tribals painting
भवेश दिलशाद की कलम से....

किताबें, सिनेमा और आदिवासी दिवस

           कश्मीर में प्रशासन ने 25 किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया। 2019 से यहां कई तरह के प्रतिबंध चल ही रहे हैं। इंटरनेट कितनी बार प्रतिबंधित किया गया? एक वक़्त के बाद तो मीडिया ने यह गिनती ही छोड़ दी। ऐसे कई मुद्दे सुर्ख़ियों से हटाये गये क्योंकि बिक नहीं पा रहे थे। पिछले कुछ समय में मीडिया की नाकामी ने एक बहुत यादगार अवसर बनाया, लेखकों और फ़िल्मकारों के लिए। कलाकारों के​ लिए भी।

मीडिया जब नाकाम हुआ, तब फ़िल्मकारों ने इस तरह का समकालीन सिनेमा रचा, जो एक पूरी घटना का दस्तावेज़ीकरण करता है। ऐसा रंगमंच भी सामने आया और ऐसे लेखक भी, जिन्होंने निजी स्तर पर किसी ज्वलंत मुद्दे को फ़िक्शन या नॉन फ़िक्शन के रूप में दर्ज किया। ऐसी दो दर्जन किताबों को कश्मीर के गवर्नर प्रशासन ने बैन कर दिया है। किताबों पर बैन इन मायनों में सकारात्मकता भी दे रहा है कि किताबों का डर अभी बाक़ी है।

कश्मीर में असल में वही मॉडल काम कर रहा है, जो दिल्ली में कुछ समय पहले तक था। मतलब मुख्यमंत्री और राज्य सरकार को प्रभावहीन और प्रभहीन करने के लिए एक लेफ़्टिनेंट गवर्नर का प्रशासन सिर पर बैठा हुआ है। कश्मीर के लेफ़्टिनेंट गवर्नर भारतीय जनता पार्टी के नेता मनोज सिन्हा हैं। उनके प्रशासन ने प्रतिबंध का एक बड़ा कारण यह बताया है ​कि ये किताबें कश्मीर को ग़लत नैरैटिव से पेश करती हैं।

कश्मीर में किताबों पर प्रतिबंध सुर्ख़ियों में है और इधर, 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस भी चर्चा में आया। झारखंड में उस किताब की याद भी ताज़ा हो आयी, जिसे यह कहकर प्रतिबंधित कर दिया गया था कि आदिवासियों को ग़लत ढंग से पेश किया गया। संथाल समुदाय की​ स्त्रियों के प्रस्तुतिकरण को आपत्तिजनक कहकर तत्कालीन मुख्यमंत्री और भाजपा नेता रघुबर दास की सरकार ने यह प्रतिबंध लगा दिया था।

हांसदा सोवेंद्र शेखर की किताब ‘आदिवासी विल नॉट डान्स’ पर चार महीने तक यह प्रतिबंध रहा। हांसदा को सरकारी सेवा से निलंबित भी किया गया। फिर लेखक और बौद्धिक समुदाय ने इसे दमनकारी रवैया बताया और सरकार के इस क़दम की आलोचना की। हुआ यह कि सरकार ने कमेटी वग़ैरह बनायी और चार महीने बाद किताब से प्रतिबंध हटा लिया। उसके कुछ दिन बाद हांसदा की सेवा भी बहाल कर दी थी।

दरअसल हांसदा ख़ुद संथाल समुदाय से आते थे इसलिए ये आरोप बेबुनियाद साबित होने ही थे। लेकिन एक फ़िल्म पर ये आरोप अनुचित कैसे साबित होते! 2015 में आयी फ़िल्म ‘एमएसजी-2’ पर आदिवासियों को ‘असभ्य’ और ‘दुष्ट’ जैसी छवि में दिखाये जाने के ख़िलाफ़ एक बड़ा वर्ग लामबंद हुआ तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड में इसे बैन किया गया। इस फ़िल्म के निर्माता, निर्देशक व स्टार के रूप में वही राम रहीम परदे पर आया था, जो इन​ दिनों इसलिए चर्चा में है क्योंकि बलात्कार व हत्या जैसे मामलों में सज़ा काटने के बावजूद उसे बार बार पैरोल मिल जाती है।

फ़िल्में, किताबें, कविताएं, विमर्श और उत्सवी आयोजनों के बीच इस साल का आदिवासी दिवस बीत रहा है। और मुझे ‘आदिवासी’ शब्द से अनेक प्रतीक बुला रहे हैं। शैलचित्रों से लेकर दशरथ मांझी के जज़्बे तक बहुत कुछ। वही संवाद याद आ रहा है, जो कई मौक़ों पर याद आता रहा है। भाषा के लिहाज़ से तो यह संवाद एक नया विचार देता ही है, आदिवासी होने के अर्थ के रहस्य और आदिबल को भी रेखांकित करता है। ‘न्यूटन’ फ़िल्म का यह संवाद:

— आप बड़े निराशावादी हैं सर
— और आप
— मैं तो आशावादी हूं
— और आप मलको जी?
— … मैं आदिवासी हूं।

सात-आठ बरस पहले, जबसे यह संवाद सुना था, तबसे मुझे यही लगता रहा है कोई भी ‘वादी’ होने से बेहतर है आदिवासी होना। संपूर्ण और विस्तृत अर्थों में।

भवेश दिलशाद, bhavesh dilshaad

भवेश दिलशाद

क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।

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