
- November 27, 2025
- आब-ओ-हवा
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गूंज बाक़ी... मजरूह सुल्तानपुरी ने पाकिस्तान में एक इंटरव्यू दिया। फिर डॉक्टर हनफ़ी ने एक लेख लिखा और खुलकर कहा कि मजरूह ने बड़बोलापन दिखाया। यह लेख माहनमा 'शायर' (मुंबई) के शुमारे नम्बर छ: जिल्द नंबर 54 में प्रकाशित हुआ। इस लेख पर हंगामा होना ही था, मजरूह साहब ने किताब नुमा के एडीटर के मार्फ़त दिल्ली मे एक मीटिंग रखवाकर प्रसिद्धि प्राप्त लेखकों के साथ हनफ़ी से भेंट की। फिर भी यह बहस बड़ी लम्बी चली थी।
डॉक्टर मुज़फ़्फ़र हनफ़ी का लेख व संबंधित तस्वीर श्री फ़िरोज़ मुज़फ़्फ़र द्वारा प्राप्त, आब-ओ-हवा की प्रस्तुति के लिए लिप्यंतरण एवं शब्दार्थ - ग़ज़ाला तबस्सुम
गुफ़्तगू पर गुफ़्तगू: मजरूह सुल्तानपुरी के इंटरव्यू पर
‘किताब नुमा’ (अगस्त 1985) में ग़फ़्तगू के शीर्षक से मजरूह सुल्तानपुरी का वह इंटरव्यू नज़र से गुज़रा, जो क़ासिम पीरज़ादा और हसन रिज़वी ने मौसूफ़ (जिस शख़्स की चर्चा की जा रही हो) से लाहौर के रोज़नामे ‘जंग’ के लिए लिया था। ‘जंग’ (लाहौर) के अदबी एडिशनों में पहले भी ऐसे दिलचस्प इंटरव्यूज़ छपते रहे हैं। उनकी अफ़ादियत (फ़ायदा) अपनी जगह मुसल्लम है, लेकिन एक म़नफ़ी (नापसंदीदा) पहलू भी मुज़मर (छुपा हुआ) है। आम तौर पर हिंदुस्तान के अदबी रसाइल (पत्र-पत्रिकाएं) और किताबें पाकिस्तान बहुत कम पहुँच पाती हैं और मौजूदा दौर के लिखने वालों में आलमाना इनकसार (नर्म मिज़ाजी) और इंसाफ़-पसंदी की जगह ख़ुद इश्तहारियत (आत्म-विज्ञापन) का रुजहान आम हो गया है। इसलिए पाकिस्तान पहुंचने वाले हिंदुस्तानी शोअरा और अदबा के गुमराहकुन (गुमराह करने वाले) बयानात से पाकिस्तान के आम क़ारी (पाठक) बहुत-सी ग़लतफ़हमियों का शिकार हो सकते हैं।
मिसाल के तौर पर इस तरह के इंटरव्यूज़ में कही गयी बातों से सरहद पार की उर्दू दुनिया को बावर (यक़ीन) कराने की कोशिश की गयी है कि:
- 1. जगन्नाथ आज़ाद हिंदुस्तान से सबसे बड़े माहिर इक़बालियात (इक़बाल का फ़लसफ़ा) हैं। (जगन्नाथ आज़ाद का इंटरव्यू)
- 2. जु़बेर रिज़वी हिंदुस्तान में नयी नस्ल के सबसे अहम शायर हैं (ज़ुबैर रिज़वी का इंटरव्यू)
- 3. इम्तियाज़ अली अरशी की वफ़ात (मौत) के बाद हिंदुस्तान में राशिद हुसैन ख़ान से बड़ा कोई मुहक़क़िक (रिसर्च स्कॉलर) नहीं है। (रशीद हसन ख़ान से इंटरव्यू)
- 4. मज़हर इमाम की तक़लीद (नक़्शे-क़दम पर चलना) में हिंदुस्तान के तमाम मोतबर और अहम शायर आज़ाद ग़ज़ल कह रहे हैं। (मज़हर इमाम से इंटरव्यू)
- 5. राम लाल आज़ादी के बाद हिंदुस्तान के सबसे अहम अफ़सानानिगार हैं। (राम लाल से इंटरव्यू)
