
- October 30, 2025
- आब-ओ-हवा
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पाक्षिक ब्लॉग सलीम सरमद की कलम से....
हस्बे-हाल, सुख़न और उबैदुल्लाह अलीम
फ़िक्र की ठोस ज़मीन अब नदारद है। अहसास की बुनियादें खोखली हो चुकी हैं। जिस बुलंद इमारत की तामीर हुई भी नहीं है, उसकी पायेदारी का दावा किया जा रहा है। ऐसे दौर में सुख़न की परख और पैमाइश पर भी हमारा सिफ़र होना लाज़िमी है। सस्ती शोहरत के पीछे भागते हुए सिर्फ़ बरते हुए ख़याल और बासी मंज़र पेश किये जा रहे हैं। सुख़न के शैदाई बेस्वाद फीके लफ़्ज़ों पर चटखारे लेने की नाहक़ अदाकारी करने पर मजबूर हैं।
इंसान हो किसी भी सदी का कहीं का हो
ये जब उठा ज़मीर की आवाज़ से उठा
शायर की आंख का वो सितारा हुआ ‘अलीम’
क़ामत में जो क़यामती अंदाज़ से उठा
यही चेहरे मेरे होने की गवाही देंगे
हर नये हर्फ़ में जाँ अपनी समाये जाऊं
अहले-दिल होंगे तो समझेंगे सुख़न को मेरे
बज़्म में आ ही गया हूँ तो सुनाये जाऊं
जो साहिल के मंज़र से बहल जाते हैं, वो समंदर की गहराई से कैसे वाक़िफ़ होंगे? शोर मचाती लहरों का इतिहास क्या है? वो क्या जानें जबकि इन्हें बार-बार पलटकर देखना होगा। वो कौन लोग थे? जो समंदर की तली में उतरे… और वो हालात कैसे थे? जब अच्छे तैराक भी डूब गये।
हवा के दोश पे रक्खे हुए चिराग़ हैं हम
जो बुझ गये तो हवा से शिकायतें कैसी
एक चेहरे में तो मुमकिन नहीं इतने चेहरे
किससे करते जो कोई इश्क़ दुबारा करते
कौन मरीज़ और कौन मसीहा
इस दुख से छुटकारा पाएं
वक़्त की रफ़्तार को अपने हाथों से थामिए, महसूस कीजिए कि जज़्बात में हरारत कितनी है? अपने दिल से पूछिए कि धड़कनों से तालमेल कितना है? अनकही बातों की गुंजाइश कहाँ है? अनदेखे मंज़र खोजने की ज़रूरत कब है? क्यों ताज़गी काफ़ूर है? महसूस कीजिए… कुछ कमी है। आख़िरश कुछ है… आज के दौर में जिसकी भरपाई होना बाक़ी है। उस कमी को अपने अंदर की आवाज़ से, पूरे मन से पुकारिए… सुनिए, क्या कुछ सुनाया जा चुका है। पढ़िए, कितना कुछ लिखा जा चुका है।
कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में
फिर ख़्वाब अगर हो जाओ तो क्या
कोई रंग तो दो मेरे चेहरे को
फिर ज़ख़्म अगर महकाओ तो क्या
जब हम ही न महके फिर साहब
तुम बादे-सबा कहलाओ तो क्या
कहीं पढ़ा था- मजरूह सुल्तानपुरी, जिगर साहब के यहां ठहरे हुए थे, वो सुब्ह-सुब्ह परेशान दिखे तो जिगर साहब ने पूछा कि मियां क्यों इधर-उधर टहलते हुए भिन-भिना रहे हैं, तो उन्होंने कहा- एक शेर है और मैं उसके ख़याल को अपने शेर में ढालना चाहता हूँ। हाँ मेरे शेर की रदीफ़, क़ाफ़िया अलग है और बह्र भी अलग है। इस पर जिगर साहब ने मजरूह को ऐसा करने से मना किया। मजरूह सुल्तानपुरी ने अपना बचाव में कहा कि आप लोग भी तो सादी, हफ़ीज़ के ख़याल को अपना बना लेते हैं, जिगर साहब का जवाब था- हाँ हम अपनाते हैं मगर कुछ अपना कह लेने के बाद… अपने जवाब में जिगर साहब ने एक बात और जोड़ी- तुम भी इस ख़याल को अपने शेर में ढालोगे, उसके अल्फ़ाज़ अलग होंगे, अरकान अलग होंगे लेकिन कब… जब तुम इसके तजरुबे से गुज़रोगे लेकिन आज नहीं।
हर एक लहजा यही आरज़ू यही हसरत
जो आग दिल में है वो शेर में भी ढल जाये
मेरे ख़ुदा मुझे वो ताबे-नय-नवाई दे
मैं चुप रहूँ भी तो नग़मा मेरा सुनाई दे
गदा-ए-कू-ए सुख़न और तुझसे क्या मांगे
यही कि मल्कियत-ए-शेर की ख़ुदाई दे
अदब की आज़माइश हर दौर में होती है हस्बे-हाल से नाख़ुश नॉस्टेल्जिया में जीते हैं और अपने माज़ी को बेहतर बताते हैं। ये मुमकिन है मैं भी ग़लती कर सकता हूँ, अदब को समय के सीमित दायरे बांधना ठीक नहीं है… एक बड़े शजर को क़द्दावर और सायादार होने में समय लगता है। ऐसे ही इंक़लाब और तजरुबों के मिले-जुले पैकर को तलाशते-भटकते हुए मैं उबैदुल्लाह अलीम से परिचित हो गया था। वो 12 जून 1939 में भोपाल में पैदा हुए थे लेकिन बंटवारे में पाकिस्तान चले गये। जॉन एलिया से भी इनका तआल्लुक़ है, यह जानकर भी झुकाव और बढ़ गया। फिर मैंने इन्हें अहमदिया समुदाय के प्रोग्राम में यूट्यूब पर देखा, इस तस्वीर ने मुझे चौंका दिया क्योंकि अहमदिया लोगों को पाकिस्तान में मुसलमान ही नहीं माना जाता है। उबैदुल्लाह अलीम जैसों का किसी एक मुकाम पर ठहरना ज़ेब नहीं देता… शायर किसी सतही ढर्रे को अपना ले तो कुछ दिन की शोहरत पा सकता है, मगर उसकी शायरी में गहराई नहीं आ सकती।
कोई करे तो कहाँ तक करे मसीहाई
कि एक ज़ख़्म भरे दूसरा दुहाई दे
मैं एक से किसी मौसम में रह नहीं सकता
कभी विसाल कभी हिज्र से रिहाई दे
कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी सो मैंने जीवन वार दिया
मैं कैसा ज़िंदा आदमी था इक शख़्स ने मुझको मार दिया
इक सब्ज़ शाख़ गुलाब की था इक दुनिया अपने ख़्वाब की था
वो एक बहार जो आयी नहीं उसके लिए सब कुछ हार दिया

सलीम सरमद
1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।
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