
- May 15, 2025
- आब-ओ-हवा
- 3
शिक्षा के सही मायने
मोहल्ले में हमारे एक पड़ोसी की चर्चा उनकी तीन साल की बेटी की वजह से आजकल ख़ूब ज़ोरों पर है। कारण है कुछ याद करा दिये गये प्रश्नों का उत्तर तोतली आवाज़ में बच्ची द्वारा अंग्रेज़ी में फटाफट देना। अधिकतर प्रश्न सामान्य ज्ञान टाइप के हैं, जिन्हें दूसरों के सामने वह पड़ोसी दंपत्ति बड़े विश्वास के साथ बच्ची से अंग्रेज़ी में पूछता है और बच्ची भी कभी ख़ुश होकर, कभी ऊबते हुए उत्तर फटाफट देती जाती है। प्रश्नों की ख़ास प्रवृत्ति यह भी है कि उसमें अमेरिका संबंधी भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक जानकारी पर फ़ोकस है। यह दंपत्ति हर बार की प्रश्नोत्तरी के बाद यह बताना नहीं भूलता कि वे अपनी बेटी को पढ़ने के लिए अमेरिका भेजेंगे और इसी की तैयारी के लिए उसका दाख़िला एक महंगे इंगलिश मीडियम प्राइवेट स्कूल में कराया गया है। हमारे यहाँ बच्चों के लिए अपेक्षाओं से पगे भविष्य की तैयारी वैसे तो लगभग हर माँ-बाप के लिए सामान्य है। पर मध्यवर्गीय परिवारों में अपेक्षाओं का यह बोझ पूँजीवादी प्रतियोगी बाज़ार व्यवस्था में टिके रहने लिए ज़रूरी मानकों पर खरा उतरने के दबाव से पैदा होता है।
इन अनुभवों में रचनात्मकता, संवेदन-शीलता और आलोचनात्मक क्षमता जैसे गुणों के विकास की जगह निर्देशों के कुशलता-पूर्वक पूर्ण होने, किसी ख़ास काम को करने में निपुण होने जैसी बातें ज्यादा ज़रूरी मानी जाती हैं। चूँकि निरंतर परिवर्तनशील बाज़ार व्यवस्था में टिके रहने के लिए यह भी कोई गारंटी नहीं होती इसलिए बदलाव के अनुरूप हमेशा तैयार रहना, वह भी बिना कोई प्रश्न उठाये बहुत ज़रूरी है।
मज़बूती से जम चुकी पूँजीवादी-बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था जो प्रतियोगिता के नियम और लाभ के उद्देश्य से संचालित है, शिक्षा व्यवस्था ख़ुद को भी इसी के अनुरूप सहयोजित करने में लगी हुई है। आज भले ही विभिन्न देशों में निर्धारित और घोषित शैक्षिक पाठ्यचर्या स्वयं में लोकतांत्रिक-मानवीय मूल्यों व लक्ष्यों से लैस दिखती हों किंतु व्यावहारिक रूप से इसे व्यक्त नहीं करतीं। हमारे वर्तमान शैक्षिक दस्तावेज़ स्कूलों में बच्चों की व्यक्तिगत भिन्नताओं- क्षमताओं के सम्मान देते हुए अधिगम के अवसर देने, विविधताओं को सम्मान देते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास करने, अपने आसपास के परिवेश से जुड़ने, समस्याओं पर चिंतन करने और आलोचनात्मक चेतना से लैस होकर निर्णय लेने योग्य बनाने की बात करते हैं। नयी शिक्षा नीति भी इन्हीं आदर्शों को दुहराती है पर वास्तविकता में हमारी शिक्षा व्यवस्था आज भी रटन्त आधारित और परीक्षा परिणामों पर केन्द्रित बनी हुई है। स्कूलों में भी निजी और सरकारी का विभाजन भी इसके शैक्षिक स्वरूप को गहरे तक प्रभावित करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के समय से ही ‘समान स्कूल व्यवस्था’ (कॉमन स्कूल सिस्टम) के लिए घोषित किये गये राष्ट्रीय संकल्प को पूरा करके ही इस विचलन को दूर किया जा सकता है। इसमें ‘पड़ोस के स्कूल में ही सबके लिए अनिवार्य शिक्षा’ और ‘प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा को माध्यम बनाने’ जैसे क़दम काफ़ी मददगार हो सकते हैं। वर्तमान स्तरीकरण जहाँ विभेदों को मज़बूत बनाते हैं वहीं घोषित शैक्षिक लक्ष्यों को भोथरा भी। शिक्षा की प्रक्रिया में ऐसे आर्थिक कौशलों को समाहित करना होगा जो हमारे बच्चों को बड़े होने पर आत्मनिर्भर, स्वतंत्र और ख़ुशहाल जीवनयापन योग्य बनाये न कि निर्देशों को मानने वाले रोबोट, जो बस दूसरों की इच्छा या कृपा पर निर्भर हों।

आलोक कुमार मिश्रा
पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।
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हास्य-व्यंग्य
“शिक्षक का कक्षा में पढाना “-शिक्षा का सही मायना है -जिसका आजकल कोई महत्व नहीं है।
“शिक्षक का कक्षा में पढाना “-शिक्षा का सही मायना है -जिसका आजकल कोई महत्व नहीं है।