
- October 15, 2025
- आब-ओ-हवा
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नियमित ब्लॉग सलीम सरमद की कलम से....
फ़ासला, भाषा, उद्देश्य और अदम गौंडवी
“गर्म रोटी की महक पागल बना देती है मुझे”
इस वाक्य को मज़लूमों, मुफ़लिसों, रात को थके मांदे दस-बाई-दस के कमरे में गंधाते मज़दूरों, फ़ुटपाथों पर डेरा डाले भिखारियों और उस हर शख़्स का नारा होना चाहिए जो सुब्ह अपने परिवार के लिए रोटी कमाने निकलता है और शाम को घर आते-आते निढाल और भूखा होता है। गर्म रोटी की महक पागल बना देती है… पागल हो जाना और मुंह में पानी आना, इनके बीच एक फ़ासला है, बड़ा, बहुत बड़ा फ़ासला… इसको व्यक्त करने के लिए कोई रूमानियत से लबालब दिल नहीं वो आँखें चाहिए, जिनसे अब रेत झड़ने लगी हो, हक़ीक़त की ठोस सतह पर खड़े वो साबित क़दम चाहिए, जिन्हें सदियों अपनी ज़मीनों से वंचित रखा गया हो। अदम गौंडवी ने ये फ़ासला अपनी आँखों से देखा है और अपने क़दमों से उसे नापा भी है। वो जानते हैं ये फ़ासला अपने-अपने ख़ुदाओं के आगे झुके लोगों को नज़र न आये, इसके लिए निरंतर ध्यान भटकाने की कोशिश कौन कर रहा है-
ये अमीरों से हमारी फ़ैसलाकुन जंग थी
फिर कहाँ से बीच में मस्जिद व मंदिर आ गये
ज़िंदगी दुश्वार है, उफ़ ये गिरानी देखिए
और फिर नेताओं की शोला-बयानी देखिए
मज़हबी दंगों को भड़काकर मसीहाई करो
हर क़दम पे तोड़ दो इंसान के विश्वास को
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुर्सी के लिए जज़्बात को मत छेड़िए
अदम गौंडवी जानते हैं वो कौन हैं, जो रोटी का मसला हल नहीं कर सकते, जो अमीरी-ग़रीबी के फ़ासले को मिटाने की क़ुव्वत नहीं रखते, जिनकी नीयत में खोट है लेकिन अपनी सत्ता बचाये रखने की ख़ातिर धर्मान्ध जनता के मन-मस्तिष्क में सांप्रदायिकता का ज़हर भर रहे हैं।

जल रहा है देश, ये बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है संसद की भाषा देखिए
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूं मर्तबा आला रहे
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छै चमचे रहें, माइक रहे माला रहे
काजू भुने पलेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
दौलत और यश के शौक़ीन, हवा के साथ रहने वाले, सत्ता के चारण-भाट, भ्रष्टाचारियों को ख़ुश करने में व्यस्त दीवाना टाइप गीत गाने वाले भाँड देश की बदहाली नहीं देखते, समाज में फैला हुआ वैमनस्य नहीं देखते, वो बाज़ार की कुटिलता भी नहीं देखते बल्कि वो देशप्रेम का ढोंग रचते हैं, वो बैर को बढ़ावा देने लगते हैं और बाज़ार के साथ लूट में शामिल हो जाते हैं। वो हर बार युवाओं को फुसलाने में कामयाब हो जाते हैं और हर बार अदम गौंडवी अकेले पड़ जाते हैं, फिर भी उनके विरोधी स्वर पूरी ताक़त से अपनी भाषा को पुकारते हैं। ये वही पुकार है जो गांधी की हिन्दोस्तानी भाषा के लिए थी और बुद्ध की प्राकृत भाषा के लिए- काश युवा अदम गौंडवी के साथ रहते और जान पाते-
जो व्यवस्था को बदलने के लिए बेताब थे
क़ैद उनके बंगले में इस मुल्क की रानाई है
जिनके चेहरे पर लिखी है जेल की ऊंची फ़सील
रामनामी ओढ़कर संसद के अंदर आ गये
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये वंदे मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे
अदम गौंडवी की भाषा स्पष्ट, तीखी और तार्किक है, उनके शेरों में वो नाज़ुक ख़याल नहीं है, जिसे शब्दों में मुश्किल से बांधा जाता है। वो कोई ऐसी ख़याल-बंदी भी नहीं कर रहे हैं जिसमें अछूते, अनोखे, काल्पनिक विचार पिरोये जाते हैं। वो बज़ाहिर सीधी, सहज लेकिन भीतरी तौर पर कड़वी उस बात को कह रहे हैं, जिसे बोलने में पसीने छूट जाते हैं। अगर युवा कभी अपनी समझ का प्रदर्शन करे, एक साथ बोलने पर आ जाये तो सदियों से बनायी गयी इस अनाम सत्ता की दावेदारी एक झटके में धुआं हो जाये-
ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसलसल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आप को
टीवी से अख़बार तक गर सैक्स की बौछार हो
फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो
जिस्म क्या है, रूह तक सब ख़ुलासा देखिए
आप भी इस भीड़ में घुसकर तमाशा देखिए
जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिज़ाज
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए
ग़ैरत मरी तो वाक़ई इंसान मर गया
जीने की सिर्फ़ रस्म निभाये हुए हैं लोग
अदम गौंडवी की ग़ज़लों में क़ाफ़िया पैमाई नहीं है, कि जैसे-तैसे तुकबन्दी करके शायर को अपनी ग़ज़ल कहनी है, नहीं… उनका हर शेर हक़ीक़त की ठोस सतह पर खड़ा है और चेतावनी दे रहा है। उन्हें किनायों और इशारों से काम नहीं लेना, वो जिस उद्देश्य से ग़ज़ल का दामन थाम रहे हैं उसमें उनकी भाषा अगर तह-दर-तह खुलने लगे तो समय बीत जाएगा, इससे उनका उद्देश्य कभी पूरा नहीं होगा। उन्हें इसका इल्म है कि समय वाक़ई बहुत बीत चुका है-
भूख के अहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
मानवता का दर्द लिखेंगे माटी की बू-बास लिखेंगे
हम अपने इस कालखंड का एक नया इतिहास लिखेंगे
अंत्यज कोरी पासी हैं हम क्यूंकर भारतवासी हैं हम
अपने को क्यूं वेद में खोजें क्या दर्पण विश्वासी हैं हम
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती है मुझे
पारलौकिक प्रेम का मधुमास लेकर क्या करें

सलीम सरमद
1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।
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