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पाक्षिक ब्लॉग आलोक कुमार मिश्रा की कलम से....

बच्चे कैसे पढ़ें धर्मनिरपेक्षता का पाठ!

             शिक्षा के लक्ष्यों में एक महत्वपूर्ण लक्ष्य यह है कि हम जिन आदर्शों व आकांक्षाओं के हिसाब से अपने समाज और देश को बनाना चाहते हैं उसके अनुरूप अपने नागरिकों को अभिप्रेरित व प्रशिक्षित किया जाये। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र राज्य के तौर पर न्याय, स्वतंत्रता, समता एवं बंधुता आधारित समाज का निर्माण ही अपेक्षित आदर्श होता है। इसी रणनीति के तहत हमारे संविधान में ‘धर्मनिरपेक्षता’ के मूल्य को काफी अहमियत दी गयी है। वास्तव में इसे बहुधार्मिक विविधता से युक्त समाज के न्यायपूर्ण प्रबंधन और लोकतंत्रीकरण के लिए आधारभूत मूल्य के रूप में पहचाना गया है। अकादमिक जगत में धर्मनिरपेक्षता को राज्य और धर्म के आपसी अलगाव के रूप में देखे जाने का चलन है। पर सामाजिक जीवन में और लोगों के आपसी व्यवहार में भी धर्मनिरपेक्षता का बहुत महत्व है। वास्तव में यह एक आधुनिक दृष्टिकोण होने के साथ-साथ हमारे देश के मूलभूत समावेशी चरित्र और संविधान का हिस्सा भी है। अपने नागरिकों में इसके अनुरूप दृष्टिकोण का निर्माण करना शिक्षा का एक अहम उद्देश्य है।

सामाजिक विज्ञान विषय के शिक्षक के रूप में मेरे लिए यह बहुत ज़रूरी मुद्दा रहा है कि मैं अपनी कक्षा में बच्चों के सम्मुख धर्मनिरपेक्षता की संकल्पना को किस तरह से प्रस्तुत करूँ कि वे अनुभवजन्य तरीके व व्यवहारिक उदाहरणों द्वारा इसके महत्व को जानते- समझते हुए जीवन में उतार पाएँ। पिछले दिनों मुझे आठवीं कक्षा में सामाजिक विज्ञान विषय के पाठ ‘धर्मनिरपेक्षता की समझ’ (पुस्तक- सामाजिक और राजनीतिक जीवन, पाठ 2, पृष्ठ 18-27, एनसीईआरटी) को एक नये तरीक़े से बच्चों के सम्मुख रखने और समझ बनाने में सफलता मिली। वास्तव में यह तरीक़ा मैंने राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में 1971 ई में आई जाॅन राॅल्स की किताब ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ में वर्णित किये गये ‘अज्ञानता के पर्दे’ की कल्पना से प्रभावित होकर ईजाद किया था।

