clouds and a tree
प्रस्तुति: ब्रज श्रीवास्तव (संपादक- गद्य कविता प्रस्तुति)

'बादल' पर 8 समकालीन गद्य कविताएं

             प्रकृति का सबसे ज़्यादा जीवंत उत्सव है बारिश, जो बादलों के बग़ैर मुमकिन नहीं। संभवतः जितना उद्दीपन बादलों और बारिश के मार्फ़त होता है और किसी निसर्ग से नहीं। हमने विभिन्न महत्वपूर्ण कवि मित्रों से बादलों पर केंद्रित रचनाएँ चाहीं तो प्राप्त कविताओं में बरसात पद भी आया, जब बरसात पर कविताएं माँगीं तो प्राप्त कविताओं में बादल पद भी आया। तो इन्हें अलग करना उचित नहीं लगा, पाठक चाहेंगे तो एक कोशिश वे भी करें, इस मशक्कत में ज़ाहिर है आपको सृजन रसिकता का सुख मिलेगा… आइए! डूबिए पाठ की बरसात में और बोध के बादलों का अनुभव कीजिए। (छायाचित्र- भवेश दिलशाद)

clouds and a tree

1
दुख फटता है पगलाए बादल की तरह

सुख हमारे भीतर रिसता है तो महकने लगती है जीवन की बगिया
लोक में अलौकिक चमक पैदा होती है आनंद के उत्सव से

जब बूंदों का संगीत गूंजने लगता है हमारे भीतर
खुशियों की नदियां बहने लगती है कल-कल
और जब वाष्प उठती है तपते दुखों की महासागर की छाती से
इकट्ठा हो जाते हैं घनेरे बादल मन के आकाश में

सच तो यह है कि
सुख बारिश सा लय में बरसता है
दुख फटता है पगलाए बादल की तरह

सुख की बारिश से मुग्ध मनुष्य पर
बिजली गिरने से भी अधिक भयानक होता है
बादल फटने का ख़तरा

बादल सिखा जाता है हमें
अपनी हद में रहने का सबक़
—ब्रजेश कानूनगो, इंदौर

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2
आँगन

खूबसूरत आँगन हूँ मैं
बनाया है मुझे अपने सुन्दर हाथों से धरती ने

अपनी खिलखिलाहट से धूप ने रचा है मुझे चौखूँट
बादलों ने नहलाकर दूर किया है मेरा संताप
रात का तापमान और दिन की आँच
मुझसे अधिक नहीं जानता कोई और

किस बादल में पानी है, कौन है छूँछ
आसमान की तरफ़ निहारते से ही
मालूम हो जाता है मुझे
बारिश का संगीत मुझे है बहुत प्रिय
बच्चे नहाते हैं जब मेरे भीतर भीजते हुए लहालोट
बादल-बदलियों को धन्यवाद कहना नहीं भूला मैं कभी

घुटनों के बल चल-चल कर
बच्चे बनाते रहते हैं मेरी तक़दीर

निहारा है मैंने भर आँख
हवा का साँस होने का सुख
और पानी का घूँट होने का

नगरों-महानगरों ने हटा दिया है अपने घरों से मुझे
आजकल विकट बसाहट का
दुर्लभ अल्पसंख्यक हूँ मैं

अन्न-गन्ध, किलकारी, सिसक, मौन, बादल, बारिश, धूप, वसन्त, शीत, ग्रीष्म, वेदना, संवेदना, करुणा, प्रेम मेरी ही कविताओं के नाम हैं
अपने ही छन्द और बिम्ब-विधान के साथ

मेरे ही आसमान से माँएँ-दादियों ने बच्चों को चिन्हाए हैं इन्द्रधनुष, आकाशगंगा, ध्रुवतारा और सप्तर्षिमण्डल

स्त्रियों के विरल विश्वसनीय क़िस्से
मेरी पोथी ने ही रखे हैं सहेज
मैं ही वह जगह हूँ जहाँ अक्षुण्ण मिलती हैं
आकाश और पृथ्वी की कनबतियाँ

मेघजल, फिर आँगन के जल को
नदियाँ कैसे गंगाजल करती हैं
बरखा के अध्याय में बाँचा जा सकता है इसे
इलाके की भौगोलिक समझ के साथ