- 6. दिल्ली फ़िक्शन सेमीनार वर्कशॉप में इन्तज़ार हुसैन का डंका बजता रहा और हिंदुस्तानी अफ़सानानिगारों की पूरी नस्ल उनसे मुतास्सिर (प्रभावित) है। (जमीलउद्दीन आली का कालम)
यह फ़ेहरिस्त ख़ासी तवील (लंबी) है और हर इंटरव्यू देने वाले ने यह तास्सुर आम करने की कोशिश की है कि वह अपने मैदान में सबसे आगे हैं। अब पाकिस्तान के आम क़ारी को यह कौन बताये कि जगन्नाथ आज़ाद के अलावा भी मुतअद्द (एक से ज़्यादा) लोगों ने इक़बालियात में वक़ीअ (बावक़ार) इज़ाफ़े किये हैं। ज़ुबैर रिज़वी को क़ौसर नाहीद की तरह हिंदुस्तान में भी चॉकलेट शायर तसव्वुर किया जाता है, रशीद हसन ख़ान को हिंदुस्तान में भी मोहम्मद तुफ़ैल (मुदीर नुक़ूश) की मानिंद लोग चलते काम में रोड़े अटकाने वाले मोहक़्क़िक (रिसर्च स्कॉलर) की हैसियत देते हैं, मज़हर इमाम की तक़लीद (नक़्शे-क़दम पर चलना) तो दरकिनार हिंदुस्तान का कोई मोतबर और अहम शायर आज़ाद ग़ज़ल को सिन्फ़-ए-सुख़न (काव्य की विधा) तक तसलीम नहीं करता, हिंदुस्तान में राम लाल के हमक़ामत बहुत से अफ़सानानिगार मौजूद हैं और क़ुर्रतुलऐन हैदर के नज़दीक इन्तज़ार हुसैन अफ़सानानिगार नहीं हिकायत-गो हैं।
महूलहा बाला (उदास करने वाला) इन्टरव्यू में मजरूह सुल्तानपुरी ने साबक़ा (पिछला) ग़लत बयानियों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है मुआमला चूंकि निब्शा ताज़ा (असर डालने वाला) है इसलिए इन सतूर में रोज़नामे ‘जंग’ लाहौर के पढ़ने वालों को असल सूरत-ए-हाल से रूशनास (वाकिफ़) कराने की सई (कोशिश) करता हूँ। हिंदुस्तान में तरक़्क़ीपसंद अदबी तहरीक़ की इब्तदा (शुरूआत) 1935 से हो चुकी थी। बक़ौल ख़ुद मजरूह 1945 में तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन (लेखकों) के मेम्बर बने (यानी पूरी एक दहाई मौसूफ़ ने गोमगू (ख़ामोशी) की क़िफ़्फ़त में गुज़ार दी। इसके बावजूद फ़रमाते हैं:
“जब मैंने तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ में शमूलियत (शामिल होना) इख़्तियार की, तो मैं ग़ज़ल का शायर था, वहाँ जाकर पता चला कि ग़ज़ल का शायर तो शायर ही नहीं। चुनांचे छह-सात साल का अरसा बड़ा हौसला-शिकन (परास्त) दौर था। मैंने ग़ज़ल कही और नक़्क़ाद (आलोचक) का मुंह बंद किया। उस वक़्त तक मेरा कोई साथी न था। न आगे न पीछे कोई रिवायत… हसरत, हाली और शिबली के कुछ अशआर थे। इसके अलावा कुछ न था। मजाज़ की एक-आध ग़ज़ल, जज़्बी का एक शेर…”
