
- September 30, 2025
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नियमित ब्लॉग अरुण अर्णव खरे की कलम से....
व्यंग्य में फैंटेसी- प्रभावकारी व्यंजना
फैंटेसी-साहित्य एक सशक्त और बहुआयामी विधा है, जिसमें कल्पना के पंखों पर सवार होकर लेखक ऐसा साहित्य सृजित करता है, जो वास्तविकता की सीमाओं से परे, रोचक और लोमहर्षक होता है। “फैंटेसी” शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के “फैंटेसिया” शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक-अर्थ है- कोरी कल्पना, कपोल-कल्पना, दिवास्वप्न आदि। प्रसिद्ध विचारक हडसन के अनुसार, “मनुष्य की वह क्षमता, जो संभाव्य संसार की सर्जना करती है, वही फैंटेसी कहलाती है।” ऐसा ही कथन मानविकी कोश में भी वर्णित है, जहाँ लिखा गया है- “फैंटेसी स्वप्न-चित्रमूलक साहित्य है, जिसमें असंभाव्य संभावनाओं को प्राथमिकता दी जाती है।”
फैंटेसी-साहित्य में लेखक यथार्थ की सीमाओं को पार कर ऐसे संसार की रचना करता है, जहाँ समय, स्थान और प्रकृति के नियम मानवीय कल्पनाशक्ति के अनुरूप ढल जाते हैं। इसमें मिथक, जादुई रोमांच, परीकथाएँ, अद्भुत जीव-जंतु और असंभव घटनाएँ सहजता से कथानक का हिस्सा बन जाते हैं। फैंटेसी-साहित्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि मानवीय विचार, अनुभव और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का एक सशक्त उपकरण है।
प्राचीन ग्रीक-महाकाव्यों, संस्कृत-साहित्य और अरबी-कथाओं में फैंटेसी शैली का अद्भुत भंडार मिलता है। ग्रीक-साहित्य में होमर का ओडिसी, हेरोडोटस का ट्वेल्व लेबर्स ऑफ हर्क्युलिस और लूसियन ऑफ सामोसाटा का ए ट्रू स्टोरी ऐसे ग्रंथ हैं, जिनमें लेखकों ने मिथकों, देवी-देवताओं और अलौकिक शक्तियों को एक साथ पिरोकर ऐसे कालजयी चरित्र रचे, जिनके कारण वे फैंटेसी-साहित्य की दुनिया में अमर हो गये। अरब साहित्य में अरबियन नाइट्स, अलिफ-लैला, अलादीन और जादुई चिराग़ तथा सिंदबाद जहाज़ी जैसी अमर फैंटेसी कथाएँ रची गयीं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पाठकों को कल्पना की उड़ान से परिचित कराती रही हैं। संस्कृत-साहित्य में कथासरित्सागर (सोमदेव भट्ट), बृहत्कथा, विक्रम-बेताल और सिंहासन बत्तीसी जैसी रचनाएँ अपने अलौकिक परिवेश, अद्भुत घटनाओं और कालातीत पात्रों के कारण कालजयी बन चुकी हैं। अंग्रेज़ी फैंटेसी साहित्य में जोनाथन स्विफ्ट की गुलिवर्स ट्रैवल्स, लुइस कैरोल की एलिस इन वंडरलैंड तथा जार्ज मैकडोनाल्ड की द प्रिंसेज एंड द गोबलिन हममें से अधिकांश लोगों ने स्कूली दिनों में पढ़ी होंगी। जॉर्ज ऑरवेल की एनिमल फार्म भी एक ज़बर्दस्त फैंटेसी है, जिसे व्यंग्यकार भी एक श्रेष्ठ व्यंग्य रचना मानते हैं। आधुनिक काल में विज्ञान-फैंटेसी का भी विशाल पाठक वर्ग है। जेके रोलिंग की हैरी पॉटर शृंखला ने वैश्विक स्तर पर जादुई संसार का अभूतपूर्व आकर्षण पैदा किया।
