
- May 3, 2025
- आब-ओ-हवा
- 0
ग़ज़ल तब
ज़फ़र गोरखपुरी
रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी
देख लूँ जी भर के मंज़र आख़िरी
मैं हवा के झक्कड़ों के दरमियाँ
और तन पर एक चादर आख़िरी
ज़र्ब इक ठहरे हुए पानी पे और
जाते जाते फेंक कंकर आख़िरी
दोनों मुजरिम आईने के सामने
पहला पत्थर हो कि पत्थर आख़िरी
टूटती इक दिन लहू की ख़ामुशी
देख लेते हम भी महशर आख़िरी
ये भी टूटा तो कहाँ जाएँगे हम
इक तसव्वुर ही तो है घर आख़िरी
दिल मुसलसल ज़ख़्म चाहे है ‘ज़फ़र’
और उस के पास पत्थर आख़िरी

ज़फ़र गोरखपुरी
5 मई 1935 को जन्मे ज़फ़र ऐसे ख़ुशनसीब शायर हैं जिन्होंने फ़िराक़, जोश, मजाज़ और जिगर जैसे शायरों से अपने कलाम के लिए दाद वसूल की। उनकी विविधतापूर्ण शायरी ने एक नयी काव्य परम्परा को जन्म दिया। उर्दू के फ्रेम में हिंदी की कविता को उन्होंने बहुत कलात्मक अंदाज़ में पेश किया। 29 जुलाई 2017 को इस दुनिया को अलविदा कहने वाले ज़फ़र की शायरी के अनेक संग्रह उर्दू और हिन्दी में आये। बच्चों के लिए भी उनकी दो किताबें मक़बूल हुईं–‘नाच री गुड़िया’ और ‘सच्चाइयां’।
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