
- May 10, 2025
- आब-ओ-हवा
- 4
कितने अभिन्न लोगों को मैंने चिट्ठियां नहीं लिखीं!
“उसके लिए चिट्ठियां
भाषा के बन्द दरवाज़ों को
खोलती गयीं
दरवाज़ा खुला अधखुला रह गया
बन्द हो गया चिट्ठियों का दरवाज़ा”
तब गांव में घर कम थे। कोयला खदानों का उतना विस्तार नहीं था। इनीगिनी खदानें थीं — जमकुंडा, सुकरी, बड़ियावाली, मोहन कॉलरी। थोड़ा आगे निकल जाओ तो जटाछापर, रावनबाड़ा, और पश्चिम की तरफ़ डुंगरिया और दमुआ। और भी कुछ रही होंगी लेकिन नाम इन्हीं के बजते थे। पोस्ट आफ़िस जुन्नारदेव, चांदामेटा और परासिया में थे। टेलीफ़ोन के बारे में हमें जानकारी न थी। पैंतालीस पार करने के बाद अब बहुत कुछ बदल गया है कि पुराने दोस्तों को ढूंढ़ पाना दूभर है। इतने अधिक नये चेहरे कि पुरानों को पहचानने में दिक़्क़त पेश आती है। जो ढूंढ़ लो तो उन्हें देखते ही गहरा दुख और आश्चर्य। वर्तमान इतना क्रूर कि हंसी मुस्कुराहट बमुश्किल चेहरे पर लौटती। फिर इन वर्षों में संवाद छूट ही गया। चिट्ठी पत्री तभी तक थी कि जब तक नौकरी न थी। शायद नौकरी लगने के एक डेढ़ साल बाद तक। लौटता हूं तो कोशिश होती है कि कोई मिल जाये। शायद अपने ही अकेलेपन को पाटने की कोई जुगत हो यह।
इस बार छिंदवाड़ा के एक मिनी बस से गांव पहुंचता हूं, जो अब तक एक क़स्बा भी नहीं है। बस में उससे भेंट हो जाती है। तब उसकी उम्र अठारह रही होगी। हमसे पांच छह साल अधिक। उसकी नौकरी लग चुकी थी। वह गांव का लाड़ला था। आठवीं तक ही पढ़ पाया था कि घर के हालात ने उसे पढ़ाई छोड़ने पर विवश कर दिया था। गांव में दोपहर से उसकी प्रतीक्षा शुरू हो जाती थी। उसे दफ़्तर से एक साइकिल मिली थी जिस पर चढ़कर रोज़ बीस बाईस मील उसे घूमना होता था। इसमें आसपास के गांव जाना शामिल था। उसकी साइकिल की घंटी पर घरों के द्वार खुल उठते थे। ख़ासकर वे घर जो बाहर से आकर बसे मजूरों के थे। उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र के लोग। वह उनके लिए बहुत से नातों में बंधा था। किसी का भतीजा, किसी का भानजा, किसी का बेटा सा। और जाने क्या क्या। उसे देखकर इच्छा होती थी कि बड़ा होकर उस जैसा बनूं जिसे सब प्यार करें। इन्तज़ार करें। उसकी आहट पर दरवाज़ा खोल दें।
वह उन लोगों तक ‘राज़ी ख़ुशी’ को लेकर आता था। हंसी, मुस्कुराहट, शान्ति और दूरदराज़ के संदेशे। जो मजूर पढ़े लिखे न थे, वह उन्हें पढ़कर सुनाता था। कुछ पंक्तियां अब तक याद हैं — ‘सिद्धिश्री सर्वोपरि जोगलिखी कि प्रभु की कृपा से यहां सब कुशल है। प्रार्थना करते हैं कि वहां भी सब कुशल होवे। इधर इस बरस खेती रिसा (रूठ) गयी है। रमुआ, को निमोनिया हो गया है। दादी की आंखों को चश्मा लगेगा डागदर बाबू कह रहे थे। और सब ठीक है। आप चिन्ता न करें। थोड़ा लिखा ज़्यादा समझना।’ और सान्त्वना देता। और लोग कि उसे पास बिठाते। आशीष देते। कभी कभी वह कुछ घरों तक जाने में ठिठकता। शायद न जाना चाहता। ख़ासकर तब, जब पोस्टकार्ड का कोना फटा होता। लेकिन उसे जाना पड़ता। वह चिट्ठी थमाता। रोना धोना सुनता। अपने को थामता और ढाढ़स बंधाता। पता चला वह अब उसी नौकरी से कुछ विमुख विरक्त लगा। मैंने टटोलने की कोशिश की। कई सवाल पूछे। मानो अपना डाकथैला पलट दिया हो। बातों का सार था कि अब व्यक्तिगत चिट्ठियां इतनी हो गयी हैं कि उन्हें खोजना पड़ता है। व्यावसायिक पत्र ही अधिक आते हैं इन दिनों। पहले वह पत्रों को बांचता था तो उनमें भावना, दर्शन, हंसी ठिठोली मनुहार और रिश्तों की गंध होती थी। अच्छी लिखावट। लिखने वाले का मन पढ़ा जा सकता था। भाषा सीखी जा सकती थी। और इधर कोई अब पत्रों का इंतज़ार नहीं करता। आहट होने पर कोई दरवाज़ा नहीं खोलता। बस कभी कभार दूर के गांवों में जाता हूं तो मन को अच्छा लगता है क्योंकि वहां घर के बाहर चिट्ठी डालने वाले नाम पते के बॉक्स नहीं हैं। वहां चिट्ठियां हाथ में जब देते हैं तो एक रिश्ता होता है। एक भावना। बाक़ी तो हम दरवाज़ों को खटखटाने की जगह चिट्ठियां नीचे से सरका देते हैं या फिर बॉक्स में डाल देते हैं, जिनसे हमारा रिश्ता कबका ख़त्म हो चुका। उसकी आवाज़ में कोई ऐसा दुख था, जिसे मैं समझ रहा था लेकिन असहाय था।