फैंटेसी शैली का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि इसमें अप्रत्यक्ष रूप से गहन और प्रभावशाली संदेश देने की अद्भुत क्षमता होती है। कई बार लेखक सामाजिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक आलोचना को प्रत्यक्ष यथार्थवादी शैली में व्यक्त करने में असहज महसूस करता है, ऐसे में फैंटेसी उसके लिए एक सुरक्षित और रचनात्मक माध्यम बन जाता है। जादुई शहर, अलौकिक प्राणी, मिथकीय पात्र, बोलते पशु-पक्षी और रहस्यमयी घटनाक्रम के माध्यम से लेखक, असल दुनिया की विसंगतियों, अन्याय और मानवीय दुर्बलताओं पर टिप्पणी कर सकता है। कल्पना के इस आईने में वास्तविक मुद्दे नये रूप में उभरते हैं, जो पाठक को नये दृष्टिकोण से देखने, सोचने, आत्ममंथन करने और अधिक संवेदनशील बनने के लिए प्रेरित करते हैं। रानी नागफनी की कहानी की भूमिका में परसाई लिखते हैं – “लोक कल्पना से दीर्घकालीन संपर्क और लोक मानस से परंपरागत संगति के कारण फैंटेसी की व्यंजना प्रभावकारी होती है।”
हिंदी साहित्य में फैंटेसी का इतिहास अत्यंत पुरातन और समृद्ध है। हिंदी उपन्यास के प्रारंभिक दौर में देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति और भूतनाथ जैसी रचनाएँ इस विधा की शिखर उपलब्धियाँ मानी जाती हैं। इन उपन्यासों में ऐयार, तिलिस्मी महल, रहस्यमय लोक, अबूझ चालें और अनोखे पात्र पाठक को पृष्ठ-दर-पृष्ठ बाँधे रखते हैं। सरस्वती के संपादक रहे पदुमलाल पुंनालाल बख्शी मानते थे- “प्रेमचंद पूर्व, उपन्यास लेखन में देवकीनंदन खत्री की लोकप्रियता जिस पराकाष्ठा पर पहुँची, वहाँ अन्य कोई उपन्यासकार नहीं पहुँच पाया। उनकी तुलना अंग्रेज़ी के कानन डॉयल से की जा सकती है।” आगे चलकर शरदिंदु बंद्योपाध्याय (साधुबाबा का आशीर्वाद, तिलस्मी हवेली आदि), बाबू हरिकिशन जोगराज (तिलिस्मी अजबगढ़), जयशंकर प्रसाद (कंकाल), प्रेमपाल शर्मा (पंख वाला आदमी) तथा नीलकंठ गौतम (तिलिस्मी किला) जैसे रचनाकारों ने इस परंपरा को और आगे बढ़ाया। इसके साथ ही फैंटेसी में बहुत सा ऐसा साहित्य भी रचा गया है, जिसे हम लुगदी साहित्य के नाम से भी जानते हैं।
हिंदी व्यंग्य-साहित्य में भी फैंटेसी शैली का व्यापक प्रयोग हुआ है। लगभग सभी प्रमुख व्यंग्यकारों ने इस शैली में रचनाएँ लिखी हैं। उन्होंने अपनी बात को गहराई और तीखेपन से प्रस्तुत करने के लिए पौराणिक चरित्रों, मिथकीय पात्रों, अजूबे प्रसंगों, पशु-पक्षियों और परालौकिक घटनाओं को आधुनिक संदर्भों में पिरोकर एक नया दृष्टिकोण सामने रखा। हरिशंकर परसाई ने 1961 में प्रकाशित अपने उपन्यास “रानी नागफनी की कहानी” में सत्ता के भ्रष्ट आचरण और समाज में व्याप्त पाखंड के यथार्थ चित्रण के लिए एक काल्पनिक रियासत और उसके विचित्र पात्रों- कुँवर अस्तभान, रानी नागफनी, करेलामुखी, जोगी प्रपंचगिरि, राजा निर्बल सिंह आदि को आधार बनाया। इससे पहले, रांगेय राघव का हुजूर (1952) प्रकाशित हुआ था, जिसमें एक कुत्ते को केंद्रीय पात्र बनाकर समाज की विडंबनाओं और मानवीय स्वभाव की विसंगतियों को उजागर किया गया।

