
- October 15, 2025
- आब-ओ-हवा
- 0
नियमित ब्लॉग नमिता सिंह की कलम से....
तीसरा किरदार: कबीर और ग़ालिब के बहाने
युवा लेखक सलीम सरमद साहित्य के गंभीर अध्येता हैं। न सिर्फ़ हिन्दी, उर्दू और सूफ़ी काव्य उनकी दिलचस्पी के विषय हैं बल्कि एक क़िस्सागो के रूप में भी ऐतिहासिक संदर्भों की नितांत नये नज़रिये से पड़ताल वे अपने लेखों के माध्यम से करते रहते हैं। प्रस्तुत उपन्यास ‘तीसरा किरदार’ में मुख्य पात्र के रूप में ग़ालिब और कबीर हैं। एक तीसरा किरदार है, जो इन महान हस्तियों के बीच उपस्थित रहकर लगातार चलने वाली बेहद दिलचस्प बातचीत के साथ-साथ उनके दर्शन सामाजिक चिंताओं और उनके व्यक्तित्व की परतों को खोलने का प्रयास करता रहता है। यह तीसरा किरदार कब सूत्रधार के रूप में है और कब वह लेखक के सरोकार-चिंताओं के साथ एकाकार हो जाता है- इसका अनुभव पाठक समय-समय पर करता है।
ग़ालिब और कबीर अपने कालखंडों की अमर हस्तियाँ हैं, जिनकी उपस्थिति हिंदुस्तानी समाज में आने वाली सदियों में भी रहेगी। यह लेखक सलीम सरमद के गहन अध्ययन और वैचारिकी से उपजा भाव है कि वे दोनों को एक सूत्र से जोड़ते दिखायी देते हैं, हालांकि दोनों का सामाजिक-वैचारिक धरातल अलग है। दोनों में परिवेशगत समानता भी नहीं है।कबीर का समय पन्द्रहवीं शताब्दी है जबकि ग़ालिब उन्नीसवीं सदी में हैं। दोनों के जीने का तरीक़ा अलग है, सामाजिक सरोकार और चिंताएँ भिन्न हैं। इसके बावजूद सलीम दोनों को आमने-सामने खड़ा करते हैं। नौजवान कबीर और थके हुए वृद्ध ग़ालिब गुफ़्तगू करते हुए, इतिहास के ऊँचे-नीचे पड़ावों से गुज़रते हुए, दार्शनिक संवादों के साथ चुहलबाज़ियाँ भी करते हैं। इनके बीच तीसरा किरदार स्वयं की मानसिक यात्रा से गुज़रता हुआ मानो जीवन-सूत्र ग्रहण कर रहा है।
संवाद का एक नमूना- “ग़ालिब अपनी कुर्सी पर बैठे दुबारा दिखे, वो सामने बैठे थे- अपनी कुर्सी में ख़ामोश। उनको शेर सुनाकर उनकी मनोदशा को बदला जा सकता है, उनकी ख़ामोशी को तोड़ा जा सकता है, मैं यह काम पहले कर चुका था सो इस क्षण उनका इक शेर याद आया तो मैंने अपनी आवाज़ में ज़ोर देकर सुना दिया- ‘मुंद गयीं खोलते ही खोलते आँखें ग़ालिब/यार लाये मेरी बाली पे उसे पर किस वक़्त’।
मेरी आवाज़ बुलंद थी, ग़ालिब ने जब शेर सुना तो अपने दाहिने हाथ को इस अदा से उठाया कि लगा कि अपनी तख़लीक़ पर वो ख़ुद नाज़ां हुए हैं- तब तक कबीर मेरे निकट आ चुके थे, अपने माथे पर लकीरें बनाते, अपनी भवें सिकोड़ते, जुगनू सी आँखें चमकाते, मुस्कुराते हुए बोले- ये भी सुनो, ‘मुए पीछे मति मिलौ,कहे कबीरा राम/लोहा माटी मिलि गया, तब पारस कौने काम’। अब ग़ालिब अपने पूरे होश में थे, बोले- ‘आज़ाद रौ हूँ और मेरा मसलक है सुलहे-कुल/हरगिज़ कभी किसी से अदावत नहीं मुझे’।
फिर कबीर की बारी आयी- कबिरा खड़ा बज़ार में, मांगे सबकी ख़ैर/ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।
हस्ती के मत फेर में आ जाइयो ‘असद’/आलम तमाम हल्क़:-ए-दामे-ख़याल है।
सुरति समानी निरति में अजपा मां है जाप/लेख समाना अलेख में, ये आपा में आप।
—–फिर दोनों हँस दिये— मेरे लिए ग़ालिब से बातचीत करने का ये उचित समय था।”

