
- November 14, 2025
- आब-ओ-हवा
- 0
पाक्षिक ब्लॉग आलोक कुमार मिश्रा की कलम से....
कैमरे की निगरानी में शिक्षा
दिल्ली के सरकारी स्कूलों में कैमरे लगाने की बहुप्रचारित, बहुचर्चित और बहुप्रतीक्षित योजना अब हक़ीक़त के धरातल पर उतरने लगी है। इस योजना के पक्ष-विपक्ष में लेख लिखे जाते रहे हैं। कुछ वर्ष पहले एनसीआर क्षेत्र में हुए प्रद्युम्न हत्याकांड के बाद तो इसके लिए सरकार पर स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के नाम पर एक तरह से दबाव बढ़ ही गया। अपराधी छात्र की शिनाख़्त में उस आलीशान निजी स्कूल में लगे कैमरे की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। हालांकि पहले घटनास्थल पर कैमरा न लगे होने की बात कही जा रही थी और हत्या के जुर्म में स्कूल बस के कंडक्टर को गिरफ़्तार किया जा चुका था। पर केस सीबीआई के पास आते ही अलग तथ्य और अलग सबूत हाथ लग गये, साथ ही कैमरे में क़ैद ख़तरनाक क्षणों का कुछ हिस्सा भी दिखाया जाने लगा। ख़ैर…
यहाँ मैं स्कूलों के शैक्षिक परिवेश में कैमरों की निगरानी के कुछ शैक्षिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभावों पर अपनी बात रखना चाहूँगा। ये प्रभाव एक-दूसरे से जुड़े होते हैं और एक साथ ही प्रकट होते हैं। इस योजना के पक्ष में सबसे ज़्यादा कहे और दुहराये जाने वाले तर्क का संबंध बच्चों की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। माना जाता है कैमरे लगे होने से बच्चों पर हिंसा करने या संकट में डालने वाले व्यक्ति या परिस्थिति तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। पर यहाँ यह बात ग़ौर करने वाली है कि ऐसा घटना घटित होने या शिकायत मिलने के बाद ही संभव होगा। इस प्रकार यह घटना को रोकने में कारगर न होकर घटना घटित होने के बाद उसकी जाँच-पड़ताल और दोषियों की धर-पकड़ में उपयोगी होगी।
अपराध हो जाने के बाद उससे संबंधित साक्ष्य जुटाकर अपराधी को सज़ा और पीड़ित को न्याय दिलाना महत्वपूर्ण तो है पर स्कूलों में इससे भी महत्वपूर्ण है ऐसा माहौल बनाना, जहाँ ऐसी घटना घटित ही न हो। फिर हमारे यहाँ न्यायिक प्रक्रिया में होने वाली लेट-लतीफ़ी साक्ष्य जुटाने में मिल सकने वाली इस सफलता के बावजूद अगली किसी ऐसी ही घटना को रोकने के लिए ज़रूरी भय या प्रेरणा उत्पन्न कर पाएगी, इस पर शक है। अतः इस व्यवस्था में सुधार नागरिकों की सुरक्षा के लिए चिंतित सरकारों की प्राथमिकता होनी चाहिए।
मेरी नज़र में बच्चों के लिए स्कूलों में सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराने में संवेदनशील शिक्षकों/शिक्षिकाओं, जागरूक एवं प्रशिक्षित सुरक्षा गार्डों, अनुकूल भवन संरचना सहित सहज लोकतांत्रिक माहौल का होना बहुत आवश्यक है। ऊपर बताये गये प्रद्युम्न केस में भी यह बात निकलकर आयी थी कि उच्च वर्गीय स्कूल के उस ग्यारहवीं के आरोपी छात्र ने अपनी अधूरी परीक्षा की तैयारी के कारण परीक्षा रुकवाने की मंशा से प्रायमरी कक्षा के प्रद्युम्न की हत्या कर दी। यहाँ मैं अपराध की गंभीरता या भयावहता को कम करके नहीं आंक रहा। किन्तु हमारे परीक्षा केंद्रित स्कूली व्यवस्था में विद्यार्थियों पर पड़ने वाले अवांछित दबाव और ऐसे