आज के लेखकों में फैंटेसी-उपन्यास लेखन में ज्ञान चतुर्वेदी का महत्वपूर्ण स्थान है। नरकयात्रा और बारामासी के बाद उनका तीसरा उपन्यास मरीचिका है, जिसे उन्होंने पौराणिक फैंटेसी के रूप में रचा है। इस उपन्यास में वे रामराज्य के बहाने सत्ता के खेल और उसके नियंत्रक तत्वों की निर्ममता से पड़ताल करते हैं, और साथ ही रामराज्य की उम्मीद में आम जनता द्वारा पादुकाराज सहने की पीड़ा को भी व्यक्त करते हैं। पागलख़ाना उनका एक अन्य उपन्यास है, जिसमें उन्होंने बाज़ार के बारे में एक विशाल फैंटेसी रची है। पुस्तक की भूमिका में वह लिखते हैं, “बाज़ार के बिना जीवन संभव नहीं है। लेकिन बाज़ार चाहे जैसा भी हो, वह सिर्फ़ एक व्यवस्था है, जिसे हम अपनी सुविधा के लिए स्थापित करते हैं। लेकिन अगर वही बाजार हमें अपनी सुविधा और संपन्नता के लिए इस्तेमाल करने लगे, तो?” यह विषय नया और आज के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है। हालाँकि, उपन्यास पढ़ते समय कुछ स्थानों पर इसे आम पाठक के लिए समझ पाना मुश्किल हो जाता है।
जानकीपुल में इस उपन्यास की चर्चा करते हुए यशवंत कोठारी ने लिखा है, “बाज़ार की इस फंतासी में पाठक के लिए कोई स्थान नहीं है।” इसके बावजूद, इस उपन्यास को आलोचकों की सराहना मिली, और 2022 में इसे प्रतिष्ठित व्यास सम्मान से नवाज़ा गया।
पशुओं को आधार बनाकर फैंटेसी रचने वाले लेखकों में कृष्णचंदर का नाम सबसे पहले आता है। प्रारंभ में वे उर्दू में लिखते थे, लेकिन बाद में उन्होंने हिंदी में भी महत्वपूर्ण रचनाएँ कीं। गधे को केंद्र में रखकर लिखी गयी उनकी तीन कृतियाँ- एक गधे की आत्मकथा, गधे की वापसी तथा एक गधा नेफा में, विशेष रूप से लोकप्रिय हुईं। उनकी प्रसिद्धि का आलम यह था कि जब एक बार किसी ने उनका परिचय पंडित नेहरू से कराया तो नेहरू जी ने हँसते हुए कहा- “हाँ, हाँ, जानता हूँ इन्हें, वही गधे वाले।” इस प्रसंग का उल्लेख स्वयं कृष्णचंदर ने अपनी आत्मकथा ‘आधे सफ़र की पूरी कहानी’ में किया है।
एक गधे की आत्मकथा (उर्दू में एक गधे की सरगुज़श्त नाम से प्रकाशित) स्वतंत्रता-पूर्व और उसके तुरंत बाद के भारत की सामाजिक परिस्थितियों, राजनीति और लोकव्यवहार पर आधारित एक चुटीला व्यंग्य-उपन्यास है। इसके नायक गधे को अख़बार पढ़ने की लत लग जाती है। लेखक ने गधे के अनुभवों के माध्यम से नेताओं की स्वार्थपरता, नौकरशाही की जड़ता और जनता की दयनीय स्थिति पर तीखा व्यंग्य किया है। हास्य और व्यंग्य के सहारे प्रस्तुत यह रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक प्रतीत होती है। गधे की वापसी उपन्यास गधे की आत्मकथा का अगला भाग है। यहाँ गधा भारत के बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य का गवाह बनता है। आज़ादी मिलने के बाद जनता ने जो सपने देखे थे, वे कैसे अधूरे रह गये, इसका मार्मिक चित्रण इस कृति में मिलता है। गधे के रूप में साधारण इंसान की असहायता, टूटे हुए आदर्श और व्यवस्था की विसंगतियाँ झलकती हैं। एक गधा नेफ़ा में अपेक्षाकृत गंभीर कृति है, जिसमें 1962 के चीन-भारत युद्ध से उपजे हालातों और राष्ट्रीय जीवन पर पड़े उसके प्रभाव की गहन व्याख्या व्यंग्यात्मक ढंग से की गयी है। लेखक ने देश की सुरक्षा, सैनिकों के संघर्ष, राजनीतिक नेतृत्व की नीतियों और आम-जनता की मनोदशा को प्रभावशाली ढंग से उकेरा है। गधे की मासूम नज़र से युद्ध और कूटनीति की क्रूर सच्चाइयाँ सामने आती हैं। इन तीनों कृतियों में गधा केवल पशु न रहकर प्रतीक बन जाता है – शोषित, अपमानित और हाशिए पर खड़े व्यक्ति का, जिसमें काबिलेतारीफ धैर्य और सहनशीलता है।
1955 में केशवचंद्र वर्मा का उपन्यास काठ का उल्लू और कबूतर प्रकाशित हुआ। किस्सागोई-शैली में रचित इस उपन्यास में काठ का उल्लू और कबूतर आपस में बातचीत करते हुए जीवन, समाज और मनुष्य की प्रवृत्तियों पर व्यंग्यात्मक और दार्शनिक टिप्पणी करते हैं। 1970 में प्रकाशित डॉ. श्यामसुन्दर घोष के उपन्यास ‘एक उलूक कथा’ ने हिंदी व्यंग्य-फैंटेसी परंपरा को और गति दी। इसमें एक उल्लू, जो स्वर्ग और धरती के बीच आना-जाना करता रहता है, के माध्यम से तत्कालीन समाज की विसंगतियों की व्यंजनात्मक पड़ताल की गयी है। इस यात्रा में लेखक ने नेता, पुलिस, अपराधी, व्यापारी, संपादक, जासूसों और जेबकतरों तक, हर किसी की चालबाज़ियों को बेनकाब किया है। अगले वर्ष आए हंसराज रहबर का ‘किस्सा तोता पढ़ाने का’ को हिंदी व्यंग्य साहित्य की उन उल्लेखनीय कृतियों में गिना जाता है, जिनमें लोककथा और रूपक का सहारा लेकर समाज की विसंगतियों पर व्यंग्य किया गया है। पारंपरिक मुहावरे ‘तोता पढ़ाना’ के बरक्स यह रचना शिक्षा प्रणाली और बौद्धिक प्रशिक्षण की कृत्रिमता की कलई खोलती है। तोते को पढ़ाने का यह वृतांत, शिक्षा व्यवस्था की अन्यायपूर्ण नीतियों, रटंतूपन और नौकरशाही प्रवृत्तियों पर करारा प्रहार है। 1971 में ही बदीउज्जमा का बहुचर्चित उपन्यास ‘एक चूहे की मौत’ प्रकाशित हुआ। यह रचना फैंटेसी के माध्यम से एक ऐसी समाज-व्यवस्था का रूप उकेरती है, जो हर दृष्टि से मानव-विरोधी है और जहाँ मानवीय मूल्यों तथा गरिमा के लिए कोई स्थान नहीं बचा है। लेखक ने ‘चूहाखाने’ का रूपक रचा है, जिसमें जीविका और अस्तित्व की जद्दोजहद में हर कोई दूसरों को नीचा दिखाने या समाप्त करने के लिए विवश है। इस रूपक में चूहा आम-जन का प्रतीक है, जो व्यवस्था की मार झेलता है, जबकि चूहेमार सत्ता, अवसरवाद और हिंसक सामाजिक तंत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस रूपक के ज़रिये लेखक ने मानवीय पतन और सामाजिक विडंबना पर गहरी चोट की है। 