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हास्य-व्यंग्य आदित्य की कलम से....

नेताजी-चमचाजी पुराण

           लोग घरों में तोते, कुत्ते, बिल्ली आदि पालते हैं और अधिकांश नेता अपने बौद्धिक स्तर के हिसाब से चमचे। चमचे नेताओं के मानसिक तनाव को कम करने में सहायक होते हैं। चमचे विश्वासपात्र होते हैं। चमचे संदेशवाहक होते हैं। चमचे मीडिया के सूत्र होते हैं। चमचे जनता में अफ़वाह फैलाने, विरोधियों पर अनर्गल आरोप लगाने, किसी के पक्ष अथवा विपक्ष में हवा बनाने के विश्वसनीय उपकरण होते हैं। अधिकांश मामलों में नेता चमचों को खोजने नहीं जाते। नेताओं को गुड़ समझकर चमचे स्वयं उनके ऊपर भिनभिनाने लगते हैं।

चमचों में योग्यतानुसार अंतर होता है। कालान्तर में नेता इसी आधार पर कुछ का चयन करते हैं। बिना ज़िम्मेदारी के पद जैसे प्रतिनिधि या समिति अध्यक्ष, संस्थाओं के संरक्षक आदि देकर इन चमचों की अनौपचारिक पुष्टि भी कर दी जाती है।

नेताजी के चमचे अपने नम्बर बढ़ाने के लिए रोज़ नये आइडिये तलाशते रहते हैं। चमचों का मुख्य काम है अपने नेता का यशगान करना। यह भी ज़रूरी है कि नेताजी की छवि चमकाने में उनका योगदान दिखायी देता रहे। उनकी सक्रियता ही उन्हें डाइनिंग टेबल पर सजाये रखती है।

जैसा की चमचों के लिए अनिवार्य है नये आइडिये तलाशते रहना। एक चमचे का ध्यान इस बात पर गया कि भारत में महान व्यक्तियों की परंपरा रही है। और उनकी महानता के प्रदर्शन के लिए उनके नाम पर विशेष दिवस मनाये जाते हैं। ऐसे दिवस सरकार मनवाती है। सरकार द्वारा ही इसकी आधिकारिक घोषणा की जाती है और श्रद्धानुसार बजट आवंटन भी। नेताजी स्वयं सरकार हैं, सो उन्हें दिवस मनाने और मनवाने से भला कौन रोक सकता है? ऐसे पहलुओं पर विचार कर चमचा निष्कर्ष पर पहुँचा कि नेताजी के नाम से भी राष्ट्रीय दिवस मनाया जाना चाहिए। इस विचार ने चमचे को भीतर ही भीतर आंदोलित कर दिया, परिणाम… कटलरी में सजा हुआ चमचा विचार की उत्तेजना से उछलकर सीधे नेताजी की प्लेट में कूद पड़ा और नेताजी के नाम का राष्ट्रीय दिवस मनाने का विचार परोस दिया। नेताजी बेहद प्रभावित हुए। उन्हें भी मन ही मन महसूस तो हो रहा था कि वे असाधारण व्यक्तित्व के धनी हैं, दैवीय गुणों से लबालब। हर्षित हो उन्होंने चमचे को उठाकर घी के मर्तबान में डालते हुए एक कमेटी बनाने की घोषणा कर डाली और 4 सीनियर अफ़सरों को नियुक्त कर चमचे को प्रमुख बना डाला। अपने विरोधी दल के नेताओं के सम्मान दिवस मजबूरी में मनाते रहने से पीड़ित नेताजी यह ढोंग करते हुए अक्सर दुःखी हो जाते थे। स्वयं के सम्मान दिवस के महान विचार ने उन्हें अंदर बाहर गुदगुदाकर आनंद विभोर कर दिया।

चमचे की अध्यक्षता में बनी गुप्त कमेटी को अपने विरोधियों और विपक्ष की आंखों से बचकर चलना था। अतः गोपनीयता को ध्यान में रखते हुए कमेटी को “पर्वतों में पर्यटन की संभावना” नाम दिया गया ताकि इसे दिल्ली की प्रदूषित आब-ओ-हवा से दूर रखा जा सके। पहली बैठक शिमला में प्रस्तावित हुई, जिसे नेताजी का अनुमोदन मिलना ही था।