सभ्यता जितनी सुदीर्घ है मेरी आयु
यथाअवसर मुकम्मिल पता है मुझे
घर की आवाज़ों का व्यास

खूबसूरत आँगन हूँ मैं
घर की सुख-शान्ति और सुन्दर संतति के लिए
मेरे ही कण्ठ से उठती हैं प्रार्थनाएँ
और उगे हुए मिलते हैं मेरी ही मिट्टी में
बच्चों के स्वप्न, (प्रश्न भी!)
आँगन हूँ मैं सूरज, चाँद, तारों को
घर में आना सिखाया है मैंने
किरनों, बदलियों, गौरैयों, ऋतुओं को प्यार करते घर को
मेरी दिनचर्या और मेरी अहमियत बख़ूबी पता है!

आँगन हूँ मैं सभ्यताओं के घर में मेरी भी धूप है!

—प्रेमशंकर शुक्ल, भोपाल

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3
बदले बादल

बादल अब केवल बरसते नहीं
वे सूचनाएँ ढोते हैं
मोबाइल सिग्नल की तरह,
हर शहर के आसमान में
एक अस्थायी छत बनाते हैं।

अब बचपन की तरह उन्हें देखकर नहीं कहते— “वो देखो हाथी!”
बल्कि सोचते हैं—
क्या मौसम बिगड़ेगा आज
या स्कूल ऑफ़िस का रास्ते पर जाम होगा
वैदर ऐप के एक नोटिफ़िकेशन में समा गये हैं बादल

कभी वे कवि की कविताओं में उतरते थे,
अब कैमरे के फ़िल्टर में समाते हैं
स्टेटस अपडेट में बैकग्राउंड साउंड बन गये हैं बादल

लेकिन फिर भी…
जब अचानक छाँव गिरती है चेहरे पर
और हवा में गीली मिट्टी की ख़ुशबू आती है
तब लगता है कि शायद कुछ पुराना अब भी बाक़ी है
कुछ भीगना अब भी ज़रूरी है।

—दुष्यंत तिवारी, दिल्ली

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4
उलटबांसी

न कजरी की धार,
न छम-छम बूंदों का उपहार
अबके सावन में
धारासर बरसात हुई
बादलों ने ऐसा बदला रंग
भीगे मन, बह गये झोपड़े
बहे बहुमंज़िले मकान
आँसुओं की भयंकर बरसात हुई
अबके सावन
रहा न सावन जैसा
उठा दर्द सीने से
कायनात पर छा गया
रो उठे पहाड़ काले बादलों का
देख दानवी रूप
नदियों में आया क्रोध का उफ़ान

सिखाने को मानव को
उद्यत हुई प्रकृति
बहुत रोया मानव
सीखों की बरसात हुई
प्रकृति से बड़ा नहीं कोई
यह बाँधने की सीख
बहुत खास बात हुई
न कजरी की धार
न बूंदों की छम-छम के उपहार
अबकी काले हाथी बादलों ने
सिखाया,
मानव-घमंड की होती तीखी हार!

—अनिता रश्मि, रांची

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5
झर आते हैं बादल…

अब तो बारिश होती है हर शाम में
यादें सारे तारों-सी हैं
आसमान में
या किसी अदृश्य टहनी पर टंगी-
खिल जाते हैं आसमान में
अब तो बारिश होती है हर शाम में।

अनचाहे ही, एक के बाद एक
गिर जाते हैं दिल के शिखर पर
झर आते हैं बादल जब हर शाम में।

शाम का दीप जलता है,
जलती रहती है बाती
दीये के सीने में।
यादें सब ढूंढते रहते हैं बाती-सा
जल जाने के लिए वक़्त बेवक़्त,
तुलसी चौरा की बेदी पर
या किसी की आंखों के काजल के धार सहित
या फिर धीरे-धीरे निशब्द
मिट जाने के लिए किसी अभेद्य अंधकार में
झर आते हैं बादल जब हर शाम में।

लौटता है बादल फिर भी-
लौट जाता है किसी संन्यासी-सा
गंभीरता को लिये,
रात निकल आता है रास्ते पर
अहिंसा का एक अवतार की तरह;
यादें रह जाती है वैसे ही
नींद उजाड़कर आता नहीं कोई
भेज देता है बदले में
अतीत की कोई सतेज कहानी
झर आते हैं बादल जब हर शाम में।