1977 में उनका “छठा तन्त्र” प्रकाशित हुआ। बिल्ली-चूहे की रूपक वाली कहानी के जरिए यह कृति स्वतांत्र्योत्तर भारत की कमियों और आम आदमी की रोज़मर्रा की विसंगतियों को उजागर करती है। इसमें निरंकुश सत्ता, भ्रष्टाचार और नेताओं की चालबाजियों को भी हास्य और व्यंग्य के सहारे गहराई से उद्घाटित किया गया है। 1982 में डॉ. चन्द्रशेखर का उपन्यास ‘बयान एक गधे का’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में भी लालफीताशाही, अवसरवादिता, जन-अपेक्षाओं के प्रति सत्ता की विफलता और साधारण जन की हताशा जैसे मुद्दे प्रमुख रूप से उभरते हैं।
उपन्यासों के अतिरिक्त सैकड़ों व्यंग्यकारों ने पशु-पक्षियों को अभिव्यक्ति का आधार बनाकर अनेक फुटकर एवं मारक व्यंग्य लिखे हैं। इस परंपरा का पहला उल्लेखनीय व्यंग्य, राधाकांत लाल के “देशी कुत्ता, विलायती बोल” को माना जा सकता है। इससे पूर्व भारतेंदु और बालकृष्ण भट्ट ने भी क्रमश: भाँति-भाँति के जानवर तथा गदहे में गदहापन क्या है लिखे थे। चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने रूढ़िवाद, जातिवाद और ऊँच-नीच के भेदभाव पर कछुआ धरम व्यंग्य में तीव्र प्रहार किये हैं। समय के साथ यह परंपरा और समृद्ध हुई तथा अनेक व्यंग्यकारों ने ऐसे व्यंग्य रचे जो अपनी विषयवस्तु और तीखी व्यंजना के कारण लोकप्रिय हुए। परसाई के चूहा और मैं रचना में चूहा खाने के हक़ के लिए आदमी से लड़ रहा है लेकिन आदमी अपने हक के लिए लड़ना नहीं सीख पाया। शरद जोशी की रचना ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’ अफसरशाही पर तीखा व्यंग्य प्रस्तुत करती है। चने के खेतों में इल्लियों के आतंक की जाँच के बहाने सरकारी अफसर जीप लेकर निकलते हैं, पर वापसी में उनकी जीप हरे-भरे चने के पौधों से लदी होती है। रवींद्रनाथ त्यागी ने ‘तीन ऐतिहासिक पत्र’ में बैल को प्रतीक बनाकर जहाँ सत्ताधारियों की विडंबनापूर्ण स्थिति पर करारा तंज किया वहीं श्रीलाल शुक्ल ने ‘कुत्ते और कुत्ते’ में अफ़सरशाही के आचरण और कार्यप्रणाली को हास्य के माध्यम से उजागर किया। प्रभाकर माचवे एक कुत्ते की डॉयरी में सामाजिक व्यवस्था पर चोट करते हुए लिखते हैं – “मैं जानना चाहता हूँ कि हिंदू क्या चीज़ हैं? मेरा पुराना मालिक ईरानी था, मैं तब भी सुखी था, अब भी हूँ।” हरीश नवल ने ‘यहाँ हर चौराहा गौशाला’ में गाय को माध्यम बनाकर परिवार में बेटों की विवशता और माँ के अनादर को लेकर व्यंग्य का खाका खींचा गया है। डॉ. चन्द्रशेखर ने ‘बयान एक गधे का’ में कथनी और करनी के अंतर्विरोध को रेखांकित कर सामाजिक ताने-बाने पर प्रहार किया। ज्ञान चतुर्वेदी का ‘सुअर के बच्चे और आदमी के’ व ‘दंगे में मुर्गा’, सूर्यबाला का ‘कॉलोनी में कुत्ता’, कुंदन सिंह परिहार का ‘द्वारे पर गऊ माता’, सुभाष चंदर का ‘कबूतर की घर वापसी’, रमेश सैनी का ‘कुत्ता तू महान है’ और स्नेहलता पाठक का ‘सच बोले कौआ काटे’ ऐसे ही व्यंग्य हैं।
