
- November 30, 2025
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पाक्षिक ब्लॉग रति सक्सेना की कलम से....
अस्मिता व पहचान के लिए कविता है एक मुहिम
जब हम कृत्या-2010 कवितोत्सव मना रहे थे, तब मुझे तेनजिन त्सुंडु के बारे में जानकारी मिली। वे उन दिनों अख़बार की सुर्ख़ियों में थे, क्योंकि उन्होंने मुंबई में पीआरसी के प्रधानमंत्री जू रोंगजी के होटल के बाहर बालकनी की छत पर चढ़कर तिब्बत का झंडा लहराया था। वे जेल भी गये। उस वक़्त पता चला कि वे और उनके साथी, तिब्बत को देश के रूप में आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन उनके संघर्ष की भाषा कविता है, यही उनकी ख़ासियत है। कविता में शब्द मारक हो जाते हैं। उन्हें 2001 में नॉन-फ़िक्शन के लिए पहला आउटलुक पिकाडोर पुरस्कार मिला था, उनकी अनेक कविता पुस्तकें छप चुकी हैं। अनेकों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है।
2010 में कृत्या अंतर्राष्ट्रीय कविता महोत्सव के वक़्त वे एक युवा थे, जिनकी भाषा में एक तेज था। वे एक शरणार्थी के रूप में पैदा हुए थे, क्योंकि उनके माता-पिता को 1959 में तिब्बत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था, भारत आकर वे मज़दूरी करने लगे। लेकिन मैदान की गर्मी ने उनका जीवन ही छीन लिया। तेनजिन या तेन सिंग का जन्म किसी सड़क किनारे एक अस्थायी तंबू में हुआ था।
तेन सिंग अपने छात्र जीवन से ही तिब्बती स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल रहे हैं। लेकिन
पिछले अनेक सालों से अपने सिर पर लाल पट्टी बांधे हैं, जिसके बारे में उनका कहना है कि यह उनकी प्रतिज्ञा का प्रतीक है कि वे अपने देश की आज़ादी के लिए काम करेंगे और तिब्बत के आज़ाद होने तक इसे कभी नहीं उतारेंगे। किसी को उनकी इस शपथ पर संदेह हो सकता है कि एक दुबला-पतला, छोटा आदमी अपनी लड़ाई कैसे जारी रख सकता है। लेकिन जब हम उनकी कविता सुनते हैं, तो न केवल उनके लोगों के दर्द और पीड़ा को महसूस करते हैं, बल्कि उन हज़ारों लोगों की प्रतिध्वनि भी सुन सकते हैं जिन्होंने अपना देश खो दिया है।
मैं उनके विचारों को दिखाने के लिए उनकी कविताओं को उद्धृत करना पसंद करूँगी-
शरणार्थी
पैदा हुआ तो
माँ ने बताया कि
तुम शरणार्थी हो।
सड़क किनारे हमारा तंबू
बर्फ़ में धुआँ उगल रहा था।
मेरे टीचर ने कहा
कि तुम्हारे माथे पर
आर शब्द लिखा है
मैंने खरोंचा और रगड़ा,
मेरे माथे पर मुझे
बस एक लाल निशान था,
पीड़ा का
मेरे पास तीन भाषाएं हैं
जो मेरी मातृभाषा में गाती हैं।
मेरे माथे पर आर
मेरी अंग्रेज़ी और हिंदी के मध्य
तिब्बती भाषा में लिखा है
तेन चीन भी गये थे, और वहां भी एक गद्य कविता लिखी। “भारतीय मुझे “चिंग चोंग” कहते हैं, तिब्बत में घुसते ही चीनियों ने मुझे गिरफ़्तार कर लिया, जेल में मेरी पिटाई की कर बाहर फेंक दिया और कहा “निकलो तुम ख़ूनी भारतीय हो।” मैं कौन हूँ? मैं भारत में पैदा हुआ और पला-बढ़ा हूँ और चार भारतीय भाषाएँ बोलता हूँ, बॉलीवुड से प्यार करता हूँ, मेरे जनजाति के लोगों से ज़्यादा भारतीय दोस्त हैं। मैं कौन हूँ?