हाथों में हाथ डालकर चलते-चलते
खो जाता है ज़िंदगी की राह पर कोई!
फैलाकर पीछे सारे यादों का चादर;
घटता रहता है सब कुछ
समय भी;
क्षीण होता है आयु काल भी
निःशेष होता नहीं सिर्फ़
अतीत की वह सतेज कहानी
बढ़ता रहता है पन्ने दर पन्ने ही।

यह यादें ही हैं- अंतहीन जीवन में-
जो जीवन भर बनी रहती हैं,
संकलित होने की प्रतीक्षा में,
अनचाहे ही, एक के बाद एक
गिर जाते हैं दिल के शिखर पर
झर आते हैं बादल जब हर शाम में
झर आते हैं बादल जब हर शाम में

—इप्सिता षड़ंगी, भुवनेश्वर
अनुवाद: हरेकृष्ण दास

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6
अगस्त

एक बादल चुपके से
नमक की बंद शीशी में समा गया

एक बादल चुपके से
घुस गया रजाइयों में

एक बादल चुपके से
फैल गया दीवारों पर

एक बादल जो बरसने से बच गया अदृश्य-सा रहता है
घर के भीतर

चीमड़ मुरमुरों और
मटके की तलहटी में रहते केंचुओं को
वह अक्सर दीख जाया करता है

—हेमंत देवलेकर, भोपाल

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7
एक-एक बूंद जी लेने दो!

जो बूंदें कायनात से ज़मीन पर गिरीं
उसे सृष्टि का अमृतरस कहूँ
या शीतल सौंदर्य की सौगात?
जो हरियाली की परिभाषा लिखती हैं
उसे बरसता हुआ आश्चर्य कहूँ
या प्राणों को बुनता हुआ शिल्पकार?

कैसे लिख दूं कि वर्षाऋतु
आती-जाती हुई, सृष्टि की घटना है
वह क्या जीवन भर उमड़-घुमड़कर
सुख-दुख का रूपक नहीं रचती?
आख़िर कौन बरसता है यादों के एकांत में
मौन मोह के आंसू बनकर?
क्या संगीत रचती हुई वर्षा
पानीदार पृथ्वी पर
जीवन रचने का जादू नहीं?

बूंदों को भर आंखों पी तो लूं
जो मिट-मिटकर जड़ों में जान लाती हैं
मिट्टी में मिलकर आदतन
उसे आदर देती हैं मां होने का!
सांसों के रास्ते फिर-फिर लौटती हैं
हमारे होने का अर्थ बनकर।

बारिश की एक-एक बूंद हमें जी लेने दो
किसी का जी जुड़ाने के लिए
चुपचाप मिट जाने का रहस्य
पता तो चले!

—डॉ. भरत प्रसाद, शिलॉंग

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8
बादल

बादल धरती के सुख दुःख का साथी है
जो दूर क्षितिज पर चूम लेता है
धरती के सुन्दर होंठ
और सजा देता है बालों में सुन्दर
मोगरे के फूल, फुहारों से भीगा देता है
मुरझाया हुआ शरीर, धरती नाच उठती है
बादलों से झरते संगीत से

बुनता है हरी चुनरी धरती के लिए
और ओढ़ा देता है उसके सीने पर
सावन होना धरती के लिए
बादलों का होना भर ही नहीं है
डूब जाना है उसके टटके हरेपन में
और बचा लेना है धरती होने के अर्थ को

इतना ही नहीं कभी जब तेज़ ज्वर से
तप्त होता है धरती का माथा
रूई से उड़ते हुए बादल रख देते हैं
अपने नर्म-नर्म फ़ाहे और उतारते हैं
माथे की पट्टी

धीरे-धीरे ठंडी होती है धरती
और अचेत पड़ी रहती है
बादल के इंतज़ार में

(2)

कपासी बादलों का छाना
संकेत है पृथ्वी पर पानी बचे रहने का
और ये भी कि धरती के सीने में बचा है जीवन
जिससे बची है आदमी के बने रहने की संभावना

बादलों का धीरे धीरे सफ़ेद होना
अर्थ है पेड़ों के काले होने का
और ये भी कि नाराज बादलों ने बंद
कर दिया है अब मटकी भरना
और कुछ दिनों से पेड़ों से बंद है
इनका संवाद

(3)