इसी प्रकार सुशील सिद्धार्थ (कुत्ताभाई की षष्टिपूर्ति), अजय अनुरागी (एक गधे की उदासी), विजी श्रीवास्तव (कुत्ते के पिल्लों का नामकरण), तीरथसिंह खरबंदा (गधे फिर चर्चा में हैं) और राजेश सेन (अपने मालिकों के वफादार कुत्ते) ने भी पशु-आधारित व्यंग्य को धार दी। इसके अलावा शांतिलाल जैन के ‘गिद्धों की राजधानी और राजधानी में गिद्ध’, उनका ही एक अन्य व्यंग्य ‘गाय, सुअर और सोशल मीडिया’, राजेंद्र वर्मा के ‘अजगर और नेता’ तथा ‘सियार की सिंह गर्जना’, शशिकांत सिंह शशि का ‘सुअर पुराण’, विवेक रंजन श्रीवास्तव का ‘पड़ोसी के कुत्ते’, जयप्रकाश पांडे का ‘उल्लू की उलाहना’ और राजशेखर चौबे का ‘डॉगी फिटनेस ट्रेकर’ भी विशेष रूप से चर्चित रहे। डॉ. प्रदीप उपाध्याय का ‘घोड़ा नहीं तो गधा सही’, रंदी सत्यनारायण राव का ‘कुत्तों की खोज में भीड़तंत्र’ और अरुण अर्णव खरे के ‘जान बची लाखों पाए’ तथा ‘बिना कलगी का मुर्गा’ भी इस परंपरा को विस्तार देने वाले रचनात्मक उदाहरण हैं। उनका एक अन्य व्यंग्य ‘पुनर्स्वान भव’ आलोचकों की नज़र में एक उत्कृष्ट व्यंग्य है।
इस तरह स्पष्ट होता है कि व्यंग्य साहित्य में पशु-पक्षियों को माध्यम बनाकर गंभीर सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों पर कटाक्ष करने की एक समृद्ध और प्रभावी धारा विकसित हुई। कई लेखकों ने अपने व्यंग्य संग्रहों के शीर्षक भी पशु-पक्षियों पर आधारित व्यंग्य को केंद्र में रखकर रखे। इनमें केशव चंद्र वर्मा (लोमडी का मांस व मुर्गाछाप हीरो), र स केलकर (कुत्ते की दुम), प्रभाकर माचवे (खरगोश के सींग), लतीफ घोंघी (उडते उल्लू के पंख, तीसरे बंदर की कथा व कुत्ते से साक्षात्कार), श्रीराम ठाकुर दादा (पर्स, पिल्ला और पति), डॉ. संतोष दीक्षित (खादी में खटमल), हरिकृष्ण तैलंग (कुत्ता पालक कॉलोनी), के.पी. सक्सेना (नया गिरगिट), राजेंद्र शर्मा (नेताजी का सफेद चूहा), प्रेम जन्मेजय (सींग वाले गधे), प्रभाशंकर उपाध्याय (काग के भाग बड़े), हरिशंकर राढ़ी (युधिष्ठिर का कुत्ता), प्रभात गोस्वामी (बहुमत की बकरी), धर्मपाल महेंद्र जैन (गणतंत्र के तोते), किशोर अग्रवाल (अफसर का तोता), तीरथसिंह खरबंदा (सुना है आप बहुत उल्लू हैं) और सुदर्शन सोनी (अगले जन्म मुझे कुत्ता ही कीजो) प्रमुख हैं। इनमें सुदर्शन सोनी का संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि इसके सभी व्यंग्य केवल कुत्ते पर केंद्रित हैं।