उसके उतरने की जगह या कहें स्टैंड पहले था। वह कुछ कहना चाहता था, जिसे मैं समझ रहा था। मैं उसके साथ उतरा। उसका घर एक कच्ची बस्ती में था। स्टैंड से कोई डेढ़ेक फ़र्लांग। मैं उसके साथ था। उसे अच्छा लगा। घर में पत्नी, दो बच्चे और बूढ़ी मां। पिता खदान की भेंट चढ़ चुके थे। और यह मुझे मालूम न था। यह मेरे लिए एक भारी क्षण था। मुझे कोई पहचान न रहा था। सिवाय उस साइकिल और झोले के जिन्हें मैं बचपन में कई बार छू चुका था। साइकिल टुटही थी। झोला बदल चुका था। मैंने दोनों को निहारा और छुआ। बच्चे मेरे समीप आ गये थे। मैं उनसे मिलने, पहचान क़ायम करने की कोशिश कर रहा था। और मैं उसके इन्तज़ार में था। वह आया। उसके पास एक झोला था। वह पत्रों का बंडल निकाल रहा था। उसे थाम, उसने एक अन्तर्देशीय निकाला और मेरे हाथ में रख दिया। मैंने उसे खोला। तिथि थी 25.7.78। मेरा ही लिखा पत्र था। लिखावट बदली हुई थी। वह शायद कहना चाहता था कि इक्कीस साल हो गये पत्र लिखे। मैं जैसे कठघरे में था। मुझे बस में हुई बातचीत के टुकड़े याद आये। उसका विराग विरक्ति। पत्रों के साथ जुडत्रा उसका जीवन और भीतरी स्तर पर घेर रहा मरण। मरण अक्षरों, पंक्तियों, भावनाओं और उस भाषा का, जो उसे जोड़ती और जीवन देती थी। और उसको भी जो पत्र लिखा, और जो सामने था उसमें हमारे सम्बन्ध की उष्मा खोने की पीड़ा थी। मैंने अनुभव किया कि मेरे भीतर का एक कोना मर चुका है। और उसके कारण जाने और कितने कोने। मैंने याद किया कि कितने अभिन्न लोगों को मैंने चिट्ठियां नहीं लिखीं। मैंने बहुत से दोस्तों, नातेदारों को को सम्बन्ध, भाषा और उसके इतिहास में खो दिया। घर लौटा था तो फ़ोन बज रहा था, जिसे छूते हुए कोई झिझक हुई। फिर मैं बतियाने लगा। वह एक कृत्रिम भाषा थी, जिसमें मैं बोल रहा था।
(वरिष्ठ एवं प्रतिष्ठित साहित्यकार लीलाधर मंडलोई कृत व सद्य: प्रकाशित आत्मकथा ‘जबसे आंख खुली है‘ इन दिनों साहित्य जगत में चर्चा में है। आबओहवा के लिए विशेष रूप से यह पुस्तक अंश प्राप्त हुआ है।)

लीलाधर मंडलोई
वरिष्ठ कवि, लेखक, साहित्यकार एवं साहित्यसेवी। हिंदी के प्रमुख समकालीन कवियों में अग्रणी हस्ताक्षर। लंबे समय तक 'नया ज्ञानोदय' जैसे मासिक पत्र के संपादन के लिए विख्यात। दूरदर्शन में अपनी सेवा के दौरान अनेक फ़िल्मों के निर्माण के लिए भी चर्चित। अनेक पुस्तकों के लेखक और इन दिनों आत्मकथा के लिए चर्चा में।
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भावपूर्ण अंश। बधाई ।
बहुत भावपूर्ण।
उस दौर में लौटने की एषणा जगा गया यह स्मरण।
आत्मकथा तो वैसे ही आकर्षण की अमोघ शक्ति रखती है उस पर बेहद खूबसूरत मर्मस्पर्शी -सा रेखांकन डाकिए का ; पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
बहुत भावपूर्ण।
उस दौर में लौटने की एषणा जगा गया यह स्मरण।
आत्मकथा तो वैसे ही आकर्षण की अमोघ शक्ति रखती है उस पर बेहद खूबसूरत मर्मस्पर्शी -सा रेखांकन डाकिए का ; पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
बहुत मार्मिक और प्रभावशाली लेखन, बधाई अनेक