
- October 25, 2025
- आब-ओ-हवा
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पुस्तक चर्चा स्वरांगी साने की कलम से....
हिंदी पत्रकारिता ही नहीं, विदेशों में भारतीयता का दस्तावेज़
किताब का नाम- विदेश में हिंदी पत्रकारिता
लेखक- जवाहर कर्नावट
प्रकाशक- राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
लिखी गयी हर इबारत ऐसी नहीं होती कि हर किसी के लिए उसे पढ़ना ज़रूरी हो। पर एक किताब है, जिसे सबको पढ़ना चाहिए। कम से कम हर भारतीय और विदेशों में रह रहे भारत मूल के लोगों को तो पढ़ना ही चाहिए। ऐसी किताब मेरे हाथों में थी ‘विदेश में हिंदी पत्रकारिता’ नाम से। लिफ़ाफ़ा देखकर मज़मून भाँप लेने जैसे कोई करामात भी नहीं करनी थी। किताब के कवर पर ही साफ़-साफ़ लिखा था- 27 देशों की हिंदी पत्रकारिता का सिंहावलोकन। किसी किताब के कवर से उसका अंदाज़ा नहीं लगाना चाहिए, यह इस किताब ने भी सिद्ध कर दिया। कवर कह रहा था यह किताब पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए बहुत मानीख़ेज़ हो सकती है। कुछ हद तक पत्रकारिता से जुड़े और वह भी हिंदी पत्रकारिता से जुड़े लोगों के लिए उपयुक्त हो सकती है। अंदर के पन्ने खोलते ही माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान के संस्थापक निदेशक पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर की प्रस्तावना शोधार्थियों के लिए किताब की उपयोगिता को रेखांकित कर रही थी। किताब के लेखक डॉ. जवाहर कर्नावट ने अपनी भूमिका में इसे अलग-अलग देशों में हिंदी पत्रकारिता की पहुँच और महत्ता के अध्ययन की दृष्टि से आवश्यक माना है। इतना पढ़ते-पढ़ते पाठक का मानस बनने लगता है कि यह किताब हिंदी पत्रकारिता की समझ को विकसित करने का माध्यम हो सकती है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित किताब के पन्ने पलटते हुए मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, ब्रिटेन, नीदरलैंड, रूस, जापान, चीन, तिब्बत, नार्वे, म्यांमार तथा नेपाल से निकलने वाली हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की छवियां ध्यानाकृष्ट करती हैं। अंतिम पन्ने पर बैंक ऑफ़ बड़ौदा से महाप्रबंधक के रूप में सेवानिवृत्त हुए डॉ. कर्नावट के बारे में जानकारी है। उन्होंने बैकिंग पर भी किताब लिखी है, मतलब लिखना उनके स्वभाव में है। पत्रकारिता का स्वभाव रखने की वजह से मैं यह किताब पढ़ना तय करती हूँ। यह मानकर कि यह किताब लंबी बैठक लेगी, अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से लिखी गयी होगी, सो तत्क्षण न पढ़ उसे फिर कभी पढ़ने के लिए रख देती हूँ।
धूल झाड़ने के नियमित दैनिक क्रम में किताब फिर हाथ आयी। पिछले पन्ने पर लिखा था 27 से अधिक देशों से पिछले 120 वर्षों से प्रकाशित 150 से अधिक पत्र-पत्रिकाओं की विषय वस्तु को इस पुस्तक में विस्तार से व्याख्यायित किया गया है। ज़ाहिरन इस किताब में ऐसा बहुत कुछ होगा, जो गूगल पर सर्च करने से भी नहीं मिलेगा।

इस किताब की सामग्री को लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में स्थान दिया गया। बात केवल इस रिकॉर्ड की नहीं है। किताब तो भारतीय पत्रकारिता का दस्तावेज़ है। दुनिया के विभिन्न देशों में हिंदी पत्रकारिता केवल ताज़ा ख़बर देने भर का काम नहीं करती, वह वहाँ के लोगों को आपस में जोड़ने, अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति और अपने भाषाई परिवेश से जोड़ने का काम भी करती है। भारत में रहते हुए इसे समझना आसान नहीं है। देश से दूर जाने पर देश से दूर जाने की पीड़ा का अनुभव होता है। भारत के लोगों ने दूसरे देशों में जाकर केवल भौतिक रूप से ख़ुद को समृद्ध नहीं किया है बल्कि हमारी सांस्कृतिक समृद्धि को भी सहेजा है। उनके अपने संघर्ष, उनकी अपनी पीड़ा का इतिहास भी इस किताब में है।
