
- September 11, 2025
- आब-ओ-हवा
- 0
गूंज बाक़ी... पिछली पीढ़ियों के यादगार पन्ने हर गुरुवार। इस शृंखला की पहली पेशकश में अपनी भिन्न वैचारिक उष्मा के साथ ही एक प्रासंगिक विचार के संदर्भ में भी उल्लेखनीय यह लेख, जो साहित्यिक धरोहर है। वरिष्ठ पत्रकार ईशान अवस्थी के सौजन्य से हमें विशेष तौर से यह प्राप्त हुआ है।
कीर्तिशेष कवि ओम प्रभाकर की कलम से....
हमें ईश्वर की ज़रूरत क्यों है?
हमें जिन चीज़ों की ज़रूरत है, वे सब हम अपने शरीर से प्राप्त कर ही लेते हैं- और वे चीज़ें भी, जो हमारे शरीर के अंत:पुर को तृप्त करती है, शरीर से ही प्राप्त की जाती हैं। तब फिर ये ईश्वर हमारे लिए क्यों है? ये हमारे लिए क्या करता है?
मेरे अहसास मेरा बोझ हैं मैं ही उठाउंगा
ये चारागर कहां से आ गया ये क्या उठाता है
आहार, निद्रा, मैथुन और भय हमें प्रकृति से प्राप्त विहित क्रियाएं हैं, जिन्हें समयानुसार हम करते रहते हैं। हमें लगता है कि हम जीवन में अपने शरीर के द्वारा जो कुछ करते हैं, उसमें ‘काफ़ी कुछ’ ऐसा भी होता है, जिसे करने के लिए हमारा शरीर (जिसमें हृदय और मस्तिष्क भी शामिल है) हमें शायद नहीं मिला है। उस ‘काफ़ी कुछ’ को कई शब्द दिये जा सकते हैं। लेकिन अगर एक शब्द में कहना चाहें तो उसे ‘कदाचरण’ कह सकते हैं। कदाचरण यद्यपि एक सापेक्ष शब्द है, लेकिन जो ‘यहां’ कदाचरण है, बहुत मुमकिन है कि वह ‘वहां’ न हो। लेकिन कुछ और तो होगा, जो ‘वहां’ भी ‘कदाचरण’ होगा। तो ये जो शरीर सुलभ कदाचरण है, यही हमें अंदर कहीं खरोचता है और हम असहज और कुछ-कुछ भयभीत भी हो जाते हैं और फिर दोबारा सहज-सामान्य और भयमुक्त होने के लिए हम किसी मददगार, किसी अवधारणिक ब्रह्म या किसी काल्पनिक आकृति (देवी-देवता) की ओर उन्मुख होते हैं। हमारी ये परामुखता ही हमारा भय है।
ईश्वर हमारे भय की रचना है। यहां भय का अर्थ आत्मरक्षा है। आदिकालीन गुहाओं, वृक्षघरों और कन्दराओं से लगाकर आज के भूमिगत लौह महल और परमाणु अस्त्र तक हमारी आत्मरक्षा के ही साधन हैं कि जो भय से नि:सृत एक जागतिक मनोदशा है। जो दरअसल हमारी ही खोज है, उस ईश्वर की तरफ़ हम क्यों उन्मुख होते हैं?
बुतक़दे में जो भी है पत्थर का है
और पत्थर का ख़ुदा इंसान है
अपनी ही चीज़ को हम क्यों ढूंढ़ते फिरते हैं?
‘अहम् ब्रह्मास्मि’ यानी मेरे और कथित ईश्वर के बीच कोई ‘संपर्क अधिकारी’ नहीं है। तो जब मैं ही ईश्वर हूं तो ढूंढ़ूं किसे? और कहां? (पुराना सवाल) वन, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरिजाघर में या योग में, तंत्र में, वैराग्य में या जीवन जगत में? या (गीता के) कर्मयोग में?