शिमला चिंतन

हिमालय के सुरम्य वातावरण में चमचे ने असल एजेंडा कमेटी के सामने रखा और नेताजी के लिए सम्मान दिवस की संभावना तलाशने पर चर्चा का श्रीगणेश हुआ। चमचा नेताजी की छत्रछाया में सैकड़ों जयंतियाँ और पुण्यतिथियां अटेंड कर चुका था, अतः उसने नेताजी की जयंती मनाने का विचार रखा। सरकारी योग्य अफ़सर सोचने की मशीन होते हैं, अतः अफ़सरों ने तुरन्त ही विचार-विमर्श शुरू किया। चमचे बौद्धिक रूप से विकलांग होते हैं, गम्भीर मुद्दों पर ज़्यादा देर टिक नहीं पाते। परिणामतः वह चर्चा को एक वरिष्ठ अफ़सर के मार्गदर्शन में छोड़कर एक स्थानीय महिला नेत्री के साथ सैर-सपाटे के लिए निकल पड़ा।

अफसरों ने पर्यटन की संभावना तलाशने के लिए सरकारी ख़र्च पर अपने-अपने परिवारों को साथ लाद लिया था, जो संभावना तलाशने के लिए व्यग्र हो रहे थे। अफ़सरों ने सामूहिक सहमति से एक कैलेंडर निकाला और भारत में मन रही जयंतियों को चिह्नित करने की खानापूर्ति की। बाक़ी चर्चा पर्यटन उपरांत डिनर से पहले सामाजिक शराबख़ोरी करते हुए किया जाना तय पाया गया।

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अफ़सर पढ़े-लिखे होते हैं। शाम को डिनर से पहले आयोजित बैठक में अफ़सरों ने ख़ुलासा किया कि एम.के. गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, स्वामी विवेकानन्द, टैगोर, डॉ. अम्बेडकर, जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, भगत सिंह, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी आदि की जयंती अथवा पुण्यतिथि देश पहले से ही मना रहा है। ऐसी स्थिति में जीवित व्यक्ति के सम्मान दिवस के लिए कैलेंडर में जगह बना पाना एक मुश्किल काम है। दो दिन और तीन रातें इस बात पर चर्चा करते हुए ख़र्च हो गयीं, अफ़सरों के परिवार इससे बहुत खुश और संतुष्ट हुए।

अफ़सरों ने अपनी वैचारिक प्रतिभा से इस तथ्य को पुष्ट किया कि भारतीय समाज में मरे हुए लोगों का ज़्यादा सम्मान है। समाज स्वर्गीयों सभी धत् कर्म भुलाने में उदार रहता है और वे अच्छे कार्य भी पुण्यात्मा के नाम से याद करता है, जो उसने किये ही न हों। चूंकि नेताजी के लिए “पुण्यतिथि” का विकल्प है नहीं, सो 50 प्रतिशत संभावना ख़त्म। (इतना पढ़ा-लिखा कोई न था जो यह कह पाता कि जयंती मनाकर भी आप मनुष्य को दिवंगत ही मनवा देते हैं) अफ़सरों ने चमचे को कन्विन्स करने में सफलता प्राप्त कर ली कि नेताजी की “पुण्यतिथि” नहीं मनाई जा सकती अतः काम और जटिल हो गया है। और अधिक चिंतन की दरकार के कारण तय किया गया कि अगली बैठक में निराकरण किया जाये। स्वतंत्र चिंतन प्रभावित न हो इसलिए इस बैठक से पूर्व चमचे ने अफ़सरों को हिदायत दी कि परिवारों को साथ न लाएं।

ऊटी बैठक

ऊटी में बादलों से घिरे होटल में चिंतन शुरू हुआ। वरिष्ठ अफ़सर ने शिमला बैठक की फाइंडिंग्स से बात आगे बढ़ाते हुए एक नयी समस्या की तरफ़ ध्यानाकर्षित किया। उसने बताया महत्वपूर्ण दिवसों के अपीलिंग टाइटल पहले ही आवंटित हो चुके हैं। जैसे नेहरू को “बाल दिवस”, विवेकानन्द को “युवा दिवस”, भगत सिंह को “शहीद दिवस”, बोस को “पराक्रम दिवस”, पटेल को “एकता दिवस”, इंदिरा गांधी को “राष्ट्रीय एकता एवं बलिदान दिवस”, राजीव गांधी को “सद्भावना दिवस” आदि। चमचे के माथे पर फिर शिकन। सच पूछो तो चमचा भी जानता था कि नेताजी भारत के इन महान लीडरों के पासंग नहीं बैठते। उनके काम के अनुकूल जनता को स्वीकार्य टाइटल खोजना एक दुष्कर कार्य है। चमचे के चेहरे पर उदासी का सीधा असर अफ़सरों के आउट ऑफ़ टर्म प्रमोशन के सपनों पर पड़ना तय था। अफ़सर यह सुनहरा अवसर गंवा कैसे देते।