राॅल्स न्याय के सिद्धांत की स्थापना के लिए समानता के मूल स्थिति की कल्पना करते हैं। इस कल्पना में यह शामिल था कि व्यक्ति अपनी मूल अवस्था में (ऐसी स्थिति में जब उसे अपने पृष्ठभूमि या पहचान का पता न हो यानि अज्ञानता के पर्दे में हो, बस उसे अपने हित को समझ पाने का विवेक हो) अपने आगामी जीवन के लिए निर्णय ले तो वह न्यायपूर्ण होगा जो न्यूनतम स्थिति में भी अधिकतम लाभ को बनाये रखने के तर्क से प्रेरित होगा। ऐसा आगामी जीवन की अनिश्चितता के कारण होगा क्योंकि मूल स्थिति में छाये अज्ञानता का पर्दे के हटने के बाद हो सकता है कि उनमें से कुछ लोग (जो कोई भी हो सकते हैं) न्यूनतम परिस्थितियों में हों। ऐसी संभावना में वे अपने लिए अधिकतम लाभ की व्यवस्था के निर्माण हेतु निर्णय लेते हैं। इस तरीक़े को मैंने ‘जादू की कल्पना के खेल’ नाम की गतिविधि में परिवर्तित किया। इसमें विद्यार्थियों को यह कल्पना करने के लिए कहा जाना था कि मेरे यानी शिक्षक के ‘अगड़म-बगड़म’ कहकर जादू करने पर वे सभी यह भूल जाएँगे कि कि वे कौन हैं, उनकी क्या पृष्ठभूमि है या किस पहचान से वे जुड़े हैं। यह जादू की स्थिति कुछ मिनट ही रहेगी जिसमें वे अपने भविष्य के बारे में महत्वपूर्ण फैसला लेंगे। जादू उतरने के बाद सब याद आ जाने पर भी (यह कल्पना आधारित ही होगा) उन्हें अपने लिए फैसले के आधार पर ही जीवन जीना होगा। इसलिए सोच समझकर ही फैसला लेंगे। एक बार जब सामाजिक विज्ञान के शिक्षकों के साथ चर्चा में इसे मैंने साझा किया था तो इसे खूब पसंद किया गया। इसके साथ ही इस गतिविधि को सामाजिक विज्ञान विषय की सहायक पुस्तिका प्रगति-5 में भी शामिल किया गया। पर बच्चों के साथ कक्षा में इसकी उपयोगिता का परीक्षण होना बाकी था। जल्द ही इसका भी मौका मिला।

इस पाठ के लिए मैंने दो पाठ उद्देश्य निर्धारित किये। पहला, बच्चों को धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से परिचित कराते हुए इसकी आवश्यकता व महत्व का अनुभव कराना। दूसरा, भारत के संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप से अवगत कराते हुए वास्तविक उदाहरणों से समझ बनाना। पहले उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता की संकल्पना तक पहुँचने के क्रम में बच्चों की सक्रिय संलग्नता को ध्यान में रखते हुए ‘जादू का खेल’ शुरू किया। कक्षा में यह कहते ही कि आज जादू का खेल खेलेंगे एक उत्साह, उमंग और जोश का माहौल बन गया। सही मौका देखकर मैंने खेल के नियम भी सबके सामने रख दिए जिसे सबने ध्यान से सुना। मैंने उन्हें बताया कि कक्षा में अगले पांच मिनट तक उन लोगों को कल्पना करना है कि मेरे द्वारा किए गए जादू के कारण वे अपने बारे में या अपनी पहचान के बारे में सब कुछ भूल गये हैं। बस उनमें सोचने समझने और अपने हित-अहित को पहचानने की क्षमता बची है। बोर्ड पर लिखे गए चार देशों की सूची में से उन्हें अपने लिए यह निर्णय लेना है कि पूरी जिंदगी वे किस देश में रहना चाहते हैं। जादू खत्म होने के बाद जब उन्हें अपने बारे में सब कुछ याद आ जाएगा तब भी उन्हें आगे उसी देश में रहना होगा जिसको उन्होंने इन पाँच मिनटों में चुना है। बोर्ड पर चार देशों के बारे में अलग-अलग यह लिखा गया-

  1. देश ‘क’ – यहाँ कई धर्मों के लोग रहते हैं, पर सिर्फ़ हिन्दू धर्म को ही सरकार महत्त्व देती है। उन्हें ही सरकार द्वारा सभी सुविधाएं प्रदान की जाती हैं, अन्य किसी को नहीं।
  2. देश ‘ख’ – यहाँ केवल मुस्लिम धर्म को राष्ट्र का धर्म माना जाता है और सम्मान मिलता है। अन्य धर्म के मानने वालों को वोट डालने या अपने धर्म के पालन की आज़ादी नहीं है।
  3. देश ‘ग’ – इस देश में सभी को अपने-अपने धर्म के पालन की आज़ादी है। लेकिन कुछ धर्मों के अंदर महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कमतर माना जाता है और उनकी इस मान्यता में सरकार दख़ल नहीं देती।
  4. देश ‘घ’ – यह एक ऐसा देश है जिसमें सभी धर्मों को बराबर अधिकार और अवसर प्राप्त हैं। सरकार सभी से दूरी बनाये रखते हुए सबके लिए एक जैसे क़ानून बनाती है। धर्म के अंदर जाति या लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव पर रोक है।

