
- December 2, 2025
- आब-ओ-हवा
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पुस्तक चर्चा विवेक रंजन श्रीवास्तव की कलम से....
आज की सियासत पर ज़बरदस्त कटाक्ष 'बागेश्वर एमएलए'
एक साथ राजनीतिक व्यंग्य, सामाजिक यथार्थ और मानवीय संबंधों की जटिलताओं को छूती कहानी को 38 दृश्य चित्रों में इस उपन्यास में बहुविथ लेखक डॉ. संजीव कुमार ने आम पाठकों के लिए बहुत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। लेखक ने जिस बागेश्वर नामक पात्र को केंद्र में रखकर सारी कथा बुनी है, वह केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि छोटे कस्बों से निकलने वाली उस महत्वाकांक्षा का प्रतीक बन जाता है, जो सत्ता के गलियारों तक पहुँचते‑पहुँचते कई रूप बदलती जाती है।
उपन्यास की कथा एक साधारण से दिखने वाले आदमी बागेश्वर के क्रमशः ऊपर चढ़ने और “माननीय” बन जाने की कहानी है, जिसके साथ‑साथ पाठक को भारतीय लोकतंत्र के ज़मीनी रूप की यात्रा भी करवायी जाती है। शुरूआत में बागेश्वर अपने परिवार, रोज़मर्रा की परेशानियों, स्थानीय नाते‑रिश्तों और आम आदमी के संघर्षों में उलझा दिखायी देता है, पर धीरे‑धीरे उसकी महत्वाकांक्षा, चतुराई और अवसर खोजने की क्षमता सामने आती है। चुनावी दौड़, टिकट की खींचतान, जातीय समीकरण, धनबल और बाहुबल की परतें कथा के एपिसोडिक ढाँचे में रखी गयी हैं, जिससे हर अध्याय किसी न किसी राजनीतिक प्रसंग का छोटा चित्र बन जाता है।
लेखक ने स्थानीय स्तर की राजनीति की विडंबनाओं को हल्के‑फुल्के, पर चुभते हुए अंदाज़ में उकेरा है, जिसमें सभा‑सम्मेलनों के खोखले नारे, ‘जनसंपर्क’ के नाम पर होने वाली दिखावटी संवेदनाएँ और वोटरों की भावनाओं के साथ होने वाला खेल साफ़ दिखायी देता है। बागेश्वर का एमएलए बनना सिर्फ़ उसकी व्यक्तिगत सफलता नहीं, बल्कि उस पूरे सिस्टम की पोल खोलता है जिसमें सिद्धांतों से ज़्यादा महत्व “मैनेजमेंट”, गणित और राजनैतिक जोड़‑तोड़ को दिया जाता है। कथानक में कई जगह पंचायत से लेकर विधानसभा तक फैला भ्रष्टाचार, ठेकेदारी, सरकारी योजनाओं की बंदरबाँट और प्रशासन‑नेता गठजोड़ पर व्यंग्य है, जो पाठक को हँसाते हुए भीतर तक चुभता भी है।
बागेश्वर के साथ‑साथ लेखक ने उसके परिवार, राजनीतिक गुरुओं, पार्टी के स्थानीय नेताओं, विरोधी ख़ेमों और साधारण मतदाताओं के भी जीवंत चित्र खड़े किये हैं। पत्नी और घर‑परिवार के संवादों से उसकी निजी दुनिया झांकती है, जहाँ अचानक बढ़ती हैसियत के साथ घर का माहौल भी बदलता चला जाता है। फ़ोन की रिंग बढ़ती है, मेहमानों की भीड़ बढ़ती है और रिश्ते लाभ‑हानि की कसौटी पर कसे जाने लगते हैं। पार्टी के ‘वरिष्ठ’ नेता, दलाल किस्म के कार्यकर्ता, मीडिया वाले और अफ़सर वर्ग के पात्र मिलकर उस नेटवर्क को बनाते हैं, जिसके भीतर बागेश्वर ख़ुद को ढालता हुआ बढ़ता जाता है, कभी भोला लगकर तो कभी बेहद चालाक बनकर।

किताब की भाषा सरल, बोलचाल के लहजे वाली और स्वाभाविक है, जिसमें कई जगह कस्बाई मुहावरे और व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ पाठक के चेहरे पर मुस्कान ले आती हैं। लेखक ने लंबे भाषणों के बजाय छोटे‑छोटे संवादों, स्थितिजन्य हास्य और बारीक विवरणों के ज़रिये कौतुहल भरा माहौल रचा है, जैसे चुनावी प्रचार की आपाधापी, रात‑रात भर चलने वाली बैठकों, गुटबाज़ी और ‘संख्या संतुलन’ की चिंता को दृश्यात्मक अंदाज़ में वर्णित किया गया है। कथा में आगे बढ़ने की प्रवाही गति है। घटनाएँ इस तरह रखी गयी हैं कि पाठक लगातार उत्सुक बना रहे कि अगला मोड़ बागेश्वर को कहाँ ले जाएगा। सिद्धांतों की ओर या समझौते की ओर।
निहित प्रश्न और संदेश स्पष्ट
उपन्यास सिर्फ़ यह नहीं दिखाता कि बागेश्वर कैसे एमएलए बनता है, बल्कि यह भी पूछता है कि समाज किस तरह ऐसे नेताओं को गढ़ता और स्वीकार करता है। मतदाताओं की उम्मीदें, उनकी आसान‑सी नाराज़गियाँ, जाति‑समुदाय के नाम पर टूटती‑बंटती वफ़ादारियाँ और नोट‑शराब से प्रभावित होने वाला वोट व्यवहार, ये सब मिलकर लोकतंत्र के वाजिब नैतिक सवाल खड़ा करते हैं। प्रश्न है कि दोष केवल नेता का है या उस पूरी व्यवस्था और मानसिकता का होता है, जो व्यक्ति को ऊपर उठाकर नेता बनाती है।
अंततः यह संकेत है कि बदलाव केवल ‘ऊपर’ से नहीं आएगा, जब तक आम लोग अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी नहीं पहचानेंगे, तब तक हर बागेश्वर किसी न किसी रूप में समझौतों से एमएलए बनता ही रहेगा। इस तरह “बागेश्वर एमएलए बन गया” समकालीन भारतीय राजनीति पर एक प्रवाही, मनोरंजक और चिंतनशील टिप्पणी बनकर सामने आती है, जो हल्के व्यंग्य की चादर में लिपटी होते हुए भी पाठक को गंभीर सवालों से सामना करवाती है।

विवेक रंजन श्रीवास्तव
सेवानिवृत मुख्य अभियंता (विद्युत मंडल), प्रतिष्ठित व्यंग्यकार, नाटक लेखक, समीक्षक, ई अभिव्यक्ति पोर्टल के संपादक, तकनीकी विषयों पर हिंदी लेखन। इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स के फैलो, पोस्ट ग्रेजुएट इंजीनियर। 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। हिंदी ब्लॉगर, साहित्यिक अभिरुचि संपन्न, वैश्विक एक्सपोज़र।
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