खुदेजा खान, हिंदी कविता, पुस्तक समीक्षा, khudeja khan, hindi kavita, hindi poetry, book review

'सुनो ज़रा' क्या कहती हैं ये कविताएं!

                “एक हूक ही थी
                जो उठी दिल से
               लाख कोशिशों के बावजूद
               दब न सकी”
(संग्रह की कोलाज कविता का अंश)

जानी पहचानी कवि ख़ुदेजा ख़ान उन रचनाकारों में से हैं, जिन्होंने एक तरफ़ अपनी आत्मा की पुकार सुनी तो दूसरी ओर आम आदमी के जीवन संघर्ष और अभावों को बहुत नज़दीक से देखा है। जीवन से जुड़ी महीन से महीन चीजों को, घटित होने वाली समस्याओं को, प्रकृति के स्पंदन को अति सूक्ष्मता से आत्मसात किया है और अपनी रचनाओं में उतारा है।

आज के विकराल समय में लोकतंत्र पर लगातार हो रहे हमले और सत्ता तंत्र के मनमाने रवैये के शिकार दबे-कुचले आम आदमी की बदहाली की चिंता रचनाओं में दिखती है। “बलि” कविता में इसे देखा जा सकता है-

मेरा देश
मेरी ज़मीन
मेरी सत्ता
मेरा शासन
शासन का अघोषित नियम
जिसने भी जुर्रत की
आंख उठाने की
सर कलम कर दिया जाएगा

इस संग्रह की कविताएं एक ओर जीवन, समय और सामाजिक विकृतियों पर प्रहार करती हैं तो दूसरी ओर देश में हुक्मरानों की मनमानी, जालसाज़ी और साम्प्रदायिक षड्यंत्रकारी नीतियों को उजागर कर मानवीयता के पक्ष में आवाज़ उठाती हैं। साथ ही, जीवन के रंगों में समाहित होकर विभिन्न आयामों से गुज़रती हुईं ज़मीनी धरातल से आकाश की ऊंचाई तक अपने पंख फैलाते हुए भावनाओं की अनंत गहराई में डूबकर संवेदनात्मक दृश्यों को रचती हैं।

इन कविताओं में जीवन के दुष्कर समय की भीषणताओं के बीच कहीं न कहीं उम्मीद की एक लहर बची हुई है। घुप्प अंधेरी रात के निःशब्द सन्नाटे में अभी भी बची हुई है प्रभात की एक किरण, नव जीवन का संदेश देती हुई आशा को जगाने वाली एक आहट।

संवेदनाओं का ठहराव कवि हृदय के मनोभावों को जाग्रत कर सृजन की ओर प्रेरित करता है। कल्पना लोक में विचरण करता कवि स्मृतियों के घटाटोप में डूबकर एक सफल रचना को जन्म देता है। ख़ुदेजा ख़ान की कविताओं में भाव सौंदर्य अद्भुत हैं।

खुदेजा खान, हिंदी कविता, पुस्तक समीक्षा, khudeja khan, hindi kavita, hindi poetry, book review

प्रेम के आंतरिक सौंदर्य की सूक्ष्म अनुभूति का अहसास कराने वाली कविताओं में गहन संवेदना देखी जा सकती है जैसे- ‘कठिन समय के लिए’, ‘पता नहीं’, ‘मंत्र’, ‘था और है’, आदि कई कविताएं हैं।

ये कविताएं जीवन से जुड़ी तमाम विसंगतियों और बीते समय की स्मृतियों को दर्ज करती हुए सामाजिक, राजनैतिक विषमताओं, विद्रूपताओं का पर्दाफ़ाश कर मानवीय मूल्यों को बचाये रखने की बात कहती हैं।

आज के दौर में जहां मानवीय संवेदनाओं का दिनों दिन ह्रास होते देखा जा रहा है, वहां कवि को गहन चिंतन और भावावेश की गहराई में उतरते देखा जा सकता है। आत्मा के किसी कोने में दुबकी हुई वेदना का दर्द कविता के शब्दों में बिखर कर मुखरित होता दिखता है। “पता नहीं” कविता में बीते समय की स्मृतियों में पीड़ा की गहन अनुभूति दर्शित होती है। वक़्त की चाल को कोई नहीं समझ सकता, वह कहां किस मोड़ पर ले जाकर खड़ा कर दे। एक समय के बाद धीरे-धीरे बहुत कुछ बदल जाता है, कितना कुछ बचा रहेगा या सब कुछ डूब जाएगा, कहा नहीं जा सकता। पता नहीं कविता का अंश-