कक्षा की धार्मिक विविधता को देखते हुए ज़रूरत के अनुसार देश ‘क’ और ‘ख’ की तरह अन्य बहुसंख्यक धर्म के पक्ष वाले काल्पनिक देशों की सूची भी दी जा सकती है। जादू वाली समय सीमा में ही विद्यार्थियों को अपने लिए फैसला लेने और को कहा गया। जादू खत्म होने के बाद उन्हें निम्न प्रश्नों पर अपने अपने उत्तर के संदर्भ में विचार करने और कक्षा के साथ साझा करने को कहा गया-

  • आपने अपने रहने के लिए किस देश को चुना और इसके पीछे क्या कारण रहे?
  • यदि आपने देश ‘क’ या ‘ख’ को अपने लिए चुना और जादू खत्म होने के बाद आप उस धर्म के न निकले जिसे वहाँ सम्मान मिलता है तो आपको कैसा लगेगा ?
  • जादू खत्म होने के बाद अगर यह पता चले कि आप महिला हैं और आपने अपने लिए देश ‘ग’ चुना था तो क्या होगा ?
  • देश ‘घ’ के बारे में आपकी क्या राय है?

एक अजीबोगरीब आवाज़ (अगडम बगडम) के साथ मैंने जादू किया। अब सब सोचने और लिखने के काम में जुट गये। एक बात तो स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आयी कि दी गयी परिस्थिति में बच्चे तार्किक निर्णय लेने में पूरी तरह से सक्षम होते हैं। जादू का समय ख़त्म होने के बाद उन्होंने चर्चा में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हुए अपनी बात रखी। पचास बच्चों की कक्षा में तीन चार बच्चों को छोड़कर लगभग सभी ने अपने लिए देश ‘घ’ का चुनाव किया था। इस चुनाव का कारण पूछने पर कुछ ने इसके पीछे जादू ख़त्म होने के बाद कोई भी पहचान या धर्म का निकलने पर फायदे में रहने का व्यवहारिक कारण गिनाया। वहीं कुछ ने इस फ़ैसले का नैतिक आधार देते हुए कहा कि देश ‘घ’ ही लोकतांत्रिक देश होगा क्योंकि यहाँ सबको समानता और अवसर प्राप्त है जो कि अच्छी बात है।

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जिन तीन-चार बच्चों ने देश ‘घ’ के अलावा अन्य देशों का चयन अपने लिए किया था उनसे बात करने पर पता चला कि दी गयी परिस्थिति को वे ठीक ढंग से समझ नहीं पाये थे। यद्यपि इनकी वजह से स्वयं इन्हें और अन्य बच्चों को भी अन्य आयामों से सोचने का अवसर मिला। जैसे एक बच्चे ने देश ‘ग’ का चुनाव किया था किंतु उसने अपने पहचान की कल्पना ‘अज्ञानता के पर्दे’ या ‘जादू के समय’ में भी एक लड़के/पुरुष के रूप में की थी। जब उसे याद दिलाया गया कि उसे तो यह पता ही नहीं था, साथ ही यह कल्पना करने को कहा गया कि जादू खत्म होने के बाद यदि वह लड़की निकलता तो कैसा अनुभव होता, तो उसने तुरंत सुधार करते हुए देश ‘घ’ में जाने की इच्छा जाहिर की। जब मैंने याद दिलाया कि नियमानुसार अब फैसला बदल नहीं सकते तो पूरी कक्षा हंसी से गूँज गई। किसी ने कहा कि अगर सोच समझ कर फैसला करते तो सारी उम्र भेदभाव न झेलते। ऐसे ही जिस बच्ची ने देश ‘क’ का चुनाव किया था जब उससे इसका कारण पूछा गया तो उसने बताया कि उसे हिन्दू धर्म अच्छा लगता है इसीलिए इसे चुना। जब मैंने उससे कहा कि यदि वह बाद में हिन्दू न निकले तो क्या उसे बुरा नहीं लगेगा जब भेदभाव होगा। पूरे विश्वास से वह बोली ‘नहीं, चूँकि मुझे यह धर्म पसंद है तो मैं हिन्दू धर्म अपना लूंगी और फिर मेरे साथ भेदभाव नहीं होगा।’ अब मेरे सामने चुनौती थी कि उस बच्ची को कैसे मैं वांछित और तार्किक चुनाव की ओर प्रेरित करूँ। मैंने उससे कहा ‘ठीक है कि आपके साथ यहाँ भेदभाव नहीं होगा और आपको सुविधा व सम्मान मिलेगा, पर क्या दूसरों के साथ भेदभाव होना ठीक है? क्या ऐसा होते देखकर आपको ठीक लगेगा?’ बच्ची ने कुछ देर चुप रहने के बाद ना में सिर हिलाया। मैंने जब उससे पूछा कि देश ‘घ’ के बारे में उसकी क्या राय है? तो उसने कहा कि यही देश सबके लिए सही है पर मैं तो अब यहाँ नहीं आ सकती, फैसला लेने का समय तो चला गया। कक्षा में फिर हंसी गूँज उठी। जब मैंने कहा कि कोई बात नहीं हम सब अपने देश ‘घ’ में तुम्हें लेने को तैयार हैं तो सबके साथ वे तीन-चार बच्चे भी हंस पड़े।

