
- November 25, 2025
- आब-ओ-हवा
- 2
एक याद बरास्ते गीत-छवि विवेक रंजन श्रीवास्तव की कलम से....
रफ़ी की आवाज़ में धर्मेंद्र के फ़िल्मी अंदाज़
धर्मेंद्र पर लिखा जाये, तो बात सिर्फ़ स्क्रीन पर दिखायी देने वाले एक सितारे की नहीं रहती, वह हमारे भीतर बैठे उस सहज मनुष्य की कहानी बन जाती है, जो प्रेम में भी गंभीर है और मस्ती में भी उतना ही सच्चा। रफ़ी साहब की आवाज़ इस मनुष्य की धड़कन बनकर हमारे सामने उतरती है। लगता है जैसे रफ़ी के सुरों में धर्मेंद्र की आत्मा ने रहने का कोई गुप्त स्थान खोज लिया था। इन दोनों की संगत में संगीत सिर्फ़ गाया नहीं जाता था, वह दर्शक के भीतर जाकर बस जाता था।
जब रफ़ी साहब गाते थे, ‘आज मौसम बड़ा बेईमान है’ तो परदे पर खड़ा युवा धर्मेंद्र अचानक किसी अपना-सा लगता था। उसकी आंखों में जो उदासी तैरती थी, वह मौसम की बेईमानी नहीं, जीवन की सच्चाई लगती थी। यह गीत उस आदमी का आत्म-स्वीकार है जो कभी-कभी ख़ुद को समझ नहीं पाता और फिर भी दुनिया से उम्मीद रखता है। रफ़ी के स्वरों में वह भटका हुआ मन अधिक उदार हो जाता था। धर्मेंद्र के चेहरे की हल्की-सी बेचैनी और रफ़ी की मद्धिम करुणा मिलकर भावनाओं का एक ऐसा रूप रचते थे, जिसे संगीत नहीं कहा जा सकता, वह जीवन का एक दृश्य था।
फिर अचानक कहानी एकदम दूसरी दिशा में चल देती है। धरती से जुड़े देसीपन की मस्ती में डूबा हुआ एक जाट अपने पूरे उत्साह के साथ उछलता-कूदता नज़र आता है। ‘मैं जट यमला पगला दीवाना’ कोई साधारण गीत नहीं है, यह धर्मेंद्र के व्यक्तित्व का वह हिस्सा है जिसमें वह ख़ुद को बिना किसी बनावट के दुनिया के सामने रख देता है। यहाँ रफ़ी साहब की आवाज़ धर्मेंद्र के क़दमों में वही उछाल भर देती है, जो किसी खेत की मेड़ पर दौड़ते किसान के भीतर होती है। सुर और शरीर का यह मिलापन शायद भारतीय सिनेमा की सबसे सहज साझेदारियों में से एक है।
कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि प्यार की भव्यता जब परदे पर उतरती है तो उसे रफ़ी के स्वर ही ढंग से संभाल पाते हैं। ‘ओ मेरी महबूबा’ जैसा गीत इसी भव्यता का प्रमाण है। धर्मेंद्र चलते हैं, मानो प्रेम का कोई राजमहल उनके भीतर ही बसा हो और रफ़ी की आवाज़ उस महल के दरवाज़े धीरे-से खोल देती है। रोमांस कहीं से भी कृत्रिम नहीं दिखता। वह शाही भी है और सहज भी, जैसे जीवन में कभी किसी आत्मा को पहली बार देखकर मन थिरकता है।

यक़ीन जैसी फ़िल्मों में जब रफ़ी साहब गाते हैं ‘गर तुम भुला न दोगे’, तो धर्मेंद्र सिर्फ़ अभिनय नहीं करते, जैसे अपने भीतर किसी अधूरे भाव को ढूंढ रहे होते हैं। इस गीत में उनके चेहरे पर दिखने वाला डर मनुष्य की उस पुरानी पीड़ा का रूप है, जिसमें वह रिश्तों के स्थायित्व को लेकर हमेशा असुरक्षित रहता है। रफ़ी की आवाज़ उस भय को कोमलता में बदल देती है। लगता है जैसे कोई बड़ी चोट भी गाकर हल्की की जा सकती है।
और फिर ‘दिल का हीरा’। यह गीत प्रेम की उस यात्रा का वर्णन है, जिसमें पत्थर को दिल बनने में जितनी देर लगती है, उतना ही समय उसे धड़कनें सीखने में लगता है। रफ़ी साहब की आवाज़ इस बदलते मन के रंगों को चुपचाप समेट लेती है। धर्मेंद्र की आंखों में इस गीत के दौरान जो नमी दिखती है, वह उनके अभिनय की नहीं, मानो उस मनुष्य की है, जिसे प्यार पहली बार अपने भीतर उतरता हुआ महसूस हुआ हो।
धर्मेंद्र और रफ़ी की जोड़ी की असल सुंदरता यही है कि इन दोनों ने मिलकर भावों को किसी ताम-झाम वाले परदे पर नहीं परोसा, बल्कि रोज़मर्रा के मनुष्य की आदतों और इच्छाओं में ढाल दिया। इन गीतों को आज भी सुनें तो लगता है हम किसी अभिनेता को नही देखते, किसी गायक को नहीं सुनते, बल्कि अपने ही जीवन की वह परछाईं पकड़ने की कोशिश करते हैं, जो हमेशा हमारे साथ चलती है।
यह संगत इसलिए अमर है क्योंकि इसमें नायक और गायक दोनों ने अपनी आत्मा को दांव पर लगाया। धर्मेंद्र की आंखों की चमक और रफ़ी की आवाज़ की कोमलता मिलकर उस दौर की एक ऐसी स्मृति बन जाती है, जिसे समय कभी बूढ़ा नहीं कर पाता। अलविदा धर्मेंद्र!

विवेक रंजन श्रीवास्तव
सेवानिवृत मुख्य अभियंता (विद्युत मंडल), प्रतिष्ठित व्यंग्यकार, नाटक लेखक, समीक्षक, ई अभिव्यक्ति पोर्टल के संपादक, तकनीकी विषयों पर हिंदी लेखन। इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स के फैलो, पोस्ट ग्रेजुएट इंजीनियर। 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। हिंदी ब्लॉगर, साहित्यिक अभिरुचि संपन्न, वैश्विक एक्सपोज़र।
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मगर गीतकार को मत भूल जाइए जिसने अभिनेता और गायक के स्फिवभाव और फिल्म सिचुएशन को पूरी तरह आत्मसात करके गीत लिखे हैं। फिर भी आपके आलेख की तारीफ करता हूं कि आपने धर्मेन्द्र के मानवीय पक्ष को बहुत बढ़िया से उजागर किया है।
आपकी ओर बधाई और शुभकामनाएं।
सुंदर लिखा।