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पाक्षिक ब्लॉग डॉ. आज़म की कलम से....

शायरी की आलोचना पर पहली व यादगार किताब

             यह पुस्तक सर्वप्रथम “शेर-ओ-शायरी” नाम से लिखी गयी थी और 1893 में प्रकाशित हुई थी। इसके तुरंत बाद मौलाना अल्ताफ़ हुसैन “हाली” ने एक विस्तृत प्रस्तावना/प्राक्कथन लिखा, जिसमें काव्य-कला के विभिन्न पहलुओं पर आलोचनात्मक दृष्टि डाली गयी थी। इसमें उन्होंने प्राचीन अरबी सिद्धांतों के साथ-साथ पाश्चात्य आलोचनात्मक सिद्धांतों का भी सहारा लिया। वे मैकाले और मिल्टन के सिद्धांतों से प्रभावित प्रतीत होते हैं। यह पुस्तक “मुक़द्दमा-ए-शेर-ओ-शायरी” के रूप में प्रसिद्ध हुई।

यद्यपि उर्दू भाषा में आलोचनात्मक सिद्धांतों का उल्लेख इससे पहले भी मिलता है, फिर भी यह पुस्तक इस सिद्धांत पर पूरी तरह आधारित पहली पुस्तक मानी जाती है। शायरी कैसी होनी चाहिए? साहित्य केवल साहित्य के लिए नहीं बल्कि साहित्य का सरोकार जीवन से होना चाहिए। शायर की शैली कैसी होनी चाहिए? उसे किन बातों से बचना चाहिए? शायरी का भाव क्या होना चाहिए? कोई अपने कथन को कैसे बेहतर बना सकता है? इन पहलुओं पर विस्तृत चर्चा है। और बताया गया है कि यदि इन सबका ध्यान न रखा जाये, तो शायरी केवल शब्द और समय की बर्बादी है।

इसे उर्दू आलोचना (तनक़ीद) की पहली किताब कहा जाता है, इसलिए अल्ताफ़ हुसैन हाली को उर्दू का पहला आलोचक (नक्क़ाद) भी माना जाता है। इस किताब में आलोचना के सिद्धांत ज़्यादातर पश्चिमी विचारों पर आधारित हैं। उन्होंने इन विचारों को पूरब में भी प्रसार देने की कोशिश की। उन्होंने कविता के कई स्रोतों की चर्चा की है।

इस पुस्तक के दो भाग हैं। पहले भाग में शायरी की परिभाषा, उसकी प्रभावशीलता, उपयोगिता और शब्दों के महत्व को समझाया गया है। आवश्यक शर्तें प्रस्तुत की गयी हैं। दूसरे भाग में अन्य विधाओं की परिभाषा और विशेषताएँ बतायी गयी हैं और उनके मानदंड दिये गये हैं।

आज, सभी जानते हैं कि एक शेर के आंतरिक और बाह्य दो पहलू होते हैं। बाह्य पहलू के लिए छंदशास्त्र का ज्ञान होना ज़रूरी है, जबकि आंतरिक पहलू के लिए कई विशेषताएँ ज़रूरी हैं। “हाली” ने कल्पना, ब्रह्मांड का अध्ययन, शब्दों का चयन या शब्दों की जाँच-पड़ताल को कविता लिखने के लिए ज़रूरी माना है, जबकि सरलता, मौलिकता और जुनून कविता के गुणों के लिए ज़रूरी हैं, जो “मिल्टन” के सरल, रूमानी और भावुक (SIMPLE, SENSUOUS AND PASSIONATE) विचारों का अनुकरण है। “हाली” ने इनके उदाहरण दिये हैं। हालाँकि उनके कुछ विचार इतने पश्चिमीकृत हैं कि वे पूर्वी साहित्य को पूरी तरह से प्रतिबिंबित नहीं करते। विशेष रूप से, उन्होंने ग़ज़ल शैली की कड़ी आलोचना की है और इसे “बेवक़्त की रागिनी” भी कहा है। यह आलोचना वास्तव में ग़ज़ल में नवीनता की शुरूआत का आधार है।

“ग़ज़ल के क्षेत्र का विस्तार किया जाना चाहिए और उसमें प्रेयसी से प्रेम के अलावा सभी प्रकार के प्रेम और मित्रता को शामिल किया जाना चाहिए, और ग़ज़ल में ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए जो खुले तौर पर किसी पुरुष या स्त्री का संकेत देते हों। “कुलाह”, “दस्तार”, “सब्ज़ा खित्ता”, “मेहंदी”, “दुल्हन”, “अरसी”, चूड़ियां, “झूमर” आदि शब्द, अमरदपरस्ती (समलैंगिकता) का भाव, जो ईरान और भारत-पाकिस्तान में प्रचलित हैं, देते हैं उनका भी त्याग किया जाना चाहिए। अगर ये पुराने ज़माने में भी चलते रहे, तो ज़रूरी नहीं कि हम आँखें बंद करके उनका पालन करें।”