फैंटेसी शैली में दूसरा सर्वप्रिय विषय पौराणिक और ऐतिहासिक कथानक तथा चरित्र हैं। इस शैली में भी व्यंग्यकारों ने ख़ूब कलम चलाई है। शुरूआती दौर के व्यंग्यकारों में भारतेंदु हरिश्चंद का व्यंग्य स्वर्ग में विचार का अधिवेशन तथा राधाचरण गोस्वामी की रचना यमलोक की यात्रा अनूठी मिसाल मानी जाती हैं। इसी नाम से उनका व्यंग्य संग्रह है। स्वप्न शैली में लिखे यमलोक की यात्रा व्यंग्य को डॉ रामविलास शर्मा उस पूरे युग की प्रतिनिधि रचना मानते हैं। डॉ. शंकर पुणतांबेकर का व्यंग्य-उपन्यास ‘एक मंत्री स्वर्गलोक में’ मंत्री के स्वर्ग में सशरीर पहुँचने की कल्पना पर आधारित है, जिसमें मंत्री पद से जुड़ी विसंगतियों और दुराचारों को उजागर किया गया है। इस फैंटेसी के माध्यम से लेखक ने सत्ता की खोखली संरचना के साथ ही समूची व्यवस्था की कमजोरियों और विडंबनाओं को दर्शाया है। परसाई की प्रसिद्ध कहानी ‘भोलाराम का जीव’ में, पेंशन न मिलने से व्यथित एक आत्मा के दफ्तर की फाइल में छिप जाने की रोचक कथा कही गई है। यह कथा सरकारी तंत्र की नाकामी और संवेदनहीनता पर करारा व्यंग्य है। नौकरशाही घूस में नारद की वीणा को भी रख लेती है। हरीश नवल की ‘विक्रमार्क, बुढ़िया और सराय रोहिल्ला’ मुझे खास पसंद है। इस रचना में लेखक ने पारिवारिक टूटन और वृद्धों की दयनीय स्थिति का कारुणिक चित्र उकेरा है। वह लिखते हैं- “बच्चों के लिए दादी माँ एक अजीब वस्तु थीं। वे उसे छू-छू कर देख रहे थे, कहाँ-कहाँ से बोलती है।” यह वाक्य चेतना को झकझोर देता है।
इस शैली की अन्य दस्तावेज़ी महत्व की रचनाओं में कुंभकर्ण गोलियां में व चंद्रगुप्त की तलवार (राधाकृष्ण), महामति चाणक्य राजदूत बने (बरसाने लाल चतुर्वेदी), भूत के पाँव पीछे, मेनका का तपोभंग व सुदामा के चावल (हरिशंकर परसाई), जार्ज पंचम की नाक (कमलेश्वर), अतृप्त आत्माओं की रेल यात्रा, चुनाव एक मुर्गाबीती व बुद्ध के दाँत (शरद जोशी), अंगद का पाँव (श्रीलाल शुक्ल), एक और अभिमन्यु (सनत मिश्र), सिंदबाद की अंतिम यात्रा (रवींद्रनाथ त्यागी), शंबूक की हत्या (नरेंद्र कोहली), विजिट यमराज की (शंकर पुणतांबेकर), मंच के विक्रमादित्य (रोशन सुरीवाला), रावण की आँख (वीरेंद्र कुमार जैन), अभिमन्यु का सत्ता व्यूह (श्रीराम ठाकुर दादा), कुछ महाभारत (शशिकांत), गौतम बुद्ध और दुखी आत्मा (धनराज चौधरी), युधिष्ठिर के बेटे (उषाबाला), स्वयंवर आधुनिक सीता का (पूरन सरमा), चुनाव टिकट और ब्रह्मा जी व व्यंग्य के मारे नारद जी विचारे (अरविंद तिवारी), होलिका अदालत में व द्रोपदी का सफरनामा (डॉ. स्नेहलता पाठक), नचिकेता के नए प्रश्न (शांतिलाल जैन), एक भूत की असली कहानी (सुभाष चंदर), श्री कृष्ण का ड्राइविंग लाइसेंस (पंकज सुबीर), एक पत्र कुंभकर्ण के नाम (श्रवण कुमार उर्मलिया), लौट के उद्धव मथुरा आए (संजीव निगम), ब्रह्मलोक में आउट सोर्सिंग, मेघदूत की वापसी व यमलोक में एक दिन (अरुण अर्णव खरे) आदि का प्रमुखता से शुमार किया जाता है। कुछ व्यंग्यकारों ने अपने व्यंग्य-संग्रह के शीर्षक भी उक्त रचनाओं में से चुने हैं।
