
- May 3, 2025
- आब-ओ-हवा
- 2
आइए, खोजें कोई 'हलगाम'
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है
जन्नत कहा जाता है कश्मीर को। बनाया जाता है जहन्नुम। दूर की बांसुरी सुनायी ही नहीं देती। शेष भारत कितना जानता है कश्मीर, कश्मीरियत! कुछ काले अक्षर, कुछ रंगीन तस्वीरें देखकर क्या सब समझ सकते हैं? क्या कुछ इलाक़ों में तफ़रीह करके, सेल्फ़ियां या वीडियो बनाकर वहां का जानकार हुआ जा सकता है? हर जन्नत के भीतर एक जहन्नुम होता है। और कमबख़्त ज़िंदगी कि हर जहन्नुम में से एक जन्नत की गुंजाइश भी नहीं मरती।
हिंसा, ग़ुस्सा, संवेदना, दर्द, नफ़रत, अविश्ववास, अमन के पैग़ाम, पर्यटन की दावत, पाकिस्तान कनेक्शन, पानी रोकना, सेना की मुहिम और एक जंग के मुहाने तक… पहलगाम में हमले के बाद क्या-क्या हुआ, सब जानते हैं। प्रतिक्रियाएं बहुत हैं, लेकिन क्रिया? जहां से हम पूरा सच समझ पाने की स्थिति में नहीं हैं, उस दूरी से एक क्रिया हो सकती है इरादा करना कि हम ख़ुद को वहशी न होने देंगे। एक यह कि हम ख़ुद को जाहिल न होने देंगे, यह भी कि ख़ुद का क़ातिल न होने देंगे..
“सनोबर हसन ने अपनी पसंदीदा जगहों की तरफ़ इशारा किया: ‘निशात, जब कश्मीर से प्यार हुआ तब अकबर ने बनवाया था; अवंतिपुरा के खंडहर; राजा ललितादित्य का सूर्य मंदिर। यह हमारी विरासत है; हम इसकी हिफ़ाज़त क्यों नहीं कर सकते? जब हम अपने बच्चों को इतिहास पढ़ाते हैं, तो यह क्यों नहीं?… हमारा इकलौता इतिहास हिंसा ही तो नहीं है।” यह अंश Desiccated Land (सूखी ज़मीन): An American in Kashmir का है। एक विदेशी पत्रकार डेविड ने कश्मीरियत खोजनी चाही तो कश्मीरियों से संस्कृति व कलाओं की आब-ओ-हवा का जायज़ा लिया।
डेविड ने एक संदर्भ शौकत काठजू की ज़ुबानी दर्ज किया: “संघर्ष के कारण, संस्कृति के अर्थ केंद्र अपने ढंग से समझा रहा है। सिर्फ़ डल झील और ‘धरती पर स्वर्ग’ की थ्योरी भर कश्मीरियत नहीं है। सच यह है कि शिल्प और पर्यटन संबंधी कारीगर उद्योग भर बचे हैं जबकि ललित कला और संगीत मुरझा गये हैं। यह शायद इकलौता ऐसा राज्य है जिसका अपना इतिहास कभी उसके स्कूलों में नहीं पढ़ाया गया। कश्मीर का इतिहास कोई नहीं जानता, इसलिए अंजाम सांस्कृतिक नरसंहार रहा है।” गूंजते हैं कुछ मिसरे:
मुखौटे अपने चेहरों पर चढ़ाये जाएंगे हम लोग
तो गुम नस्लों के क़िस्सों में सुनाये जाएंगे हम लोग
हमारी सोच, बुनियादें मिटायी जाएंगी पहले
फिर इतिहासों से नक़्शों से मिटाये जाएंगे हम लोग
किसी ने पत्थरों में जां अगर डाली तो क्यूं डाली?
बड़े अफ़सोस और दुख से सुनाये जाएंगे हम लोग
कश्मीरियत क्या है? दूर के सूबों में बैठ ख़याली पुलाव पकाने वालों की रहनुमाई करते हैं रीबिल्ड जेएंडके फ़ाउंडेशन के संस्थापक कृष्ण आनंद के शब्द:
“मेरा परिवार 90 वर्षों से कश्मीर में रह रहा है। हमने घाटी के सबसे ख़ूबसूरत दिन और सबसे अंधेरी रातें देखी हैं। इसके बीच, हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का ताना-बाना क़ायम देखा है। यह है असली कश्मीर जिसे सुर्ख़ियों में शायद ही दिखाया गया। कश्मीर, जहां एक मुस्लिम एक हिंदू संत की समाधि पर दीया जलाता है तो एक कश्मीरी पंडित एक सूफ़ी फकीर के मज़ार पर फूल चढ़ाता है। हमारी रोटियां, हमारा संगीत, हमारी भाषा- सब कुछ घुला-मिला है, साझा लोककथाओं की तरह।”
यही कहना है कि ‘अपना पैग़ाम मुहब्बत है’। फिर कोई पहलगाम न हो, इसके लिए कोई हुक़ूमत या पॉलिटिक्स नहीं, बल्कि हमारा अपना ताना-बाना एक हल हो सकता है। हमें अपने दर्दमंद दिल को जगाना है, भीतर जो मुरझा चुकी है अपनी मां की उस ज़ात को आबाद करना है, इंसान होने की अपनी अज़्मत को फिर जिलाना है..
झकझोरना पड़ेगा ज़मीर-ए-अवाम को
अब कुछ नहीं मिलेगा सियासत को कोसकर
आपका
भवेश दिलशाद

भवेश दिलशाद
क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।
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हार्दिक बधाइयाँ और भवेशजी को दिल से साधुवाद। ❤️
रोचक एवं संग्रहणीय अंक…