हम फ़र्ज़ किये लेते हैं कि यहाँ ग़ज़ल से मजरूह की मुराद तरक़्क़ीपसंद ग़ज़ल है, वरना मीर, ग़ालिब और इक़बाल सभी की आबरू ख़तरे में पड़ जाएगी। अब थोड़ा-सा हिसाब कीजिए तो मालूम होता है 1945 से छह-सात साल यानी 1952 तक तरक़्क़ीपसंद ग़ज़ल हिंद-पाक में बक़ौल ख़ुद सिर्फ़ मजरूह सुल्तानपुरी कह रहे थे (यह और बात कि उनके इकलौते मजमूआ कलाम ‘ग़ज़ल’ के ताज़ातरीन एडिशन में भी महज़ मुट्ठी भर ग़ज़लें शामिल हैं), दूसरी तरफ़ यह 1954 में मोहम्मद तुफ़ैल ने ‘नुक़ूश’ (लाहौर) का ग़ज़ल नंबर शाया (प्रकाशित) किया तो हमअस्र (समकालीन) शोअरा में से जिगर, जोश, फ़िराक़, असर, यगाना, सीमाब, हफ़ीज़, फ़ैज़, अख़्तर शिरानी, ताशीर, हफ़ीज़ होशियारपुरी, अब्दुल मज़ीद सालिक, चिराग़ हुसैन हसरत, सूफ़ी तबस्सुम, एहसान दानिश, साग़र निज़ामी, अख़्तर अंसारी, शाद आरफ़ी, निहाल सिवहारवी, मज़ाज, जज़बी, अहमद नदीम क़ासमी, अब्दुल हमीद अदम, सैफ़ुद्दीन सैफ़, ज़हीर काशीरी क़तील शिफ़ाई और साहिर लुधियानवी की ग़ज़लें तरतीब में मजरूह सुल्तानपुरी से पहले शामिल की गयीं। ग़ज़लगोईयों की इतनी बड़ी नस्ल 1952 से 1954 के दरमियां दो वर्षों में ही वजूद में आ गयी क्योंकि इससे क़ब्ल (पहले) तो बाज़ार में ख़ुद मजरूह तन तनहा (इकलौते) तरक्क़ीपसंद ग़ज़ल की अलम बरदारी (झंडा उठाना) फ़रमा रहे थे।

इस फे़हरिस्त में हमशीर (साथी) शोअरा तो वे हैं, जो अलआला ऐलान (अपने ऐलान में) ख़ुद को तरक्क़ीपसंद कहते थे लेकिन यगाना और शाद आरफ़ी जैसे वे शायर भी, जो तहरीक़ (आंदोलन) से बेज़ारी का इज़हार करते थे, खुले डले (खुलेआम) ग़ैर-रिवायती और ख़ासे तरक़्क़ीपसंदाना अशआर कर रहे थे। ‘नुक़ूश’ के ग़ज़ल नंबर से यगाना के कुछ शेर पेश-ख़िदमत हैं:
बुरा हो पाय-ए-सरकश का कि थक जाना नहीं आता
कभी गुमराह होकर राह पर आना नहीं आता
उम्मीदवार रिहाई क़फ़स-ब-दोश चले
जहाँ इशारा तौफ़ीक़ ग़ायबाना मिला
पड़ चुके बहुत पाले डस चुके बहुत काले
मौज़ियों के मौज़ी को फ़िक्र-ए-निश-ए-अक़रब क्या
लज़्ज़त-ए-ज़िंदगी मुबारकबाद
कल की क्या फ़िक्र, हर चह बादा बाद
जो ख़ाक का पुतला वही सहरा का बग़ूला
मिटने पर भी इक हस्ती बरबाद रहेगी
मेरी नज़र की ख़ता होगी या गुलों की ख़ता
तुम्हारे राज में कांटा ही बरगुज़ीदा सही
क्या ख़बर थी यह खु़दाई और है
हाय मैंने क्यों ख़ुदा लगती कही
‘नुक़ूश’ के ग़ज़ल नंबर से ही, जो 1954 में शाया हुआ था, शाद आरफ़ी के ये अशआर देखिए:
वहाँ बहारों से बाग़बानों की साज़िशें बारवर न होंगी
जहाँ ख़िज़ाँ ने उठा दिया हो सवाल कांटों की आबरू का
वह बाग़बां जो पौधों से बैर रखता है
यह आप ही के ज़माने की बात करता हूं
हो के आज़ाद हुआ अंदाज़ा
जीते वालों को हारा समझें
जहाँ अंधे अदब के पासबां होंगे
वहाँ क्या अर्ज़-ए-जौहर का क़रीना
अपनी मरज़ी से तो आ गये नहीं ख़ुद-रू पौधे
हम ग़रीबों का बहरहाल निगहबां है कोई
मैं अपने लफ़्ज़ वापस ले रहा हूँ
यह रहज़न था मैं समझा रहनुमा है