अफ़सरशाही, राजनीति, भ्रष्टाचार जैसे विषयों पर बहुत से उपन्यास लिखे गये हैं। श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी ऐसे उपन्यासों में सर्वोपरि स्थान रखता है लेकिन हम यहाँ फैंटेसी शैली में लिखे गये उपन्यासों की चर्चा कर रहे हैं। इस कड़ी में 1962 में विंध्याचल प्रसाद गुप्त का “चाँदी का जूता” आया, जिसे हिंदी व्यंग्य-उपन्यास परंपरा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है। यह फैंटेसी और यथार्थ का अद्भुत संगम है। इसमें सत्ता-तंत्र के भ्रष्ट आचरण और अफ़सरशाही की निरंकुशता का ऐसा व्यंग्यात्मक चित्रण मिलता है, जो आज भी सामयिक लगता है। चाँदी का जूता केवल एक वस्तु भर नहीं है, बल्कि वह सत्ता, पद और प्रतिष्ठा का ऐसा प्रतीक है, जिसे हासिल करने के लिए पात्र किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं। हर काल में व्यंग्य लेखकों ने राजनीति पर करारे व्यंग्य लिखे हैं। वर्तमान समय में अनूपमणि त्रिपाठी और राजशेखर चौबे राजनीतिक व्यंग्य लिखने वालों में चर्चित नाम है। अनूपमणि के शोरूम में जननायक व सांपों की सभा उल्लेखनीय व्यंग्य संग्रह है। पंकज सुबीर की नेता होने से ठीक पहले, संतोष त्रिवेदी की अबकी बार मंतरमार सरकार एवं अरुण अर्णव खरे की भक्तिकाल रिटर्न्स व छप्पन सब पर भारी भी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं।
इक्कीसवीं सदी में भी फैंटेसी शैली में काफी व्यंग्य रचनाएँ लिखी जा रही हैं जबकि यह सदी ज्यादा वैज्ञानिक, यथार्थवादी और पश्चिमोन्मुखी हो चली है। फैंटेसी शैली में समय की विसंगतियों को अदृश्य रह कर उजागर करने की जो अतीव क्षमता है, वह इसे कभी पार्श्व में नहीं जाने देगी।
संदर्भ:
– उपन्यास: उत्पत्ति और विकास (नामवर सिंह)
– हिंदी साहित्य का इतिहास (नगेन्द्र)
– हिंदी के निर्माता (कुमुद शर्मा)
– सेतु, साहित्य कुंज वेब पत्रिकाएं
– राजकमल प्रकाशन की पुस्तक सूची

अरुण अर्णव खरे
अभियांत्रिकीय क्षेत्र में वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त। कथा एवं व्यंग्य साहित्य में चर्चित हस्ताक्षर। बीस से अधिक प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त। अपने माता-पिता की स्मृति में 'शांति-गया' साहित्यिक सम्मान समारोह आयोजित करते हैं। दो उपन्यास, पांच कथा संग्रह, चार व्यंग्य संग्रह और दो काव्य संग्रह के साथ ही अनेक समवेत संकलनों में शामिल तथा देश भर में पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन। खेलों से संबंधित लेखन में विशेष रुचि, इसकी भी नौ पुस्तकें आपके नाम। दो विश्व हिंदी सम्मेलनों में शिरकत के साथ ही मॉरिशस में 'हिंदी की सांस्कृतिक विरासत' विषय पर व्याख्यान भी।
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