
- September 26, 2025
- आब-ओ-हवा
- 3
ललित व्यंग्य पंकज निनाद की कलम से....
रंग
पूत के पाँव पालने में दिखने लगे थे। वह अपने पिता पर ही गया था। वह भी देश के नामी पेंटर थे। नन्ही उम्र से ही उसकी उँगलियों ने ब्रश और पेंसिल थाम लिये थे। पेंटिंग के प्रति उसकी बढ़ती रुचि को देखते हुए उसके पिता अक्सर उसे पेंटिंग एग्ज़ीबिशन में ले जाया करते थे।
ऐसी ही एक एग्ज़ीबिशन में पिता ने उससे कहा– “बेटा, ध्यान से देखो इन चित्रों को, कितने जीवंत हैं। ऐसा लगता है, अभी बोल पड़ेंगे। रंगों को देखो, उनसे दोस्ती करो। रंग भावों को ज़िंदा कर देते हैं और भाव चित्रों को। लेकिन भावों का विज्ञान इन बेजान चित्रों से समझ नहीं आएगा, उसके लिए तुम्हें ज़िंदा लोगों से मिलना होगा।”
पिता की सीख उसने गांठ बाँध ली। थोड़ी देर चित्रों के साथ बिताकर वह बाहर आ गया और आते-जाते लोगों को निहारने लगा।
उसकी नज़र सबसे पहले कार से उतरते हुए एक अमीर बच्चे पर पड़ी– सम्पन्न और ख़ुशहाल। फिर उसने देखा एक मध्यमवर्गीय परिवार का बच्चा, जो अपने पिता के साथ स्कूटर से आया था। वह थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि एक ग़रीब, फटेहाल बच्चे पर उसकी नज़र ठिठक गयी। वह रेत के ढेर पर बैठा अपने छोटे-छोटे हाथों से घरौंदा बना रहा था। उसकी माँ वहीं पास की एक निर्माणाधीन इमारत में मज़दूरी कर रही थी।
ये तीनों बच्चे हमेशा के लिए उसकी स्मृतियों में शामिल हो गये।
इस बीच उसके पिता को कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर जाना पड़ा। जब वे लौटकर आए तो बड़े हैरान हुए कि उनके होनहार पुत्र ने तीनों बच्चों के चित्र बनाये हुए थे।
पिता एक-एक चित्र को देख रहे थे और तारीफ़ करते जा रहे थे।
अमीर बच्चे का चित्र देखकर बोले– “ओहो, क्या कहना! इस अमीर बच्चे की समृद्धि को तुमने चटख रंगों से उभारा है। ऐसा लगता है मानो विधाता ने सारे जहाँ की खुशियाँ उसकी झोली में डाल दी हों।”
अब उन्होंने दूसरा चित्र देखा– “वाह, यह तो और कमाल! मध्यम रंगों के प्रयोग से तुमने बता दिया कि यह एक मिडिल क्लास बच्चा है। रंगों के माध्यम से तुमने उसके इमोशन्स को बेहतरीन ढंग से उकेरा है।”
फिर तीसरे चित्र को बहुत देर तक निहारते रहे और मन ही मन बुदबुदा पड़े– “जीनियस!”
फिर बेटे से कहा– “यह तुम्हारा मास्टरपीस है बेटा। अकेला यही चित्र तुम्हें अमर कर देगा। इस ग़रीब बच्चे के मनोभावों को तुमने कितनी ख़ूबसूरती से उकेरा है। इसकी आँखों में कितनी अलौकिक चमक है! मानो कह रही हों कि ख़ुशियों के आगे सारे रंग फीके हैं; असल ख़ुशी तो आत्मा की संतुष्टि है। लेकिन एक बात समझ नहीं आयी– तुमने इसका सिर्फ़ पेंसिल स्केच ही क्यों बनाया? कोई रंग क्यों नहीं भरा? इसके पीछे तुम्हारा क्या दर्शन था?”
बेटे ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया– “दर्शन-वर्शन कुछ नहीं पापा, दरअसल जब तक इसकी बारी आयी, मेरे पास सारे रंग ख़त्म हो गये…”

पंकज निनाद
पेशे से लेखक और अभिनेता पंकज निनाद मूलतः नाटककार हैं। आपके लिखे अनेक नाटक सफलतापूर्वक देश भर में मंचित हो चुके हैं। दो नाटक 'ज़हर' और 'तितली' एम.ए. हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में भी शुमार हैं। स्टूडेंट बुलेटिन पाक्षिक अख़बार का संपादन कर पंकज निनाद ने लेखन/पत्रकारिता की शुरूआत छात्र जीवन से ही की थी।
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बहुत सुंदर कहानी ..
ग़ज़ब कहानी।
कटाक्ष बढ़िया है।