मैंने दानिस्ता (जान-बूझकर) ये अशआर कम्युनिज़म से इज़हार बेज़ारी (दिलचस्पी ज़ाहिर करना) करने वाले दो शोअरा की उन ग़ज़लों से मुन्तख़ब (चुने) किये हैं, जो 1954 से पहले कही गयी थीं ताकि मजरूह सुल्तानपुरी या उनके हमनवा (दोस्त) यह इल्ज़ाम न रख सकें कि मैदान हमवार (आसान) हो जाने के बाद तमाम शोअरा ने मजरूह की तक़लीद में ग़ज़ल में ग़ैर-रिवायती मज़ामीन (आलेख) और तरक़्क़ीपसंदाना मौज़ूआत (टॉपिक) को नज़्म करने (लिखने) की रविश इख़्तियार कर ली थी। बेगाना और शाद आरफ़ी दोनों मुट्ठी भर ग़ज़लों के नहीं, कुलियात के शायर थे और उनके मजमूओं में ख़ालिस तरक़्क़ीपसंद अशआर का दाफ़र जख़ीरा (बड़ा खजाना) मौजूद है। यही सबब है ख़लीलउर्रहमान आज़मी ने शाद आरफ़ी को कम्युनिज़म से बेज़ारी के बाद सफ़े-बेशतर तरक्क़ीपसंद शोअरा के मुक़ाबले में बेहतर और हक़ीक़ी (सच्चा) तरक़्क़ीपसंद शायर कहा है। आपने देखा कि जिस ज़माने में गै़र-कम्युनिस्ट ग़ज़ल को तक गै़र रवायती और तरक्क़ीपसंद ग़ज़ल कह रहे थे, इस दौर में तरक्क़ीपसंद ग़ज़ल पर मजरूह तन्हा अपनी इजारहदारी (सिर्फ़ एक शख़्स का इख़्तियार) तस्लीम कराने पर मुसर हैं, उसे ताजाहिल आरफ़ाना (जान-बूझकर नादानी ज़ाहिर करना) के सिवा और क्या कहा जा सकता है!
ज़ियादा दूर तक वरद की भी ज़रूरत नहीं, ‘नक़ूश’ के इसी ग़ज़ल नंबर में शामिल फ़ैज़, मजाज़ और जज़्बी की ग़ज़लों का मजरूह की ग़ज़ल से तक़ाबुली नवाज़ (फ़र्क) न किया जाये, तो मजरूह के इस क़ौल का बचकानापन वाज़ेह हो जाता है कि वह ग़ज़ल में फ़ैज़ से छोटे शायर नहीं हैं और उस ज़माने तक मजाज़ ने सिर्फ़ एक तरक़्क़ीपसंद ग़ज़ल और जज़्बी ने महज़ एक तरक़्क़ीपसंद शेर कहा था। मुलाहज़ा फ़रमाएं चारों शायरों के तीन तीन शेर कि मज़मून ज़ियादा तफ़सील में जाने की इजाज़त नहीं देता…
क़फ़स है बस में तुम्हारे, तुम्हारे बस में नहीं
चमन में आतिश-ए-गुल के निखार का मौसम
दर-ए-क़फ़स पर अंधेरे की मुहर लगती है
तो फ़ैज़ दिल में सितारे उतरने लगते हैं
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिलफ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
(फैज़)
सबका तो मदावा कर डाला अपना ही मदावा कर न सके
सब के तो गिरेबां सी डाले अपना ही गिरेबां भूल गये
बहुत कुछ और भी है इस जहां में
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है
न पूछिए मिरी दुनिया को, मेरी दुनिया में
ख़ुद आफ़ताब भी ज़र्रा है, आफ़ताब नहीं
(मजाज़)
शरीक-ए-महफ़िल-ए-दार-ओ-रसन कुछ और भी हैं
सितमगरो अभी अहल-ए-कफ़न कुछ और भी हैं
ए मौज-ए-बला इनको भी ज़रा दो चार थपेड़े हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ां का नज़ारा करते हैं
मिरी रिफ़अतों से लरज़ां कभी मेहर-ओ-माह-ओ-अंजुम
मिरी पस्तियों से ख़ाइफ़ कभी औज-ए-ख़ुसरवाना
(जज़्बी)
और अब ‘मजरूह’ के इन तीन अशआर में तरक़्क़ीपसंदी और रिवायत-शिकनी तलाश कीजिए:
