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भवेश दिलशाद की कलम से....

बिहार: जनादेश या धनादेश या...

             क्रिकेट में वो वाक़या याद तो होगा, जब भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच चल रही शृंखला उस विवाद के लिए यादगार हो गयी थी, जब अंपायर पर भेदभावपूर्ण रवैये के आरोप लगे थे। अंपायर की करतूतों के बावजूद भारत ने मैच खेलना जारी रखा था। दलील थी स्पोर्ट्समैन स्पिरिट। बात समझ में आती है। पर क्या लोकतंत्र खेल का मैदान है? चुनाव क्या कोई मैच है, जहां अंपायर का पक्षपाती होना भी चलता है? या जिस टीम का मैदान है, वहां नियम-क़ायदे सब ताक़ पर रखकर खेल हो और आपकी मजबूरी हो कि आपको खेलना ही है?

विपक्ष लगातार कितने आरोप लगा रहा था, ग़ौर कीजिए — चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं है, पूरा सिस्टम एक पार्टी का पक्षधर है, धड़ल्ले से पैसा बांटा जा रहा है, कमेंटेटर यानी मीडिया सत्ता का ज़रख़रीद ग़ुलाम है, ईवीएम प्रणाली पर पूरा विश्वास नहीं, सरकार की पूरी मशीनरी सत्तासीन गठबंधन की कार्यकर्ता है… अब बताइए, ऐसे में कौन-सी स्पिरिट थी कि आप अन्याय का बहिष्कार करने के बजाय उस मुक़ाबले में एक टीम थे, जिसे आप ख़ुद ‘फ़ेक गेम’ कहते रहे।

एक वक़्त था जब चुनाव के दौरान पैसा बांटना बड़ी ख़बर भी हुआ करता था और बड़ा अपराध भी। काग़ज़ों पर, क़ानूनों के मुताबिक़ अब भी चुनाव के समय कैश या उपहार की पेशकश करना, वोटरों को ललचाने के लिए ऐसी सामग्री बांटना अपराध है। 1 साल जेल से लेकर उम्मीदवारी रद्द किये जाने और अगले कुछ सालों के लिए चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाये जाने जैसे नियम-क़ायदे अब भी हैं। लेकिन ऐसे मामलों में ज़ियादातर शक्ति चुनाव आयोग के पास ही है। अब आप चाहें तो हंसें कि चुनाव आयोग ही जब निष्पक्ष न हो, तो ये क़ानून किस काम के! ये ऐसा मामला है कि एक टीम के लिए नियम है कि हवा में खेले हर शॉट को छक्का क़रार दिया जाये और बाक़ी टीमें छक्का भी मारें तो आउट क़रार दे​ दिया जाये…

बिहार चुनाव नतीजों का समाजशास्त्र

दरअसल यह हमारे सामाजिक पतन का साफ़-साफ़ नमूना है कि आपराधिक तौर-तरीक़ों को हमने ‘न्यू नॉर्मल’ मान लिया है। समाज इतना लिजलिजा है कि प्रजा और तंत्र दोनों का मज़ाक़ बनना सिवाय मनोरंजन के अब कोई मुद्दा नहीं है।

तो, बात है बिहार चुनाव की। शुरू से ही चुनावी प्रक्रिया पर उंगलियां उठाने के बाद भी सबने चुनाव लड़ा। चुनाव परिणाम पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया रही कि यह जनादेश चौंकाने वाला है। पार्टी इस नतीजे की पूरी समीक्षा करने के बाद पूरा सच सामने लाएगी। इधर, पहला चुनाव लड़ी जन सुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर ने ताल ठोककर कहा कि नीतीश व भाजपा का गठबंधन पैसे के दम पर चुनाव जीता है। वोटिंग से ऐन पहले बिहार की बड़ी आबादी के खातों में पैसे भेजे गये। प्रशांत और उनकी पार्टी यह दावा तक कर रही है कि पूरे चुनाव में एनडीए ने 40 हज़ार करोड़ रुपये वोटरों को लुभाने के लिए लुटाये। अगर इसमें आधी भी सच्चाई है तब भी यह बड़ा खेल है, तंत्र से इसका हिसाब मांगने के लिए प्रजा सड़क पर नहीं आती है, तो काहे का लोकतंत्र!

ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ़ बिहार चुनाव में ऐसे हथकंडे अपनाये गये हों। कई राज्यों के चुनावों में सरकारी योजनाओं के नाम पर वोटरों के बैंक खातों में वोटिंग से ऐन पहले रक़म पहुंचना पिछले कुछ सालों में हुए चुनावों में आम रहा है। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री स्तर तक के नेता चुनावी रैलियों में वोटरों को लुभाने के लिए ऐसी रक़म को लेकर घोषणाएं खुलेआम करते रहे हैं।

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प्रजा सस्ते दामों पर बिककर विलुप्त हो चुकी है, भय का तंत्र ऐसा है कि किसी भी संस्था में अब सुनवाई मुश्किल है। सबको सब दिख रहा है, पर सब अंधों की तरह बस ताली और थाली पीटने को ही परम धार्मिक कर्तव्य माने बैठे हैं।

अब इस जनादेश को क्या नाम दें?

ऊपर जो कुछ लिखा है, वह कोई व्याख्या या विश्लेषण नहीं, सिर्फ़ आईना रखना है। जो कुछ हुआ, सबने देखा सिर्फ़ वही यहां बताया गया है। इस आईने में जो कुछ दिखा, मीडिया के कैमरों में जो कुछ नहीं दिखा और विपक्ष ने जो कुछ दिखाना चाहा, उसके मद्देनज़र क्या इस जनादेश को धनादेश कहना वाजिब नहीं है!

दरअसल यह चुनाव है ही ​कहां! खुलेआम वोटों की मंडी सजी है और ख़ज़ाने की चाबी जिसके हाथ में है, ज़ाहिर है उससे बड़ी बोली किसकी होगी! इन तमाम बातों के बावजूद जिसका शोर ज़ियादा है, उस मीडिया ने तो कार्टून और मीम्स भी वही चलाये, जो विपक्ष का मज़ाक़ उड़ाते हैं। हालांकि मज़ाक़ उड़ा तो उसी का।

धनादेश के अलावा इन चुनावी नतीजों के लिए ‘ज्ञानादेश’ विशेषण का भी इस्तेमाल किया गया है। किसान नेता व समाजवादी पार्टी के टिकट पर पहले चुनाव लड़ चुके डॉ. सुनीलम ने एक वीडियो जारी करते हुए कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टी के सुर में सुर मिलाते हुए यह विशेषण गढ़ा। उन्होंने कहा, जिस तरह देश के मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने भाजपा और जदयू वाले गठबंधन यानी एन.डी.ए. की तरफ़ से चुनाव लड़ा है, उसे देखते हुए इसे जनादेश नहीं बल्कि ज्ञानादेश कहना ही ठीक होगा।

क़िस्सा-कोताह, पूरे विपक्ष को, अगर दावों में दम था, सच था तो इस चुनाव का शुरू से ही बहिष्कार करना चाहिए था। यह कोई क्रिकेट मैच नहीं था कि टिकट बिक चुके थे इसलिए आपको खेलना ही पड़े या न खेलने पर आपकी मैच फ़ीस कटे। इस चुनाव का बहिष्कार करके पूरा विपक्ष एक बड़ा जन आंदोलन खड़ा करने का रास्ता खोल सकता था। चुनावी प्रक्रिया की ईमानदारी पर गंभीर आरोप लगाने वाले विपक्ष को एकजुट होकर सड़क पर आकर लोकतंत्र को एक सस्ते मनोरंजन वाला खेल होने से बचा लेना चाहिए था। पर अब शायद देर हो चुकी है। डॉ. सुनीलम ने वीडियो में कहा तो है चुनाव परिणामों का बहिष्कार किये जाने को लेकर विपक्षी दलों से बात की जा रही है। पर अब क्या जब चिड़िया चुग गयीं खेत!

वैसे, यह भी ठीक से दर्ज किया जाना चाहिए कि पहले होते रहे चुनावों के उलट विपक्ष ने इस बार जनादेश को सिर झुकाकर स्वीकार नहीं किया है। किसी ने साफ़ शब्दों में इसे जनादेश कहा तक नहीं है। सभी को इस परिणाम से कोई न कोई बड़ी शिकायत है ही। यह चुनाव परिणाम न केवल तंत्र बल्कि लोक, जन और प्रजा कहे जाने वाले भारतीय समाज की छवि को कठघरे में खड़ा कर रहा है और यह मामूली बात नहीं है।

(कार्टून सोशल मीडिया से साभार)

भवेश दिलशाद, bhavesh dilshaad

भवेश दिलशाद

क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।

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