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पाक्षिक ब्लॉग आशीष दशोत्तर की कलम से....

शहर के जिस्म में गांव की मिट्टी की महक

             शाइरी अब रवायती मौज़ूआत से अलहदा राहों पर भी चहलक़दमी कर रही है। जदीद शाइरी ने उन इंसानी मसअलों पर अपनी बात कही है, जो कभी इस तरफ़ आने से महरूम थे। तरक़्क़ीपसंद तहरीक के ज़ेरे-साये कई रंग शाइरी के भी बदले और हालात के साथ शाइरी ने ख़ुद को तैयार भी किया।

मसलन इस वक़्त देश के शहरी क्षेत्र में बेरोज़गारी छह फ़ीसद से बढ़कर से सात फ़ीसद हो गयी है। इसका अर्थ यह है कि रोज़गार के मुद्दे पर गांव और शहर के बीच में क़दमताल हो रही है। इस क़दमताल के कारण ग्रामीण क्षेत्र की बेरोज़गारी कम होती दिखायी दे रही है जबकि शहरी क्षेत्र की बेरोज़गारी बढ़ रही है। लिहाज़ा शहर का आदमी फिर से गांव की ओर टकटकी लगाये देख रहा है। ऐसा शायद इसलिए कि गांव में अभी कुछ उम्मीदें बाक़ी हैं। यह और बात है कि शहर के आकर्षण गांव के युवकों को अपनी तरफ खींच रहे हैं मगर शहर से थका हुआ आदमी गांव की तरफ़ आशा भरी नज़रों से देख रहा है। एक शाइर इस बात को ही अपने अलग अंदाज़ में व्यक्त करता है। इसी मौज़ूं पर रामावतार त्यागी का यह शेर याद आता है-

महल से जब सवालों के सही उत्तर नहीं मिलते
मुझे वह गांव का भीगा हुआ घर याद आता है

शहर का गांव की ओर लौटना और उम्मीद भरी नज़रों से देखना, शाइर के लिए अपनी ज़मीन से जुड़ने जैसा है। जब शाइरी में यह अंदाज़ सामने आता है तो लगता है बहुत से ऐसे मसअले हैं, जो शाइरी की विषयवस्तु होना चाहिए। बदलते दौर का शाइर अपनी शाइरी में ऐसे विषयों को ही समाहित कर रहा है। कभी बेकल उत्साही ने कहा था-

लिबास क़ीमती रखकर भी शहर नंगा है
हमारे गांव में मोटा महीन कुछ तो है

यक़ीनन शहरों का चरित्र बहुत बदल चुका है। यहां संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं है। मसख़रों की जमात में आंसुओं का दर्द समझने वाला कोई नहीं है। क्या शाइर की क़लम को ऐसे मंज़र की अक्कासी नहीं करना चाहिए? निदा फ़ाज़ली इसी बात को अपने शेर में कहते भी हैं-

शहर में सबको कहां मिलती है रोने की जगह
अपनी इज़्ज़त भी यहां हंसने-हंसाने से रही

शहर की चकाचौंध देखने के बाद इंसान इस बात को महसूस करने लगा है कि आज भी गांव में रिश्ते बचे हैं। प्रेम बचा है। आत्मीयता बची है। इंसानी तअल्लुक़ात अब भी क़ायम हैं। एक दूसरे के दुःख दर्द को वहां अब भी लोग समझते हैं। आज इन रिश्तों में दरारें पैदा करने की कोशिश ख़ूब हो रही है। मगर आज भी गांव का इंसान अपनी ज़मीन को नहीं छोड़ रहा है, हालांकि उसे उसकी ज़मीन बेचने पर मजबूर ज़रूर किया जा रहा है। उसे शहरों के ख़्वाब दिखाकर गांव से बेदख़ल किया जा रहा है। शायद इसी बात को कहते हुए नवाज़ देवबंदी गांव की दौलत को महफ़ूज़ रखने की गुज़ारिश हर किसी से कुछ ऐसे करते हैं-

ओ शहर जाने वाले! ये बूढ़े शजर न बेच
मुमकिन है लौटना पड़े गांव का घर न बेच

आज की शाइरी में शामिल ऐसे सवाल इंसान को उसकी ज़मीन पर खड़े रहने की ताक़त दे रहे हैं। उसे अपनी रहगुज़र से भटकने से बचा रहे हैं। उसे यह यक़ीन भी दिला रहे हैं कि आज भी कोई कहीं उसके हक़ में आवाज़ बुलंद कर रहा है। उसके दुःख दर्द को अपनी शाइरी में ढाल रहा है।

आशीष दशोत्तर

आशीष दशोत्तर

ख़ुद को तालिबे-इल्म कहते हैं। ये भी कहते हैं कि अभी लफ़्ज़ों को सलीक़े से रखने, संवारने और समझने की कोशिश में मुब्तला हैं और अपने अग्रजों को पढ़ने की कोशिश में कहीं कुछ लिखना भी जारी है। आशीष दशोत्तर पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते हैं और आपकी क़रीब आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं।

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