ग़ालिब हिंदुस्तानी समाज और संस्कृति के ऐसे प्रतिनिधि शायर हैं, जिनकी मिसाल मिलना मुश्किल है। उनकी शायरी का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि आसानी से उसका आंकलन नहीं हो सकता। अपने किसी व्याख्यान में सुप्रसिद्ध शायर जावेद अख़्तर ने बहुत अच्छा कहा कि ग़ालिब की शायरी में हिंदुस्तानी दर्शन की अद्भुत झलकियाँ हैं और वह उद्धृत करते हैं- ‘न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता/डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता’। इसे वे भारतीय दर्शन के अद्वैतवाद से जोड़ते हैं। आगे कहते हैं- ‘जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा/कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है’- यानी जिस्म हिंदुस्तान में ही जला करते हैं और राख भी यहीं कुरेदी जाती है।
लोक में कबीर से जुड़ी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं और वे अपने पूरे कालखंड का प्रतिनिधित्व करते हैं। सबद और साखियों में भारतीय दर्शन है तो दूसरी ओर वे समाज के कोने-कोने की सफ़ाई करते दिखायी देते हैं और किसी को नहीं बख़्शते। कहना न होगा कि कबीर की उपस्थिति और तेवरों की आज भी ज़रूरत है। पूरे उपन्यास में तीसरा किरदार इन दोनों के लगातार चलने वाले वार्तालाप के बीच उपस्थित है। एक स्थिति के बाद यह मात्र दर्शक और श्रोता नहीं रहता। फिर कब लेखक और यह किरदार एकाकार हो जाते हैं और कब अलग- यह उपन्यास के प्रवाह में निहित है। लेखक कह रहा है- “सबदी गाने वाले, अपनी बोली का मान बढ़ाने वाले, ताशे बजाने वाले- ढोलक की थाप पर अपने सुर उछालने वाले- वो मुझ तक आये कबीर की तरह और अंत में ग़ालिब की तरह भी”। यानी कबीर साधारण जन की भावनाओं का प्रतीक है, तो ढूंढने पर पता चलेगा कि ग़ालिब केवल अभिजात्य जन का शायर नहीं, आमजन की आवाज़ भी है।
यह उपन्यास पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि इन दो महान हस्तियों के प्रति लेखक का नया दृष्टिकोण और अध्ययन चकित करता है। सलीम सरमद की क़िस्सागोई का अंदाज़ पाठक को बांधे रखता है। अंत में उपन्यास की यह पंक्ति, “शब्द विवेकी किसी तीसरे किरदार की तरह हर दौर की कहानी में मौजूद रहता है- मैं ही लेखक हूँ और मैं ही ग़ालिब-कबीर के बाद तीसरा किरदार-” और फिर- “सबदी गाने वालों की परंपरा क़ायम रहेगी।”

नमिता सिंह
लखनऊ में पली बढ़ी।साहित्य, समाज और राजनीति की सोच यहीं से शुरू हुई तो विस्तार मिला अलीगढ़ जो जीवन की कर्मभूमि बनी।पी एच डी की थीसिस रसायन शास्त्र को समर्पित हुई तो आठ कहानी संग्रह ,दो उपन्यास के अलावा एक समीक्षा-आलोचना,एक साक्षात्कार संग्रह और एक स्त्री विमर्श की पुस्तक 'स्त्री-प्रश्न '।तीन संपादित पुस्तकें।पिछले वर्ष संस्मरणों की पुस्तक 'समय शिला पर'।कुछ हिन्दी साहित्य के शोध कर्ताओं को मेरे कथा साहित्य में कुछ ठीक लगा तो तीन पुस्तकें रचनाकर्म पर भीहैं।'फ़सादात की लायानियत -नमिता सिंह की कहानियाँ'-उर्दू में अनुवादित संग्रह। अंग्रेज़ी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में कहानियों के अनुवाद। 'कर्फ्यू 'कहानी पर दूरदर्शन द्वारा टेलीफिल्म।
Share this:
- Click to share on Facebook (Opens in new window) Facebook
- Click to share on X (Opens in new window) X
- Click to share on Reddit (Opens in new window) Reddit
- Click to share on Pinterest (Opens in new window) Pinterest
- Click to share on Telegram (Opens in new window) Telegram
- Click to share on WhatsApp (Opens in new window) WhatsApp
- Click to share on Bluesky (Opens in new window) Bluesky