उनका मानना था कि सिर्फ़ इश्क़ के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है। अब ग़ज़ल को ज़िंदगी से जोड़ा जाना चाहिए। ज़िंदगी के सभी सरोकार ग़ज़ल में व्यक्त किये जाने चाहिए ताकि ग़ज़ल का दायरा व्यापक हो और यह विधा नवीनता की ओर बढ़े। यह याद रखना चाहिए कि उन्होंने ग़ज़ल के स्वरूप/क्राफ़्ट की आलोचना नहीं की, बल्कि उनमें प्रस्तुत विचारों में नवीनता लाने और उन्हें ज़िंदगी से जोड़ने की बात की।

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उनकी दृष्टि में “मसनवी” सर्वाधिक उपयोगी और व्यापक विधा है। उन्होंने क़सीदा और मर्सिया में सुधार के लिए सुझाव भी दिये हैं। इस प्रकार, उन्होंने उर्दू में पहली बार “नज़री तनक़ीद/सैद्धांतिक आलोचना” की नींव रखी और वे पहले ऐसे आलोचक माने गये, जिन्होंने शिक्षाप्रद विचारों को अत्यंत सुंदर और सुसंगत रूप में प्रस्तुत किया। इस पुस्तक में उन्होंने अनेक कवियों के बारे में अपने विचार भी व्यक्त किये हैं। उन्होंने साहित्य में राष्ट्रीय और भाईचारे के पहलुओं के महत्व पर बल दिया है, अर्थात् उन्होंने इसे केवल मनोरंजन का साधन न बनाकर वस्तुनिष्ठ बनाने की बात की है।

अन्य आलोचकों ने हाली की आलोचना पद्धति पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही दृष्टिकोण प्रस्तुत किये। कलीमुद्दीन ने विशेष रूप से अत्यंत कठोर शब्दों का प्रयोग किया है जिसके लिए वो कुख्यात रहे हैं। वो कहते हैं- “स्रोत विचार उधार, सीमित जानकारी, सतही दृष्टिकोण, औसत समझ और अनुभूति, अपर्याप्त विचार और चिंतन, ढंग ओछा, औसत मन और व्यक्तित्व… यही हाली का संपूर्ण संसार था।”

लेकिन अधिकांश आलोचक उन्हें प्रथम आलोचक के पद पर आसीन करते हैं और यह भी कहते हैं कि “हाली” उर्दू में आलोचना के मूल स्रोत हैं। प्रोफ़ेसर आले अहमद सुरूर कहते हैं- “हाली से पहले, हमारी शायरी दिल की दुनिया थी। हाली ने “मुक़द्दमा-ए-शेर-ओ-शायरी” के माध्यम से उसे एक दिमाग़ दिया। बीसवीं सदी की आलोचना आज भी हाली के उसी मानसिक नेतृत्व के सहारे चल रही है।”

एक नज़र: मौलाना अल्ताफ़ हुसैन “हाली”
हाली एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे। वे एक कवि, लेखक, जीवनीकार और आलोचक थे। इसलिए वे उर्दू साहित्य में सदैव जीवित रहेंगे। वे सर सैयद आंदोलन से जुड़े रहे। सर सैयद के कहने पर उन्होंने प्रसिद्ध पुस्तक “मुसद्दस हाली” लिखी और मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद के साथ मिलकर शायरी की पुरानी शैली को त्यागकर नयी शैली पर ज़ोर दिया। उन्होंने ग़ज़ल की बजाय लोगों को नज़्म की ओर आकर्षित किया। “मुक़द्दमा-ए-शेर-ओ-शायरी” कोई अलग पुस्तक नहीं थी बल्कि यह एक प्रस्तावना थी, जिसे पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया गया।

azam

डॉक्टर मो. आज़म

बीयूएमएस में गोल्ड मे​डलिस्ट, एम.ए. (उर्दू) के बाद से ही शासकीय सेवा में। चिकित्सकीय विभाग में सेवा के साथ ही अदबी सफ़र भी लगातार जारी रहा। ग़ज़ल संग्रह, उपन्यास व चिकित्सकी पद्धतियों पर किताबों के साथ ही ग़ज़ल के छन्द शास्त्र पर महत्पपूर्ण किताबें और रेख्ता से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़ज़ल विधा का शिक्षण। दो किताबों का संपादन भी। मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी सहित अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मानित, पुरस्कृत। आकाशवाणी, दूरदर्शन से अनेक बार प्रसारित और अनेक मुशायरों व साहित्य मंचों पर शिरकत।

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