तो ये जो कर्मयोग है, वह तो हमारी अनिवार्य विवशता है। हम जगत में जीवित रहते हुए बिना कुछ किये तो रह ही नहीं सकते। बस, यही वह ख़ाली जगह थी, जहां कृष्ण द्वैपायन (व्यास) अपनी थीसिस के अनुरूप एक वायवी चरित्र स्थापित कर सकते थे और वह थे कृष्ण- जिनमें अपनी वाणी और व्यक्तित्व के द्वारा दूसरों को आकर्षित और बहुत कुछ वशीभूत करने की क्षमता थी और जिनमें ईश्वर भी आरोपित किया गया था।
कृष्ण जब अर्जुन से ये कहते हैं कि तू वही कर जो तेरे सामने करणीय है। सोच मत। कर्म कर और तुझमें ‘कर्तापन’ का अहंकार न जागे, इसलिए अपने कर्मों को मुझे अर्पित करता जा। यानी तू चिराग़ का ग़ुलाम जिन्न बन जा या रोबोट बन जा। तू अपने श्रम और मेधा से किये गये जीवन जगत में अपने किसी काम की पूर्णता की आत्मतुष्टि का आनंद भी न ले। तू स्वयं को जीवन-जगत की मशीन का एक अदना पुर्ज़ा भी न समझ।
अर्जुन की मानवीय संवेदनाओं का हनन कर कृष्ण उसे एक यंत्र-व्यक्ति बनने का निर्देश देते हैं। इंसानी अहसासों की क़द्र करने वाले अर्जुन को कृष्ण पहले तो क्लीव कहकर अपमानित करते हैं और बाद में जीवन-जगत को सहजत: संचालित करने वाला पुरुषार्थी न मानकर (कृष्णार्पित) क्लीव ही रहने देते हैं।
यदि अर्जुन अपने रक्त संबंधियों का वध न करके अपने मानवीय भाव जगत को सुरक्षित रखना चाहता है तो कृष्ण न्याय और धर्म की दुहाई देकर उसे संवेदनहीन पाषाण हृदय जीव बने रहने का निर्देश देते हैं और कृष्ण या व्यास एक वाग् या भाव-जाल रचते हैं कि तू और तेरे संबंधी पहले भी थे और आगे भी रहेंगे, लेकिन इस समय धर्म और न्याय का यही तक़ाज़ा है कि पहले तू अपनी संवेदनाओं का वध कर और फिर उनके आलंबन अपने पितरों और बंधु-बांधवों को मार डाल और कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने वही किया जो प्राकृतिक न्याय के अनुसार न उसका कर्तव्य था और न धर्म। उसने कृष्ण के कहने पर उनका वध किया, जिन्हें उसने जन्म नहीं दिया था। मूर्तिकार को तो अपनी मूर्ति को तोड़ने का अधिकार है, लेकिन किसी अन्य को नहीं। कलाकार द्वारा निर्मित मूर्ति या चित्र एक ऐसी स्थूल और प्राणहीन रचना है, जिसे नष्ट करके पुनर्सृजित भी किया जा सकता है, लेकिन कृष्ण (या व्यास) के कहने पर अर्जुन तो उनको नष्ट करता है, जिनकी उसने रचना ही नहीं की। यह प्राकृतिक अन्याय है।
कृष्ण ने अपने वाग्जाल से ऐसा कर्म, धर्म और न्याय का वितान ताना कि जिसके तले अर्जुन और पांडवों को सार्वजनिक रूप से जीव हत्या का अधिकार दे दिया कि जो प्रकृति के अतिरिक्त कदाचित विधाता को भी प्राप्त नहीं है। कृष्ण द्वैपायन के ज़ेह्न में धर्म, कर्म, न्याय, पुनर्जन्म, लोक-परलोक आदि की जो भी अवधारणा रही हो, लेकिन उनकी रचना ‘जय’ या ‘महाभारत’ के पन्नों से निकलकर जो बाहर आता है, वह सामाजिक विग्रह और विनाश ही है कि जिसके अंत में ‘अन्यायी’ कौरव तो समूल नष्ट होते ही हैं, साथ ही परम नैयायिक और धर्म-ध्वजधारी पांडव भी हिमालय की बर्फ़ में गलकर नि:शेष हो जाते हैं।
अब जो ध्यान देने लायक़ और उपयोगी बात है, वह यह कि जिन्हें हमने पैदा नहीं किया- धर्म के नाम पर उन्हें मारते हुए मरना श्रेयस्कर है या प्राकृतिक विधान के अनुसार अंतिम क्षण तक जीवित रहने का उद्यम करते हुए मरना? और जीवन की इस परिणति अवस्था में देखिए कि हमें ईश्वर की क्या और कितनी ज़रूरत है? शायद बिल्कुल नहीं! शिशु और म्रियमाण भय-मुक्त होते हैं, अत: ईश्वर-मुक्त भी।

ओम प्रभाकर
5 अगस्त 1941 को भिंड, मध्य प्रदेश में जन्मे ओमनारायण अवस्थी साठोत्तरी पीढ़ी के महत्वपूर्ण कवियों में शुमार रहे। उन्होंने गीत, नवगीत, गद्य कविता के साथ अपने रचनाकर्म के उत्तरार्ध में ग़ज़लें भी बाक़ायदा तालीम के बाद कहीं। हिंदी और उर्दू पर समान अधिकार के साथ ही 'शब्द' पत्रिका और 'कविता 64' के संपादन के लिए चर्चित रहे। 23 फरवरी 2021 को वह संसार से विदा हुए।
Share this:
- Click to share on Facebook (Opens in new window) Facebook
- Click to share on X (Opens in new window) X
- Click to share on Reddit (Opens in new window) Reddit
- Click to share on Pinterest (Opens in new window) Pinterest
- Click to share on Telegram (Opens in new window) Telegram
- Click to share on WhatsApp (Opens in new window) WhatsApp
- Click to share on Bluesky (Opens in new window) Bluesky