्ट्री, कोयला खदान, बुनकर उद्योग, आर्डिनेन्स फ़ैक्ट्री, कपड़ा मिलों आदि के मज़ूदर हैं, उनके कार्यक्षेत्रों का वातावरण है, जो आम पाठकों को नयी जानकारी देता है। ये लेखकों के अपने अनुभव की कहानियां हैं। आज के आत्मकेंद्रित समाज में जहां मध्य-वर्गीय आशा-आकांक्षाओं के समुद्र में बहना नियति बन गयी है, यह संग्रह जीवन की कुछ कठोर सच्चाइयों को प्रस्तुत करता है।

नमिता सिंह

नमिता सिंह

लखनऊ में पली बढ़ी।साहित्य, समाज और राजनीति की सोच यहीं से शुरू हुई तो विस्तार मिला अलीगढ़ जो जीवन की कर्मभूमि बनी।पी एच डी की थीसिस रसायन शास्त्र को समर्पित हुई तो आठ कहानी संग्रह ,दो उपन्यास के अलावा एक समीक्षा-आलोचना,एक साक्षात्कार संग्रह और एक स्त्री विमर्श की पुस्तक 'स्त्री-प्रश्न '।तीन संपादित पुस्तकें।पिछले वर्ष संस्मरणों की पुस्तक 'समय शिला पर'।कुछ हिन्दी साहित्य के शोध कर्ताओं को मेरे कथा साहित्य में कुछ ठीक लगा तो तीन पुस्तकें रचनाकर्म पर भीहैं।'फ़सादात की लायानियत -नमिता सिंह की कहानियाँ'-उर्दू में अनुवादित संग्रह। अंग्रेज़ी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में कहानियों के अनुवाद। 'कर्फ्यू 'कहानी पर दूरदर्शन द्वारा टेलीफिल्म।

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