जटिल माहौल जिसमें बच्चा अपने परिवार या शिक्षक से मन की बात भी साझा न कर पाते हों, करने में भय खाते हों या फिर सुनवाई न होने को लेकर निश्चिंत हों… पर नये सिरे से सोचा जाना चाहिए। ऐसा माहौल बच्चों की झुंझलाहट और चिंता को बढ़ाता है और उन्हें ग़लत राह पर ढकेल देता है। बच्चों को सुने जाने, मनोवैज्ञानिक सलाह पाने और स्वयं की कमियों को सुधारने के अवसर मिलने से ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता है।
कैमरे लगाने के पीछे का एक महत्वपूर्ण तर्क सरकारी स्कूलों की उस मज़बूत छवि से भी जुड़ा है जिसमें यह बात गहरे तक बैठी हुई है कि यहाँ के शिक्षक अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभाते या कामचोर होते हैं। हालांकि इसकी पुष्टि किसी शोध या सरकारी रिपोर्ट में आज तक नहीं हुई है। कभी-कभी मीडिया में कुछ शिक्षकों द्वारा बच्चों की पिटाई किये जाने संबंधी जो खबरें आती हैं, वह इस नकारात्मक छवि को और पुख़्ता करती हैं। सरकारी स्कूलों की दुर्दशा के पीछे तमाम शासकीय-प्रशासकीय एवं नीतिगत कारकों की भूमिका है, पर सारा दोष शिक्षकों के सर मढ़ देने की चलताऊ समझ ही आम जन-मानस में हावी दिखायी देती है। कैमरे इस समस्या को दूर करने में मददगार होंगे, यह समझ प्रशासन से लेकर आम जन तक स्वीकृत है। यद्यपि केन्द्रीकृत नियंत्रण और निरीक्षण से मनचाहा परिणाम प्राप्त कर लेने की इस औपनिवेशिक समझ की सीमाएं हर क्षेत्र में पहले ही उजागर हो चुकी हैं। भले ही, सरकार द्वारा इस योजना के पक्ष में यह तर्क व्यक्त न किया गया हो या फिर बहुत दबे स्वर में इसे स्वीकारा गया हो, पर पदसोपान पर आधारित शिक्षा की प्रशासनिक व्यवस्था में निम्नतर स्थान पर खड़े स्कूलों के लिए इसका प्रयोग इन्हीं अर्थों में होने की संभावनाएं अधिक हैं। नियंत्रण- निरीक्षण की यह व्यवस्था न केवल श्रेष्ठता के दंभ और अविश्वास पर टिकी है अपितु इसी को पल-पल बढ़ाती है। कैमरा इसमें तकनीकी योगदान देकर इसे और मज़बूत ही बनाएगा।
गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था के निर्माण की अपनी नीतिगत प्रतिबद्धता के तहत दिल्ली सरकार ने हाल के दो-तीन वर्षों में कई बदलावों व सुधारों की शुरूआत की है। बच्चों के अधिगम स्तर में सुधार के लिए चुनौती कार्यक्रम और मिशन बुनियाद, शिक्षण प्रशिक्षण के तौर-तरीक़ों में बदलाव, संविदा आधारित अतिथि शिक्षकों के वेतन में वृद्धि, मेंटर-टीचर नियुक्ति, आधारभूत संरचना के विकास जैसे कई क़दमों से कुछ ज़मीनी बदलाव दिखायी दिये हैं। इन बदलावों को देश-दुनिया में चर्चा भी मिली है। अभी इस क्षेत्र में काफ़ी काम किया जाना बाक़ी भी है। कैमरे लगाने की योजना को भी इस गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक बदलाव का हिस्सा बताया जा रहा है। ऐसे समय में जब स्कूलों में काम करने वाली जनशक्ति का ज़रूरत से कम होने के कारण मौजूद लोगों पर पहले से ही अतिरिक्त कार्य का शारीरिक और मानसिक दबाव हो, सख़्त निगरानी तंत्र इसमें मनोवैज्ञानिक इज़ाफ़ा ही करेगा। इसके लिए सरकार को बड़े पैमाने पर स्थाई भर्ती प्रक्रिया शुरू करने की ज़रूरत पहले है। जॉब सुरक्षा, पर्याप्त पदों की प्रतिपूर्ति अतिरिक्त दबाव को कम करके अधिक सकारात्मक परिणाम दे सकती है। पर बिना इन्हें बदले इस तरह के दबाव का बढ़ना कुंठा और तनाव में इज़ाफ़ा ही करेगा।