मेरे पहचान पत्र का पंजीकरण प्रमाणपत्र बताता है कि मैं विदेशी हूं, मेरी राष्ट्रीयता तिब्बती है। लेकिन भारत के लिए कोई तिब्बत नहीं है, उनके लिए बस चीन है, हालाँकि हमारे पास भारत-तिब्बत सीमा पुलिस है। क़ानूनी तौर पर, भारत में कोई भी शरणार्थी नहीं है, यहाँ कोई शरणार्थी क़ानून प्रचलित नहीं है, लेकिन भारत में सबसे ज़्यादा शरणार्थी रहते हैं, जिनमें पारसी से लेकर बर्मी, बांग्लादेशी, श्रीलंकाई तमिल और तिब्बती शामिल हैं। कर्नाटक के कोल्लेगल में हमारे शरणार्थी शिविर से मेरी दोस्त सोपा ने कारगिल युद्ध में लड़ाई लड़ी थी। उनके दोनों ओर खड़े दो सैनिकों को सिर में गोली लगी थी और जब दिल्ली में जीवित बचे सैनिकों को सम्मानित किया जा रहा था, तो भारतीय सैनिकों की राष्ट्रपति के साथ तस्वीरें खींची जा रही थीं, जबकि ऊपरी मंज़िल के कमरे में एक अधिकारी द्वारा तिब्बतियों को पदक पहनाये जा रहे थे।
सोचिए, भारत में जन्म लेने वाला जब भारतीय सेना के साथ लड़ता है, तब भी उसे समूह में शामिल नहीं किया जा सकता। जबकि हमारे यहां गोरखा सेना है।
निर्वासन की अनेक कविताएं पढ़ने को मिलेंगी। केवल भारत में ही नहीं। विश्व के अनेक क्षेत्रों में इस तरह निर्वासित नागरिक रह रहे हैं, जैसे कि अफ़गानिस्तान के कामरान मीर हज़रान, लगातार हज़ारिस्तान के लिए लड़ रहे हैं, फिलहाल नॉर्वे में शरणार्थी हैं। वे उस वक़्त के हज़ारिस्तान की बात करते हैं, जब बौद्ध धर्म का अफ़गानिस्तान में प्रसार हुआ था। अट्ठाहरवीं सदी के अन्त में उनका क़त्ले-आम हुआ था। बाद में अनेक लोग देश छोड़कर भाग गये, लेकिन अपनी भूमि को याद करते रहे, उनकी लड़ाई आज भी जारी है। कामरान एक कवि हैं, वे लगातार अपने को हज़ारिस्तानी मानते हैं। कविता और अध्यापन उनका पेशा है।
कुर्द कविता का इतिहास तो सत्रहवीं सदी से आरंभ हो गया था। कुर्द परशिया की विशिष्ट जनजाति थी, एक वक़्त इनके बड़े-बड़े साम्राज्य थे, जो अन्य देशों में भी थे। इनका धर्म इस्लाम से कुछ भिन्न था। इन लोगों को भी अलग-अलग वक़्त में पलायन करना पड़ा। आज की स्थिति में कुर्दिस्तान का नक़्शा केवल वहां के साहित्यकारों के मन में है। हालांकि कुर्द साहित्य भी काफ़ी पुराना है, मध्यकाल में लिखित कुर्द साहित्य फ़ारसी और अरबी प्रभावित था। 17वीं शताब्दी में अहमद खानी जैसी उल्लेखनीय हस्तियों ने कुर्द कविता के विकास में योगदान दिया।
19वीं शताब्दी कुर्द कविता में राष्ट्रवाद के उदय ने साहित्यिक अभिव्यक्ति को आकार देना शुरू किया। प्रतिरोध और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के विषयों पर ध्यान केंद्रित किया गया और कुर्द लोगों की दुर्दशा को संबोधित किया। 20वीं शताब्दी के मध्य में कुर्द कविता के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियाँ और अवसर आये।
परंपरा और सांस्कृतिक महत्त्व से समृद्ध कुर्द कविता ने कुर्द पहचान और इतिहास के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। विविध भाषाई और सांस्कृतिक प्रभावों से युक्त परिदृश्य से उभरकर, कुर्द कविता सदियों से विकसित हुई है और कुर्द लोगों के संघर्षों, आकांक्षाओं और अनुभवों को दर्शाती है। कुर्द कविता की उत्पत्ति कुर्दों की मौखिक परंपराओं में देखी जा सकती है, जो इस्लाम-पूर्व काल से चली आ रही है। कुर्द कविता के प्रारंभिक रूप मुख्यतः मौखिक थे, जिनमें मिथक, किंवदंतियाँ और लोक कथाएँ शामिल थीं। “डेंगबेज” के नाम से जाने जाने वाले कवि, अक्सर संगीत के साथ, सामूहिक समारोहों में इन आख्यानों का प्रदर्शन करते थे। यह मौखिक परंपरा इतिहास और सांस्कृतिक पहचान के संरक्षण के लिए, विशेष रूप से बाहरी दबावों के बीच, आवश्यक थी।
कुर्द एक राज्यविहीन राष्ट्र हैं। प्रथम विश्व युद्ध और ओटोमन साम्राज्य के विभाजन के बाद, विजयी पश्चिमी सहयोगियों ने कुर्द राज्य की स्थापना के लिए कोशिशें शुरू हुईं लेकिन यह कभी भी स्वतन्त्र देश नहीं बन सकता।
इतनी श्रेष्ठ जनजाति का राज्यविहीन होना आज भी कुर्द लोगों को खलता है। आज भी अनेक कुर्द कवि हैं, जो दूसरे देशों में रहते हुए अपनी अस्मिता के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। कवियों के द्वारा अपनी अस्मिता की लड़ाई नयी नहीं है, लेकिन अजीब ज़रूर लगती है, फिर भी कविता का माध्यम छोड़ा नहीं जाता।

रति सक्सेना
लेखक, कवि, अनुवादक, संपादक और वैदिक स्कॉलर के रूप में रति सक्सेना ख्याति अर्जित कर चुकी हैं। व्याख्याता और प्राध्यापक रह चुकीं रति सक्सेना कृत कविताओं, आलोचना/शोध, यात्रा वृत्तांत, अनुवाद, संस्मरण आदि पर आधारित दर्जनों पुस्तकें और शोध पत्र प्रकाशित हैं। अनेक देशों की अनेक यात्राएं, अंतरराष्ट्रीय कविता आंदोलनों में शिरकत और कई महत्वपूर्ण पुरस्कार/सम्मान आपके नाम हैं।
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