माहौल को भाँपते हुए एक अफ़सर ने मीटिंग में आये अवरोध को तोड़ने की गरज़ से कहा “साथियो, मेरा ध्यान एक तथ्य की ओर गया है, हम जीवन के प्रथम चरण के रूप में “बाल दिवस” और द्वितीय चरण के रूप में “राष्ट्रीय युवा दिवस” मना रहे हैं। आश्रम व्यवस्था की महान परंपरा के दो चरण अभी बाकी हैं.. क्या हमें इस पर विचार नहीं करना चाहिए?” बात में वज़न था। कमेटी को लगा गुत्थी के हल का सिरा मिल गया है। उन्होंने आगे कहा “अभी भी वृद्धावस्था और संन्यास पर कोई लोकप्रिय दिवस नहीं मनाया जा रहा।” बाक़ी अफ़सरों के चेहरे इस विचार से दमक गये लेकिन इस बात से चमचे का चेहरा फिर उतर गया। चमचे ने कहा “बात तो आपकी सही है लेकिन आप सभी से यह बात छुपी नहीं कि नेताजी अपने को वृद्ध मानने को तैयार नहीं हैं, जिसके चलते पार्टी के भीतर युवा नेतृत्व को मौक़ा नहीं मिल पा रहा और इसी कारण उनमें रोष है। हद तो यह है कि युवा नेतृत्व नेताजी से संन्यास की माँग तक कर रहा है।” यह एक जटिल स्थिति थी सो विचार सिरे से खारिज़ हो गया, मीटिंग में मायूसी छा गयी और सामाजिक शराबख़ोरी में इससे मात्रात्मक वृद्धि हुई। परिणामतः सामूहिक भोज चकने तक सीमित होकर देर रात्रि कब ख़त्म हुआ, किसी की नोटशीट में दर्ज न हो सका।

ऊटी चिंतन का समापन भी अभीष्ट परिणाम के बिना हुआ। चमचा मोटी खाल का था और अपने विचार के प्रति प्रतिबद्ध था। जल्दी हार मानना उसकी फ़ितरत न थी। चमचे ने पश्चिम दिशा में संभावना तलाशने की गरज़ से माउन्ट आबू में अगली बैठक का ऐलान कर दिल्ली कूच किया।

माउन्ट आबू बैठक

सर्दियों में माउन्ट आबू अपने शबाब पर होता है। धुंध से ढंके पहाड़ रहस्यमयी जान पड़ते हैं। चूंकि पिछली दो बैठकों में कोई उत्साहवर्धक परिणाम नहीं आ पाया था, अतः दिलवाड़ा के संगमरमर की नक़्क़ाशियाँ भी उसे नीरस जान पड़ती थीं। नक्की झील का स्वच्छ निर्मल जल उसके ताप को हरने में असमर्थ था। चमचे की नज़रें घूम-फिरकर अरावली के गुरु शिखर पर जा ठहरतीं। शिखर पर वह नेताजी की प्रतिमा की कल्पना कर गुमसुम-सा निहारता रहता। अफ़सरों ने नोटिस किया, चमचा कुछ बुझा-बुझा-सा दिखायी दे रहा है। साफ़ मतलब यह कि नेताजी ने जवाब तलब किया होगा। अफ़सर सहम गये क्योंकि नेताजी की कार्यशैली को भली-भांति जानते थे। वे नेताजी के कोपभाजन नहीं बनना चाहते थे। अपनी जान सांसत में फंसी देख अफ़सरों ने भव्य रात्रि भोज का आयोजन किया। कार्यक्रम में सांस्कृतिक मनोरंजन हेतु लोक गायन एवं लोक नृत्य की व्यवस्था भी करवायी गयी। कालबेलिया करती नर्तकियों ने निर्देशानुसार प्रस्तुति चमचे को केंद्र में रखकर दी। नर्तकियों के अस्सी कली के घाघरे के लहराने से उठे बवंडर ने चमचे के चेहरे से उदासी की धूल झाड़ दी। सुबह मीटिंग में चमचा उत्साह से भरा हुआ पहुंचा।