जैसा कि पहले कहा यह किताब सबको पढ़नी चाहिए। लगभग दो शताब्दी पहले हज़ारों की संख्या में गिरमिटिया मज़दूर यूरोपीय देशों में गये या ले जाये गये थे। इस किताब से पता चलता है कि सुदूर देशों में उन्हें जोड़ने का काम गंगाजल, तुलसी और रामचरित मानस ने बख़ूबी किया। उनकी विवशता थी कि उन्हें दूसरे देश जाना पड़ा लेकिन उन्होंने इसे सांस्कृतिक यात्रा में बदल दिया। मॉरिशस, फ़िजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद आदि देशों में लगभग 175 साल पहले भारतीय मज़दूर गये थे तो आज़ादी के बाद व्हाइट कॉलर जॉब के लिए अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में भारतीय जा बसे। लेखक ने पिछले 20 वर्षों में एशिया, उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों के अनेक देशों की यात्राएँ कीं एवं दुर्लभ संदर्भों को जुटाया। किताब चार खंडों में है। पहले खंड के 6 अध्यायों में गिरमिटिया देशों में हिंदी पत्रकारिता को लिया गया है। इन देशों में प्रवासी भारतीयों को करारबद्ध श्रमिक (इंडेचर्ड लेबर) के रूप में एग्रीमेंट करके ले जाया गया था। एग्रीमेंट शब्द का अपभ्रंश ही कालांतर में गिरमिटिया हो गया।
दूसरे खंड के चार अध्यायों में उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के देशों में हिंदी पत्रकारिता का आख्यान है। तीसरा खंड 6 अध्यायों में बँटा है। इसमें यूरोप महाद्वीप के ब्रिटेन, नीदरलैंड, जर्मनी, नॉर्वे, हंगरी-बुल्गारिया व रूस में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास है। चौथा खंड एशिया महाद्वीप के जापान, संयुक्त अरब अमीरात-कुवैत-कतर, चीन-तिब्बत, सिंगापुर, म्यांमार-श्रीलंका-थाईलैंड तथा नेपाल की हिंदी पत्रकारिता को दर्शाता है। हर स्थान की परिस्थिति अलग होने से वहाँ की पत्रकारिता का रंग भी अलग रहा है। जैसे मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, फ़िजी आदि में रामायण या रामचरितमानस ने लोगों को बहुत गहरे जोड़े रखा था। इन देशों की पत्रकारिता में लाभ कमाना प्रयोजन नहीं था। यह बहुत सुखद भी है कि जहाँ आज भारतीय पत्रकारिता या मीडिया हाउस लाभ कमाने के संस्थान बन गये हैं, वहाँ विदेशों में पैसा कमाने, पैसा उगाहने के लिए वे कम से कम हिंदी पत्रकारिता को तो हथकंडा नहीं बना रहे हैं। हिंदी कितनी जानदार-शानदार भाषा है, इसे सिद्ध करने का काम भी वहाँ पत्रकारिता के माध्यम से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में हो रहा है।
‘भाषा गयी तो संस्कृति गयी’ का मूलमंत्र दूसरे देशों की हिंदी पत्रकारिता में दिखता है लेकिन दुःखद है कि हमारे देश की पत्रकारिता को न तो भाषा से कोई वास्ता रहा है, न संस्कृति से। यहाँ लाभ कमाना ही अब मूलमंत्र हो गया है। ऐसा नहीं है कि वहाँ हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं को विज्ञापन नहीं मिलते। विज्ञापन वहाँ भी छप रहे हैं, पर रेखांकित करने वाली बात यह है कि केवल विज्ञापन ही नहीं छप रहे। इस किताब को पढ़ना आत्मबोध जगाने का काम करना है कि कैसे विदेशों में बसे भारतीय हमारे देश के लिए तड़पते हैं और हम यहाँ रहकर भी अपने देश के बारे में सोच नहीं पा रहे। वहाँ बसे लोग भी पैसा कमा रहे हैं। पैसा कमाना, अच्छा जीवन जीना, भौतिक सुख-सुविधाओं का लाभ लेना उनसे बेहतर कौन जानता है पर वे केवल पैसा ही नहीं कमा रहे, यह हमें सोचना होगा। पत्रकारिता के विद्यार्थियों, पत्रकारों को तो यह किताब पढ़ना ही चाहिए पर मीडिया हाउसेस को इसे पढ़ने और अपने सामने आईना रखने की तरह रखने की आवश्यकता है।

स्वरांगी साने
प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित। यूट्यूबर, कविता, कथा, अनुवाद, संचालन, स्तंभ लेखन, पत्रकारिता, अभिनय, नृत्य, साहित्य-संस्कृति-कला समीक्षा, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर वार्ता और काव्यपाठ। 2 कविता संग्रह, 6 किताबों का अनुवाद, 3 का संपादन, फ़िल्मों के हिंदी सबटाइटल्स, पेटेंट दस्तावेज़ों व भारत सरकार के वेब इंटरफ़ेस आदि स्टार्ट अप्स के लिए अनुवाद।
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