पीरियड की समाप्ति का समय होते देख मैंने उनसे कहा कि आजकल पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में नागरिकों के अधिकार और समानता को काफी महत्व दिया जाता है। वास्तव में लोकतंत्र का अर्थ भी यही है। धार्मिक विविधताओं के संदर्भ में सभी धर्मों को समान मानते हुए धार्मिक आजादी के अवसर देना भी इसी का हिस्सा है। इसके लिए राज्य और धर्म का अलगाव कर दिया जाता है जिसे धर्मनिरपेक्षता की नीति कहा जाता है। इसके अंतर्गत राज्य सभी धर्मों से दूरी बनाए रखते हुए किसी का भी पक्ष नहीं लेता न ही किसी को महत्व देता है। अब बच्चों को मैंने अगले दिन कक्षा में आने से पहले एक छोटी सी खोज-बीन करके आने का काम दिया। इसमें उन्हें तीन ऐसे देशों की सूची बनाने को कहा गया जहाँ के शांतिपूर्ण, जीवन जीने के लिए उपयुक्त और बेहतरीन वातावरण के कारण जाना चाहेंगे तथा तीन ऐसे देश जहाँ के अशांत, हिंसायुक्त और जीवन जीने के लिए असुरक्षित माहौल के कारण जाना पसंद नहीं करेंगे। इन दोनों तरह के देशों में सरकार और धर्म के आपसी संबंध बारे में पता करने को भी कहा गया साथ ही कक्षा में चल रहे पाठ ‘धर्मनिरपेक्षता की समझ’ को अगले दिन पढ़कर आने का आग्रह किया।