बादल डाकिये हैं
पहुंचाते है प्रेम-पत्र धरती के
और अपना सारा प्रेम धरती पर उलीचकर
ख़ाली होकर चल देते है
फिर से किसी समुद्र की ओर

बादल जानते है खाली होना
दुनिया का सबसे बड़ा सत्य है
और भरे रहना सबसे बड़ा दुःख

पानी की तलाश में भटका आदमी भी
बादल की तरह कभी नहीं ठहरता
कभी खत्म नहीं होती इस धरती पर
पानी की तलाश

(4)

बादलों का असमय आना
एक भरम है, एक संकेत है अनहोनी का

हर शहर के बादल होते है अलग
दिल्ली में छाये बादलों का रूप मेरे गांव के
बादलों से बिलकुल नहीं मिलता

सीरिया और फ़िलिस्तीन में नहीं छाते हैं
सावन के बादल, जैसे हमारे गांव में
वहाँ बादलों का होना आकाश के लिए
एक अशुभ संकेत होता है
और धरती का हरा आँचल लाल हो जाता है

अभी-अभी गजा में छाये हुए हैं भूरे बादल
जो आँखों में पैदा कर देते हैं जलन
और दृश्य को बना देते हैं अधिक धुंधला
जिनके टकराने से डर रहे हैं बच्चे
और लग जा रहे हैं माँ के सीने से

(5)

कई बार बादलों का आकाश से
नहीं होता है कोई सम्बन्ध
और वाष्पीकरण, संघनन की प्रकिया
इनके लिए नहीं रखती है कोई अर्थ

ये बादल उमड़ते, घुमड़ते हैं
हमारे आपसी सम्बन्धों के बीच
जो कभी बरसते नहीं, बस बारिश का
भ्रम बनाये रखते हुए
दृश्य को धुंधला कर देते हैं

कभी नहीं छटते ये आशंका के घने बादल
और धीरे धीरे घने होकर एक दिन
गिर पड़ते है भरभरा कर हमारे बीच
और बंद कर देते हैं आवाजाही के सारे रास्ते।

—गरिमा सिंह, अयोध्या

ब्रज श्रीवास्तव

ब्रज श्रीवास्तव

कोई संपादक समकालीन काव्य परिदृश्य में एक युवा स्वर कहता है तो कोई स्थापित कवि। ब्रज कवि होने के साथ ख़ुद एक संपादक भी हैं, 'साहित्य की बात' नामक समूह के संचालक भी और राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक आयोजनों के सूत्रधार भी। उनके आधा दर्जन कविता संग्रह आ चुके हैं और इतने ही संकलनों का संपादन भी वह कर चुके हैं। गायन, चित्र, पोस्टर आदि सृजन भी उनके कला व्यक्तित्व के आयाम हैं।

5 comments on “‘बादल’ पर 8 समकालीन गद्य कविताएं

  1. बादल केंद्रित सभी कविताएं अच्छी लगी।विशेषकर,,ब्रजेश कानूनगो,हेमंत जी और अनिता जी की कविताएं बढ़िया लगी।

  2. सभी कविताएं बहुत अच्छी हैं। विषय पर आप खूब लिखवा लेते हैं। श्री बृज श्रीवास्तव जी को ऐसी नवोन्मेष पहल के लिए साधुवाद!

  3. Love all the poems based on Badal and Barsat.
    Loved the poem of Dr Bharat Prasad ji.
    A terrific poem which I had translated into and published too. In Odisha, this poem in translation bagged a lot appreciation.
    Thank you Braj Srivastava ji for placing my poem here.

  4. बहुत सुन्दर मनभावन रचनात्मक सृजन

  5. ऐसी कौन-सी मन:स्थिति है जो बादल में न समाहित हो सके। बहुआयामी बादल शब्द से बहुत व्यापक भाव बोध वाली सुंदर रचनाएँ आईं हैं।
    ब्रजेश कानूनगो, हेमंत देवलकर, अनीता रश्मि और सभी की कविताएंँ बहुत अच्छी हैं।

    “व्यथित हृदय के शून्य में
    चुपके से आ जाता बादल।
    रेतीले मरु ढूह पर
    यादों सा मंँडराता बादल,
    जीवन के कोलाहल में
    झरता है सन्नाटा झर-झर
    ऊपर-ऊपर शुष्क हवाएँ
    भीतर रोज बरसता बादल।।

    शशि खरे

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