फिर उठ के गर्म करें कारोबार-ए-ज़ुल्फ़-ओ-जुनूं
फिर अपने साथ उसे भी असीर-ए-दाम करें
ये रुके-रुके-से आंसू ये घुटी-घुटी-सी आहें
यूं ही कब तलक ख़ुदाया ग़म-ए-ज़िंदगी निबाहें
दिल-ए-सादा न समझा, सिवाए पाक-दामानी
निगाह-ए-यार कहती है कोई अफ़साना बरसों से
(मजरूह)
मिसालों में पेशकरदा अशआर से और कुछ नहीं तो इतना बहरहाल साबित हो जाता है कि ‘फ़ैज़’, ‘मजाज़’ और ‘जज़्बी’ की इस दौर की ग़ज़लों में भी तरक़्क़ीपसंद रुजहानात नज़र आते हैं और ‘मजरूह’ की ग़ज़लों में रिवायती अशआर भी शामिल होते थे फिर ग़ज़ल के मैदान में तन्हारवी (इकलौते होने) के उन के दावे को कैसे तस्लीम किया जा सकता है!
फ़ैज़ को मैं भी बुनियादी तौर पर नज़्म का शायर मानता हूं लेकिन ब-हैसियत ग़ज़ल-गो भी वह मजरूह से बहरहाल बुलंद मुक़ाम पर हैं और मज़ाज ओ जज़्बी भी मजरूह सुल्तानपुरी से छोटे ग़ज़ल-गो नहीं हैं। अपने इंटरव्यू में मजरूह ने बड़े तमतराक़ से मंदर्जाजील शेर सुनाया है:
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया
और दावा किया है कि जनसंघ, कांग्रेस, जमात-ए-इस्लामी सब इसे पढ़ते हैं। इस ख़ुशगुफ़्तारी पर हिंदुस्तान वाले सिर्फ़ मुस्कुरा सकते हैं कि इस हिंदुस्तान में जहां बक़ौल मजरूह उर्दू का मुस्तक़बिल (भविष्य) तारीक (अंधेरा) है, जनसंघ वाले भी इनका शेर वर्द (पढ़ते) करते रहते हैं।
एक सवाल के जवाब में हिंदुस्तान में उर्दू के मुस्तक़बिल को तारीक ज़ाहिर करते हुए यहां की उर्दू अकादमियों को निशाना बनाया गया है। फ़रमाते हैं: “अकादमी एक और नुक़सान पहुंचा रही है कि कोई शायर जिसकी शाइरी की उम्र दो साल भी नहीं, अपना पुलंदा उठाकर आ जाता है, अकादमी से जोड़-तोड़ करके किताब छपवा लेता है। और यूं क़तई तौर पर कच्चा अदब पढ़ने वालों को दे जाता है जिसमें न कोई तजुर्बा, न फ़िक्र-ओ-फ़लसफ़ा कुछ नहीं। आप का जी चाहता है कि किताब उठाकर टोकरी में फेंक दें।”
यह उन महरूह सुल्तानपुरी का इरशाद है जिनकी झोली में मुट्ठी भर ग़ज़लों का मुख़्तसर-सा मजमूआ ‘ग़ज़ल’ था लेकिन उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी से इनाम हासिल करने के लिए इसका नया और ख़ूबसूरत एडिशन छपवाया गया और ख़िलाफ़ दस्तूर इस पर इनाम भी हासिल कर लिया गया। बिलाशुबह अकादमी की माली मादनत (मदद) से कम मेआरी किताबें भी छप जाती हैं, लेकिन इसकी मदद से छपने वाली अच्छी किताबों की तादाद भी कम नहीं है। अब मज’रूह सुल्तानपुरी को पैसे भुनाने वाली फ़िल्मी शाइरी से फ़ुर्सत मिले तो वह लिखने-पढ़ने का काम करें और अच्छे अदबी काम इनकी निगाह से गुज़रें। अपनी माअज़ूरी (लाचारी) को वह पूरी हिंदुस्तानी उर्दू दुनिया के सर क्यों थोप आये! यही सबब है कि उन्हें हिंदुस्तान में उर्दू का मुस्तक़बिल महज़ लता मंगेशकर और मेहदी हसन की गायी हुई ग़ज़लों की बैसाखी पर टिका हुआ दिखायी देता है।

मजरूह ने इस इंटरव्यू में पाकिस्तानी क़ारीन को यह तास्सुर (इशारा) भी दिया है कि उनकी शख्सियत और फ़न पर हिंदुस्तान के कई इदारे ख़ास (विशेषांक) नंबर निकालने के ख़्वाहिशमंद हैं। इस ऐतबार से तो हमारे सलाउद्दीन परवेज़ मज़रूह से कई गुना बड़े शायर क़रार पाते हैं क्योंकि उन पर ख़ास नंबर और ख़ुसूसी गोशे (विशेषांक) कई रिसाले शाया भी कर चुके। रिसाला ‘चिराग़’ के मजरूह नंबर के लिए एक साहब कोशां ज़रूर थे, राकुमुल हरूफ़ (लेखक) से मज़मून हासिल करने के लिए उन्होंने दो-तीन बार मुलाक़ात भी की, इस वक़्त उन्हें समझा दिया गया कि महज़ ‘ग़ज़ल’ की ग़ज़लों पर कुछ लिखने से मजरूह साहब का भला होने वाला नहीं है, उनका असली कारनामा फ़िल्मी गीत है। मौसूफ़ ने बात पकड़ी और मजरूह के बहुत से गीत यकजा करके भेज दिये। इसी दौरान निदा फ़ाज़ली ने एक राज़ का इंकिशाफ़ (ख़ुलासा) किया कि मजरूह, फ़िराक़ के अलावा हिंदुस्तान में किसी को शायर नहीं मानते, ख़ुसूसन नयी नस्ल से बेज़ार हैं (तब फ़िराक़ ज़िंदा थे)। चुनांचे ख़्याल आया कि ऐसे अशख़ास (लोगों) का मजरूह पर क़लम उठाना, जिनकी अदबी हैसियत ही मौसूफ़ के नज़दीक कुछ नहीं, कारे-फ़ज़ूल होगा। पेशे-नज़र मज़मून भी मजरूह की अदबी अहमियत को बढ़ाने या घटाने की ग़र्ज़ से क़लमबंद नहीं किया गया। मक़सद सिर्फ़ यह है कि ‘जंग’ लाहौर वाले हिन्दुस्तान से पहुंचने वाले फ़नकारों से इंटरव्यू लेते वक़्त अपने पैनल में किसी जानकार और क़द्दावर शख़्सियत को भी शामिल कर लिया करें तो ख़ुद इश्तहारियत की लौ इतनी बुलंद न हो सकेगी, जितनी कि मजरूह सुल्तानपुरी के इंटरव्यू में नज़र आती है।
[चित्र परिचय— (दाएं से): यूसुफ़ नाहम, अलवर हदीक़, अहमद जमाल बाशा, इमरान अहमद, मज़हर, वायकशर मअफ़री, वग़ीसर मशीरुल हक़, शाबिद अली ख़ान, एजाज़ अली अरशद, ईदुल हक़, बलीन मदीक़ी, प्रोफेसर मुज़फ़्फ़र हनफ़ी, नामालूम, रोग़ीर हीम हक़ी, (तशरीफ़फ़रमा)— शाह जमाल यूरी, ग़ुलाम रेयाली ताबां, अहसन जज़ीली, मजरूह सुल्तानपुरी और उन्वान बशक़ी]

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
1 अप्रैल 1936 को खंडवा में जन्म। उर्दू में एम.ए. और पी.एच.डी. के बाद वन विभाग, एनसीईआरटी जैसे संस्थानों में सेवा के बाद जामिया मिल्लिया इस्लामिया के उर्दू विभाग में पदस्थ हुए। कलकत्ता विश्वविद्यालय में इक़बाल चेयर के प्राध्यापक रहे व उर्दू विभाग के प्रमुख। सौ से ज़्यादा किताबों के लेखक, प्रसिद्ध शायर और इस उर्दू साहित्यकार ने 10 अक्टूबर 2020 को संसार से विदा ली।
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