अगले दिन सभी कक्षा में चल रहे पाठ को लेकर उत्सुक और उत्साहित दिख रहे थे। कुछ बच्चों ने आते ही सवाल दागने शुरू कर दिये। एक ने कहा कि ‘ए तो समझ आ गया कि देश ‘घ’ जो सबसे अच्छा देश है वो धर्मनिरपेक्ष है पर ए राज्य और धर्म के अलगाव का मामला समझ में नहीं आया कि ऐसा ज़रूरी क्यों है?’ दो तीन बच्चों ने उसके सुर में सुर मिलाया। इसके लिए पाठ योजना के दूसरे उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मैंने उन्हें दो बातें बतायीं। पहली यह कि किसी भी देश में एक धर्म के लोग बहुसंख्यक होते हैं। यदि बहुमत वाले धर्म के लोग सत्ता में आ जाएँ तो दूसरे धर्मों के प्रति भेदभाव कर सकते हैं। राज्य और धर्म के अलगाव के रूप में धर्मनिरपेक्षता इसी बहुमत की निरंकुशता एवं ज़ोर ज़बरदस्ती से बचाती है। दूसरे, यह कि सभी को अपने धर्म को मानने या न मानने, उसका पालन करने, धर्म बदलने और उसकी अलग व नयी व्याख्या करने का अधिकार होना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता यह सहूलियत प्रदान करती है। बच्चों को कुछ व्यावहारिक उदाहरण भी दिए गए। जैसे मैंने उनसे पूछा कि आपके पसंदीदा खेल जो स्कूल में खेलते हैं या खेलना चाहते हैं वह कौन से हैं? मेरी पचास बच्चों की इस कक्षा में मात्र तेरह लड़के और बाकी लड़कियाँ हैं। लगभग सभी लड़कियों ने खो-खो को स्कूल में खेलने के लिए पसंदीदा खेल बताया। लड़कों ने क्रिकेट और फुटबॉल का नाम लिया, लेकिन यह आरोप भी लगाया कि ‘गेम की मैडम हमेशा वही खेल खेलाती हैं जिसे ज्यादातर बच्चे खेलना चाहते हैं और लड़कियाँ ज्यादा होने के कारण हर बार खो-खो का ही खेल होता है।’ बहुसंख्या के इस दबदबे से निपटने में धर्मनिरपेक्षता की रणनीति को कारगर बताते हुए मैंने उन्हें बताया कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में निम्न बातों का ख्याल रखा जाता है-

  • कोई एक धार्मिक समुदाय दूसरे समुदाय को न दबाए,
  • कुछ लोग अपने ही धर्म के अन्य सदस्यों को न दबाएं, और
  • राज्य न तो किसी खास धर्म को थोपे न ही लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता को छीने।

मैंने बच्चों से पूछा कि अगर ऐसा न हो तो क्या होगा? कुछ बच्चों ने ऐसा न होने पर भेदभाव होने, कुछ ने लड़ाई झगड़ा होने तो कुछ ने बुरा लगने की बात कही। कुछ बच्चों ने इसे लोकतंत्र और देश के ख़िलाफ़ मानते हुए गहरी समझ दिखायी। अब मैंने बच्चों से पूछा कि सब राज्य और सरकार द्वारा किया कैसे जाता होगा, तो उन्होंने कहा कि एक जैसे कानून बनाकर। इसे स्वीकार करते हुए मैंने उनके सामने भारतीय राज्य द्वारा धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में किये जाने वाले तीन तरह के कामों को सामने रखा। जो हैं-

  • खुद को धर्म और उसके मामले से दूर रखना।
  • कुछ धर्मों की विशेष जीवन शैली को देखते हुए उनके मामले में अहस्तक्षेप की नीति पर चलना। जैसे सिखों को हेल्मेट पहनने से छूट देना।
  • धर्म के अंदर वर्चस्व या भेदभाव रोकने के लिए कानून बनाकर हस्तक्षेप करना। जैसे छूआछूत के ख़िलाफ़ कानून बनाना।