अब शेष चंद कड़ियां
प्रेम भाव की
इनका भी साथ छूट रहा
हर पड़ाव पर
हृदय का आलाप
सुनने वाली कड़ी
अंत तक बची रहेगी या नहीं
पता नहीं

आज के समय प्रेम, और आत्मीयता का अभाव, टूटते रिश्ते, डूबती संवेदनाओं से उपजी व्यथा की भाव व्यंजना अद्भुत है, जो अंतर तक झकझोरती है। यहां प्रेम की महत्ता का अनूठा सौंदर्य उद्घाटित होता है।

“ज़रूरी है” कविता का अंश-

बची रहेगी नमी
बचा रहेगा प्रेम
बची रहेगी हरीतिमा
बची रहेगी प्रकृति

इस समय की विभीषिकाओं और युद्ध की त्रासदी को आत्मसात करते हुए पीड़ा को कविता के शब्दों में पिरोकर अपनी व्यथा को व्यक्त करने का प्रयास किया है। चाहे धर्म युद्ध हो या सत्ता की लोलुप शक्तियों का टकराव, इसका हर्जाना आम आदमी को ही उठाना पड़ता है। ‘इंतहा हो गयी’ कविता के कुछ अंश-

दो विरोधी शक्तियों के टकराव में
मनुष्य की चकनाचूर हुई दुनिया
फिर नहीं संवर पाएगी
काश! आहें और कराहें
मिसाइल की तरह जा लगतीं
हत्यारों के सीने पर

इंतहा हो गयी
बच्चे अपने हाथों पर
अपना नाम लिख रहे हैं
ताकि मलबे में मिली लाशों में
उनकी शिनाख़्त हो सके

युद्ध के बीच चीख़-पुकारों का कारुणिक दृश्य युद्ध के बाद तक दुस्वप्न की तरह बार-बार भावनाओं को आहत करता है। यहां मंगलेश डबराल की कविता “बच्चों के लिए चिट्ठी” की ये पंक्तियां प्रासंगिक हैं-

यह एक लंबी रात है
एक सुरंग की तरह
यहाँ से हम देख सकते हैं
बाहर का एक अस्पष्ट दृश्य
हम देखते हैं मारकाट और विलाप
बच्चों हमने ही तुम्हें वहाँ भेजा था
हमें माफ़ कर दो

इसी तरह युद्ध की त्रासदी के प्रमाणस्वरूप बाल-मन पर विपरीत प्रभाव को अच्युतानंद मिश्र की कविता “बच्चे धर्म युद्ध लड़ रहे हैं” के इस अंश में यहां प्रासंगिक प्रतीत होती है।

सच के छूने से पहले
झूठ ने निगल लिया उन्हें
नन्हे हाथ
जिन्हें खिलौनों से उलझना था
खेतों में बम के टुकड़े चुन रहे हैं

युद्ध की प्रलयकारी आपदाओं को झेलते हुए जो इस जंग में सिर्फ़ जीवन बचाने की जद्दोजहद में फंसे हैं, उन सारे खदेड़े लोगों की मनोदशा का, इस संग्रह की कविता “फिर मिलेंगे” में हृदय विदारक मार्मिक चित्रण किया गया है।

जा रहे हैं छोड़कर
एक अनिश्चित दिशा की ओर
जहां उजाला मिलेगा या अंधेरा
कुछ मालूम नहीं

ज़िंदगी बेशक़ीमती है
इसे बचाने के संघर्ष में
जीवित बचे तो
फिर मिलेंगे मेरे वतन
फिलहाल अलविदा!