समाचार पत्रों में छपी इससे संबंधित ख़बरों में यह भी बताया गया है कि कैमरे लग जाने के बाद अभिभावक घर बैठे यह देख सकेंगे कि उनका बच्चा कक्षा में क्या कर रहा है, पढ़ रहा है या नहीं, शिक्षक पढ़ा रहा है या नहीं? आदि। हमारे देश में बच्चों की इच्छा, उनकी राय या निजता को वैसे भी कभी महत्त्व दिये जाने की परंपरा नहीं रही है। कैमरे की प्रतिक्षण निगरानी इसे और मज़बूत ही बनाएगी। कक्षा में सिर्फ़ औपचारिक शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया ही न चलकर बहुत सारी अनौपचारिक अन्तःक्रियाएँ भी संपन्न होती हैं। बहुत-सी ऐसी बातें, जिन्हें सामंती मूल्यों से लैस हमारे समाज में बच्चे अपने बड़ों से नहीं पूछ या कर सकते, उसे अपने साथी से साझा करते हैं। उनकी किशोरवय प्रवृत्तियों का वयस्कों की दुनिया से मेल नहीं होता है। इसमें वयस्कों के संवेदनशील निर्देशन, सलाह व सहज साझेदारी से ही सामंजस्य बनाया जा सकता है और अपेक्षित बदलाव लाये जा सकते हैं। पर अभिभावकों, प्रधानाचार्य, शिक्षकों की यह अतिरिक्त कैमरा आधारित निगरानी उनकी इस सामाजिक स्वायत्तता को छीनकर उन पर अनचाहे व ग़ैर-ज़रूरी दख़ल को बढ़ाएंगे।
कुछ स्थितियों में तो यह शिक्षक की परेशानी को भी बढ़ा सकती है। यदि शिक्षक का प्रधानाचार्य से किसी बात पर मतभेद या मनमुटाव हो और प्रधानाचार्य बदले की भावना में कैमरे से शिक्षक की प्रत्येक कक्षाई गतिविधि पर नज़र रखकर कमियां ढूँढ़ने में लग जाये, तो फिर यह अनावश्यक वर्चस्व और तनाव का ज़रिया भी बन जाएगा। अभिभावकों की शिक्षण पैडागाजी पर संभावित सीमित समझ या अधिकारियों व प्रधानाचार्य की इस पर मत-भिन्नता को आधार बनाकर ही शिक्षक को प्रश्नों के घेरे में खड़ा करना आसान काम बन जाएगा। ज़ाहिर है कि ग़ैर-ज़रूरी दख़ल व पूछताछ सिर्फ़ स्वायत्तता हनन ही नहीं करते बल्कि रचनात्मकता को भी सीमित करते हैं। दबाव पूर्ण वातावरण नवोन्मेषी बनने या लीक से हटकर चलने को बढ़ावा न देकर बस काम पूरा करने, उच्चाधिकारियों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की भावना को मज़बूत बनाएगा।
मेरी नज़र में बड़े पैमाने पर स्कूलों के कैमराकरण की यह योजना शिक्षा व्यवस्था को बेवजह शंका, हस्तक्षेप व वर्चस्व से भरने का काम करेगी जबकि इसे सहयोग, विमर्श, समर्थन जैसे मूल्यों की दरकार है। स्कूल में बच्चों को सुरक्षित माहौल संवेदनशील, जागरूक और प्रशिक्षित शिक्षक ही दे सकता है, कैमरे की निगरानी नहीं।

आलोक कुमार मिश्रा
पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।
Share this:
- Click to share on Facebook (Opens in new window) Facebook
- Click to share on X (Opens in new window) X
- Click to share on Reddit (Opens in new window) Reddit
- Click to share on Pinterest (Opens in new window) Pinterest
- Click to share on Telegram (Opens in new window) Telegram
- Click to share on WhatsApp (Opens in new window) WhatsApp
- Click to share on Bluesky (Opens in new window) Bluesky