बच्चों ने स्वयं ही कई प्रासंगिक उदाहरण देते हुए इन बिंदुओं को स्पष्ट किया जैसे तीन तलाक़ के मुद्दे को उठाते हुए एक बच्चे ने इसमें सरकार के हस्तक्षेप को उचित बताया। कक्षा के समय और पाठ को समाप्ति की ओर बढ़ते देखकर मैंने उनका ध्यान एक दिन पहले दिये गये खोजबीन संबधी काम की ओर खींचा। जिसमें उन्हें दिये गये मापदंडों के आधार पर तीन-तीन देशों की सूची बनानी थी। उनमें से ज्यादातर ने सूची बनायी थी। सबमें जो बात लगभग सामान्य थी वह थी अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों का नाम अच्छे व पसंदीदा देशों की सूची में वहीं ग़रीबी और आतंकवाद से जूझ रहे अफ्रीका व पश्चिम एशिया के देशों का नाम नापसंद देश की सूची में होना। जब मैंने इसके पीछे के कारणों पर गौर किया तो पाया कि चूँकि मैंने उन्हें पाठ ‘धर्मनिरपेक्षता की समझ’ को पढ़कर आने को भी कहा था और इस पाठ में जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका का उदाहरण धर्मनिरपेक्षता के अलग-अलग आयामों व संदर्भों को समझाने के लिए दिया गया है, इसलिए लगभग सभी ने इन्हें पसंदीदा देश माना। लेकिन यह पूछने पर कि ग़ैर पसंदीदा सूची में देशों को शामिल करने में उन लोगों ने किन बातों को ध्यान में रखा तो उत्तर में विविधता दिखायी दी। किसी ने ग़रीबी, किसी ने आतंकवाद, ख़ून-ख़राबा तो किसी ने लोगों के बीच किये जाने वाले भेदभाव को बताया, जिसका पता उन्हें समाचार पत्रों, न्यूज़ चैनलों या फिर माता-पिता से बातचीत करके चला था। इसी बातचीत में कुछ बच्चों ने अमेरिका और पश्चिमी देशों को पसंदीदा बताने के पीछे भी इन्हीं स्रोतों से मिली सकारात्मक सूचनाओं का नाम लिया। कुछ बच्चों ने ही सरकार और धर्म के आपसी संबंधों को सूची बनाने में महत्व दिया था। जैसे एक बच्चे ने जिसने सऊदी अरब को ग़ैर पसंदीदा देशों की सूची में रखा था, कहा कि ‘मेरे पड़ोस के अंकल सऊदी अरब में रहते थे, उन्होंने बताया कि वहाँ की सरकार औरतों और ग़ैर मुसलमानों को ज़्यादा अधिकार नहीं देती, सरकार मुस्लिम धर्म को ही महत्व देती है।’ एक दूसरे बच्चे ने बताया कि ‘मेरी दीदी कक्षा दस में पढ़ती है और उसकी किताब में लिखा है कि श्रीलंका में सरकार तमिलों के साथ भेदभाव करती है और बौद्धों को ज़्यादा अधिकार देती है, जो कि ग़लत है। इसी वजह से वहाँ काफ़ी लड़ाई झगड़े का माहौल भी रहता है।’

बच्चे इस चर्चा से यह समझ बनाने में भी सफल होते दिख रहे थे कि यदि सरकार धर्म के आधार पर भेदभाव न करते हुए सभी को महत्व देती है तो वहाँ ज़्यादा अच्छा, शांतिपूर्ण और विकास के अनुकूल माहौल होगा। ऐसा न होने पर अशांति, हिंसा व तनाव का माहौल होगा। सूची में शामिल देशों के उदाहरण इसकी तस्दीक़ कर रहे थे। सभी धर्मों को महत्व देने की बात में जब मैंने ‘धर्मों के अंदर फैले भेदभावपूर्ण व्यवहार’ पर उनका ध्यान खींचा तो लगभग सभी ने ऐसे मामलों में सरकार के दख़ल देने और कानून बनाने का समर्थन किया। अब मैं उन्हें धर्मनिरपेक्षता के महत्व और मूल्य को अनुभव करते हुए देख पा रहा था। सभी इसी मुद्दे पर गुफ़्तगू कर रहे थे। घंटी बजते ही मैं उन्हें इसी हालत में छोड़कर दूसरी कक्षा में चला गया।

संदर्भ सूची-
जाॅन राॅल्स (1971), ‘अ थ्योरी ऑफ जस्टिस’, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005), एनसीईआरटी, दिल्ली।
सामाजिक और राजनीतिक जीवन (सामाजिक विज्ञान की किताब, 2006), एनसीईआरटी, दिल्ली।

(चित्र परिचय: कलाकार पार्थ मंडल रचित ‘द लास्ट सपर’, ललित कला अकादमी की वीथिका में प्रदर्शित)

alok mishra

आलोक कुमार मिश्रा

पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।

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