मीटिंग में चमचे ने नेताजी से हुए विचार विमर्श की जानकारी अफ़सरों को देते हुए कहा, “नेताजी ने पिछली बैठकों की फाइंडिंग्स को ग़ौर से सुनकर यह ज़ोर दिया है कि पुराने घिसे-पिटे तरीक़ों से मनाये जा रहे सम्मान दिवस के दायरे से ऊपर उठकर हमें इस प्रयोजन के लिए कुछ नवोन्मेषी तरीक़ों को टटोलना चाहिए।” चमचे ने नेताजी की प्रगतिशीलता की सराहना की। अफ़सर उस प्रगतिशीलता से परिचित थे। उन्होंने सैकड़ों बार नेताजी को “सींग मुढ़ाकर बछड़ों में शामिल होने” की फूहड़ कोशिश करते देखा था। अफ़सरों ने बिना समय गंवाये विचार को लपका और अबकी भारत के उन विरुदों और उपाधियों की लिस्ट बनाना शुरू की, जो जयंतियों, पुण्यतिथियों के दायरे से बाहर जाकर सम्मान प्रकट करती हैं। लिस्ट कुछ इस तरह थी:

1. एम. के. गांधी – राष्ट्रपिता (सुभाष चंद्र बोस द्वारा संबोधित), महात्मा (जनता द्वारा)
2. मदन मोहन मालवीय – महामना
3. बाल गंगाधर तिलक – लोकमान्य
4. जे. एल.नेहरू – चाचा नेहरू, पण्डित जी, भारत के वास्तुकार
5. चंद्रशेखर तिवारी – आज़ाद
5. लाल बहादुर शास्त्री – शांति पुरुष
6. वल्लभभाई पटेल – सरदार (जनता द्वारा संबोधित), लौह पुरुष
7. बी.आर. आंबेडकर – संविधान निर्माता, बाबा साहेब (जनता द्वारा)।
8. सुभाषचंद्र बोस – नेताजी (जनता में लोकप्रिय संबोधन)
9. सी. एफ. एंड्रयूज – दीनबंधु
10. राजेंद्र प्रसाद – देशरत्न
11. इंदिरा गांधी – Iron Lady of India (अख़बारों द्वारा संबोधित), दुर्गा स्वरूपा (यह उपाधि 1971 के युद्ध विजय पर विपक्ष के एक नेता पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा दी गयी थी)
12. जयप्रकाश नारायण – लोकनायक
13. ए पी जे अब्दुल कलाम – मिसाइल मेन

यह शॉर्ट लिस्ट भारत के नव निर्माताओं और राजनीतिज्ञों की जनता में लोकप्रियता के आधार पर बनायी गयी। अफ़सरों ने लिस्ट चमचे के सामने रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर ध्याननाकर्षित किया:

  1. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नेताओं की साख घटने से उपाधियों की संख्या में गिरावट देखी जा सकती है।
  2. इंदिरा गांधी और जयप्रकाश के बाद राष्ट्रपति कलाम को छोड़कर कोई भी नेता अपनी उपाधियों से लोकप्रिय नहीं हो पाया।
  3. उपाधियों की स्वीकार्यता हेतु तीन अनिवार्य शर्तें दृष्टिगोचर हैं – पहली, समर्थकों द्वारा प्रचार और सार्वजनिक मंचों से व्यक्ति विशेष के लिए इसका बार–बार उपयोग दूसरी, मीडिया में इसके प्रयोग को प्रोत्साहन देने के उपाय करना अथवा अनिवार्य रूप से प्रयोग करने के लिए बाध्य करना और तीसरी, जनता द्वारा स्वेच्छा से इसका व्यक्ति विशेष के लिए प्रचलन।
  4. उपाधि प्रदान करने के लिए प्रस्तावक का प्रभावशाली होना आवश्यक शर्त है। इसके बिना यथेष्ट परिणाम नहीं मिलते।

चमचे ने गंभीरता से इस पर विचार किया वह पहले और दूसरे तथ्य से सहमत था और इसके लिए उसने विरोधी पार्टी को दोषी ठहराया। तीसरे तथ्य पर उसकी नजरें अटक गई, उपाधियों की स्वीकार्यता की तीन शर्तें पढ़कर उसकी आँखें चमकने लगी। उसे इस विश्लेषण में दम नज़र आया। वह इस तरह के प्रॉपेगंडा से ख़ूब परिचित था। उसे पार्टी की ओर से बाक़ायदा ट्रेनिंग भी प्राप्त थी कि जनता के बीच सफ़ेद झूठ और निराधार तथ्यों को स्थापित कैसे किया जाता है। चमचे को धुंध छंटती हुई नज़र आने लगी। उसने इस विचार को गाय की पूंछ मानकर पकड़ लिया, जिसके सहारे वैतरणी पार की जा सकती थी।

दूसरा भाग कल…

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आदित्य

प्राचीन भारतीय इतिहास में एम. फिल. की डिग्री रखने वाले आदित्य शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न एनजीओ के साथ विगत 15 वर्षों से जुड़े रहे हैं। स्वभाव से कलाप्रेमी हैं।

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