आम आदमी के जीवन संघर्ष और मृत्यु का कहीं कोई मूल्यांकन नहीं किया जाता। आज यह साक्षात् रूप से देखा भी जा रहा है, चाहे हमला हो या सांप्रदायिक दंगे, इसमें हताहत हुए लोगों, दबती कुचलती लाशों पर सिवाय राजनीति के कुछ नहीं होता। मन्नू भंडारी के “महाभोज” उपन्यास में लाशों पर महाभोज का जश्न राजनीति का सबसे क्रूरतम उदाहरण है। इस संग्रह की कविता “अलिखित क़ानून” के इस अंश में निर्मम दृश्य देखा जा सकता है-

लगातार हो रहे हमलों से
असंख्य पीड़ित मनुष्यों का
नाम दर्ज हो रहा है
मृतकों की सूची में

घोर विडंबना की सूचक
इस सूची का सूचकांक नीचे नहीं आता
निर्दोषों का जान गंवाना
अलिखित क़ानून हो जैसे।

प्रकृति के सान्निध्य में ही मानव जीवन विकसित, पल्लवित होता है लेकिन आज के समय हर ओर मानव की प्राणवायु प्रकृति को नष्ट किया जा रहा है। यहां कवि ने पेड़ों की अन्तर्वेदना को आत्मसात करते हुए पर्यावरण संरक्षण और उसकी महत्ता पर बल दिया है। “पेड़ का दुख” से एक अंश-

कौन है जिसने
अंग भंग कर दिये उसके
कौन है जिसने
छीन लिया चिड़ियों का आशियाना

अब यह बाहें फैलाकर
नहीं कर सकता स्वागत
उड़ते परिंदों का

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की बहुचर्चित कविता “थोड़ी सी धरती पाऊं” याद आ रही है-

एक-एक पत्ती पर
हम सबके सपने सोते हैं
शाखें कटने पर वे
भोले बच्चे से रोते हैं

इस समय की सजग रचनाकार ख़ुदेजा ख़ान की कविताएं निराशा, संघर्षों और तमाम आपदाओं के बावजूद भी धीरज की डोर थामे हुए हैं, जिसमें आशा-उम्मीद की अनुगूंज सुनायी देती है। ये कविताएं जीवन के डूबते-उबरते क्षणों में उम्मीद की एक किरण की प्रतीक्षा में संबल बनाये रखती हैं। “तिनके का सहारा” कविता का अंश-

गृह युद्ध
धर्म युद्ध
विश्व युद्ध की विभीषिका

विसंगतियों, विषमताओं, विडंबनाओं के बावजूद
मनुष्यता ने पूरी तरह
दम नहीं तोड़ा
वह बची रही कहीं न कहीं
मानवीय सरोकारों में

ख़ुदेजा का कविता संग्रह “सुनो ज़रा” जो न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित हुआ है, इसमें 93 कविताएं संग्रहित हैं। जीवन के अनुभवों से उपजी ये कविताएं सहज शब्द संयोजन एवं सरल और सुबोध भाव शैली में रची गयी हैं। ख़ुदेजा ख़ान उन बहुआयामी रचनाकारों में से हैं जो कविता, ग़ज़ल और नज़्मों पर कलम चलाकर एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में सामने आती हैं। अब तक उनकी ग़ज़ल, कविता, नज़्मों की पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, साथ ही कई साझा संग्रहों में कविताएं, कहानी, ग़ज़लें, हाईकू, नाटक व अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं भी प्रकाशित हो चुकी हैं।

(पुस्तक समीक्षा : रामदुलारी शर्मा)

रामदुलारी शर्मा, ramdulari sharma

रामदुलारी शर्मा

हिंदी, इतिहास और अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर, विधि में स्नातक और गायन व तबला वादन में प्रभाकर। अभी तक गीत, नाटक, कहानी और कविता की कुल सात पुस्तकें प्रकाशित। "तीन रंग लोक के" नाट्य संग्रह के लिए मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा "हरिकृष्ण प्रेमी" अलंकरण-2010 और इसके अलावा कई सम्मान व पुरस्कार। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता, लेख और किताबों की समीक्षाएं प्रकाशित।

1 comment on “‘सुनो ज़रा’ क्या कहती हैं ये कविताएं!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *