
- November 15, 2025
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अरुण अर्णव खरे की कलम से....
हिंदी व्यंग्य आलोचना: मुख्यधारा से अब भी बाहर
इन दिनों हिंदी व्यंग्य लेखन में उल्लेखनीय सक्रियता देखी जा रही है। सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर इससे जुड़े विमर्श भी लगातार आयोजित हो रहे हैं। व्यंग्यधारा, समकालीन व्यंग्य तथा व्यंग्य लेखक समिति जैसे व्हाट्सएप समूह नियमित रूप से व्यंग्य केंद्रित विमर्श और परिचर्चाओं का आयोजन कर रहे हैं। व्यंग्यधारा समूह पिछले सात वर्षों से प्रत्येक सप्ताह व्यंग्य से संबंधित एक विषय देकर उस पर विमर्श करता आ रहा है। हाल के वर्षों में इस समूह ने विषय-विशेषज्ञों को आमंत्रित कर व्यंग्य पर गंभीर संवाद और परिचर्चाएँ आयोजित करना प्रारंभ किया है। इसी प्रकार समकालीन व्यंग्य समूह में रचना-प्रक्रिया, लेखकों की आरंभिक यात्रा तथा विषय-आधारित विमर्श पर केंद्रित संवाद आयोजित किये जा रहे हैं। व्यंग्य लेखक समिति भी समय-समय पर उल्लेखनीय आयोजन करती रही है। हाल ही इस मंच पर प्रकाशित रचनाओं पर टिप्पणी की परंपरा आरंभ की गयी है, जिससे एक सक्रिय और रचनात्मक संवाद को बल मिल रहा है। आज अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में व्यंग्य को शामिल किया जा रहा है और छात्रों में इस विधा को लेकर शोध-रुचि भी उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है। सैकड़ों छात्र अब तक व्यंग्य पर पीएच.डी. कर चुके हैं या कर रहे हैं। कुछ विचारकों का मानना है कि व्यंग्यकार लोक-जीवन को तथ्यों से अवगत कराकर सतर्क रखने का कार्य करता है। व्यंग्य का मुख्य उद्देश्य पाठक को जीवन की विसंगतियों का भीतर तक अनुभव कराना होता है। भारतीय समाज में व्यंग्य एक सशक्त और क्रांतिकारी बदलाव लाने का कारगर हथियार सिद्ध हुआ है।
इन सभी सकारात्मक गतिविधियों के बावजूद, व्यंग्य-आलोचना का क्षेत्र अब भी अपेक्षित रूप से विकसित नहीं हो सका है। हिंदी साहित्य में अनेक बड़े आलोचक हुए हैं, किंतु व्यंग्य के प्रति उनका दृष्टिकोण प्रायः उपेक्षापूर्ण ही रहा है। यह उपेक्षा इसलिए भी खटकती है जब हम देखते हैं कि अनेक साहित्यिक मनीषियों ने व्यंग्य की उपयोगिता और प्रभावशीलता को स्वीकारा है, लेकिन आलोचना के क्षेत्र में व्यंग्य को वह प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी जिसकी वह पात्रता रखता है। संभव है इसके पीछे कुछ विशेष और वस्तुगत कारण रहे हों। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दो-तीन दशकों तक राष्ट्रीय स्तर पर गिने-चुने व्यंग्य लेखक ही सक्रिय थे। इसके अलावा, व्यंग्य को साहित्य में एक स्वतंत्र विधा के रूप में मान्यता भी देर से मिली, हालाँकि आठवें दशक के बाद स्थिति में स्पष्ट परिवर्तन आया। नए-नए व्यंग्यकार सामने आए और अगले दो दशकों में व्यंग्य-लेखन का दायरा काफी व्यापक हो गया। सैकड़ों लेखकों ने व्यंग्य को न केवल अपनाया बल्कि उसे लोकप्रिय भी बनाया। प्रसिद्ध व्यंग्यकार विनोद साव ने अपनी आलोचना, समीक्षा और साक्षात्कार की मिली-जुली पुस्तक ‘साहित्य के हैंगिंग गार्डन से’ में लिखा है कि जब उन्होंने नामवर सिंह से यह पूछा – “आप जिन पुस्तकों की समीक्षा करते हैं, उनमें व्यंग्य की किसी पुस्तक को क्यों नहीं लेते?” तो नामवर सिंह का उत्तर था – “परसाई और शरद जोशी को छोड़ कर व्यंग्यकार हैं ही कहाँ?” यह उत्तर एक व्यक्तिगत राय भर नहीं, बल्कि व्यंग्य-साहित्य के प्रति प्रचलित उपेक्षा-भावना का प्रतीक था। यह वह समय था जब छत्तीसगढ़ अलग राज्य बन चुका था और व्यंग्य लेखन अपनी विविधता और गंभीरता के साथ साहित्यिक परिदृश्य पर मजबूती से उपस्थित था। राष्ट्रीय पटल पर श्रीलाल शुक्ल, नरेंद्र कोहली, लतीफ घोंघी, मनोहर श्याम जोशी, विनोद शंकर शुक्ल, शंकर पुणतांबेकर, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल और अंजनी चौहान जैसे व्यंग्यकारों ने अपनी विशिष्ट पहचान बना ली थी। दुर्भाग्यवश, नामवर सिंह के समकालीन अन्य कई आलोचकों का दृष्टिकोण भी व्यंग्य के प्रति ऐसा ही उपेक्षात्मक रहा। कभी-कभी यह भी प्रतीत होता है कि स्वयं व्यंग्यकार आलोचना के प्रति उदासीन या प्रतिरोधी रहे हैं। “राग दरबारी” लिखने वाले श्रीलाल शुक्ल ने भी अपने उपन्यास को व्यंग्य उपन्यास कहने में संकोच किया। विचारणीय है कि व्यंग्य की स्वीकार्यता और लोकप्रियता ने व्यंग्यकारों को आलोचना की आवश्यकता का आभास नहीं होने दिया, जिससे आलोचकों ने भी दूरी बनाए रखी। एक संभावना यह भी है कि आलोचकों को लगा हो कि व्यंग्य का मूल ही आलोचना है, अत: व्यंग्य को प्रथक से आलोचना की आवश्यकता ही नहीं है। बहरहाल साहित्य की हर विधा की प्रगति के लिए आलोचना उतनी ही आवश्यक है, जितनी किसी रचना के लिए पाठकों की उपस्थिति। व्यंग्य भी इस आवश्यकता से अछूता नहीं है।
व्यंग्य आलोचना केवल यह तय करने का माध्यम नहीं है कि व्यंग्य रचना “अच्छी” है या “खराब”, बल्कि यह एक गहन संवाद है, समाज, रचनाकार और पाठक के बीच, जिसमें व्यंग्य की सार्थकता, उसकी प्रासंगिकता और प्रभावशीलता को समझने की कोशिश की जाती है। एक सशक्त व्यंग्य आलोचना न केवल व्यंग्य-साहित्य को दिशा देती है, बल्कि पाठकों को भी उसके मर्म तक पहुँचने में मदद करती है। आलोचकों का काम यह देखना है कि रचना का प्रभाव पाठक पर कितना पड़ता है और वह आज के समय में कितनी प्रासंगिक है। रचना समाज की विसंगतियों, विडंबनाओं और आडंबरों को कितनी प्रखरता से उजागर कर पाई है। रचनाकार ने कौन-कौन सी व्यंग्य तकनीकों या उपकरणों का प्रयोग किया है, और वे कितने प्रभावी रहे हैं। रचना किस हद तक व्यंग्य की परंपरा से जुड़ी है और उसमें नवीन प्रयोग किस रूप में हैं।
व्यंग्य-साहित्य की आलोचना को लेकर अब तक जितने भी गंभीर प्रयास हुए हैं, वे मुख्यतः व्यंग्यकारों की अपनी बिरादरी के भीतर से ही निकले हैं। मुख्यधारा के साहित्यिक आलोचकों ने इस विधा को गंभीरता से लेने में जिस तरह की उपेक्षा दिखाई है, वह व्यंग्य लेखकों के लिए निराशाजनक रहा है। इस निराशा के बावजूद व्यंग्य-आलोचना के क्षेत्र में कुछ उल्लेखनीय हस्तक्षेप ऐसे लेखक-आलोचकों ने किए हैं, जिन्होंने इस विधा की गहराई, प्रासंगिकता और सांस्कृतिक-सामाजिक संदर्भों को गंभीरता से परखा और प्रस्तुत किया। इस परंपरा में जिन नामों को विशेष रूप से स्मरण किया जाना चाहिए, वे हैं – जी.पी. श्रीवास्तव, डॉ बरसाने लाल चतुर्वेदी, डॉ बालेंदु शेखर तिवारी, डॉ मधुसूदन पाटिल, डॉ शेरजंग गर्ग, डॉ श्यामसुंदर घोष, डॉ शंकर पुणतांबेकर, नंदलाल, डॉ सुरेश महेश्वरी, डॉ हरिशंकर दुबे, डॉ भगवान दास, बापूराव देसाई, डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा, गौतम सान्याल, सुभाष चंदर, प्रेम जनमेजय, सुरेश कांत, बच्चन सिंह, सेवाराम त्रिपाठी, रमेश तिवारी, एम.एम. चंद्रा, राहुल देव और सुनील जैन ‘राही’। मुख्यधारा के आलोचकों में डॉ धनंजय और डॉ मलय ने भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय कार्य किया है।
हिंदी व्यंग्य-आलोचना परंपरा की नींव रखने वालों में सबसे पहले जी.पी. श्रीवास्तव का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने हास्य-व्यंग्य आलोचना की प्रारंभिक अवधारणाओं को सामने रखा। इसके पश्चात डॉ. श्यामसुंदर घोष, डॉ. बरसानेलाल चतुर्वेदी और डॉ. शेरजंग गर्ग ने इस विधा को आलोचनात्मक दिशा देने का कार्य किया। विशेष रूप से डॉ. शेरजंग गर्ग की पुस्तक ‘व्यंग्य के मूलभूत प्रश्न’ (1976, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली) इस दिशा में एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी पहल मानी जाती है। इस ग्रंथ की महत्ता को रेखांकित करते हुए वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ. हरीश नवल लिखते हैं – “शेरजंग से पूर्व किसी ने व्यंग्य पर शोध-कार्य नहीं किया था। उनके शोधग्रंथ के प्रकाशित होने से पहले किसी ने भी व्यंग्य के लिए ऐसा ठोस और शास्त्रीय आधार नहीं रखा था। जी.पी. श्रीवास्तव, एस.पी. खत्री, बरसानेलाल चतुर्वेदी, प्रेमनारायण दीक्षित आदि ने मुख्यतः हास्य पर कार्य किया, परंतु व्यंग्य को न तो गहराई से खंगालने का प्रयास किया गया, न ही उसे विशिष्ट महत्व प्रदान किया गया।”
हरीश नवल का यह कथन ‘व्यंग्य के मूलभूत प्रश्न’ की ऐतिहासिक, बौद्धिक और साहित्यिक महत्ता को प्रमाणित करता है। यद्यपि यह शोधग्रंथ मुख्यतः कविता में व्यंग्य के प्रयोगों पर केंद्रित था, तथापि इसकी भूमिका में शेरजंग गर्ग ने स्वीकार किया है कि उनके अंतर्मन में हरिशंकर परसाई और शरद जोशी जैसे गद्य व्यंग्यकारों की लेखनी सदैव सक्रिय रही। यही कारण है कि पुस्तक में गद्य और पद्य दोनों में व्यंग्य के तत्वों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा गया है।
डॉ. गर्ग ने इस ग्रंथ में व्यंग्य की परिभाषा, रूपात्मक विशेषताएँ, शैलीगत विविधता, सामाजिक संदर्भ और सौंदर्यबोध को साहित्यिक, भाषिक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से विश्लेषित किया है। शिल्पगत प्रयोगों की बात करें तो डॉ. गर्ग ने व्यंग्य को एक लचीली, प्रयोगधर्मी और सशक्त साहित्यिक विधा माना, जिसमें अभिव्यक्ति की व्यापक संभावनाएँ निहित हैं। इस प्रकार ‘व्यंग्य के मूलभूत प्रश्न’ न केवल हिंदी व्यंग्य की आलोचना को एक व्यवस्थित आधार देने वाला प्रारंभिक ग्रंथ है, बल्कि यह आज भी शोधार्थियों और व्यंग्य के अध्येताओं के लिए एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है।
1983 में श्यामसुंदर घोष की एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘व्यंग्य क्या, व्यंग्य क्यों’ प्रकाशित हुई, जो व्यंग्य आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण पुस्तक मानी जाती है। इस संग्रह में उस समय के प्रमुख और सक्रिय व्यंग्यकारों – अमृत राय, अजातशत्रु, दिनकर सोनवलकर, रामनारायण उपाध्याय, श्रीकांत चौधरी, सरोजिनी प्रीतम, शंकर पुणतांबेकर, कन्हैयालाल नंदन, नरेंद्र कोहली और प्रभाकर माचवे के विचारोत्तेजक आलेख शामिल हैं। इन लेखों में न केवल तत्कालीन व्यंग्य परिदृश्य की सूक्ष्म समीक्षा की गई है, बल्कि भारतेंदु युग के रचनाकारों और नागार्जुन जैसे कवियों के व्यंग्य-लेखन का भी विवेचनात्मक दृष्टि से मूल्यांकन किया गया है। दिलचस्प यह है कि जहाँ एक ओर नामवर सिंह ने व्यंग्य को लेकर निराशाजनक टिप्पणी की थी, वहीं इसी संग्रह में अमृत राय ने इससे उलट राय व्यक्त की। उन्होंने लिखा – “व्यंग्य साहित्य की दृष्टि से हिंदी साहित्य का यह युग काफी समृद्ध रहा है, भारतेंदु युग के बाद अभी भी इतने व्यंग्यकार एक साथ दिखाई पड़ते हैं।” यद्यपि आगे वह एक गंभीर चिंता भी व्यक्त करते हैं -“राजनीतिक व्यंग्य तो प्राय: समाप्त हो गया है। अन्य क्षेत्र अभी हैं पर यह जो व्यंग्य का केंद्रीय सुरक्षित क्षेत्र बन गया है, उसने व्यंग्यकारों के संपूर्ण व्यक्तित्व को कुंठित किया है।”
इसी संग्रह में अजातशत्रु अपने लेख ‘व्यंग्य की आवश्यकता’ में व्यंग्य की सूक्ष्मता पर रोशनी डालते हुए एक रोचक अनुभव साझा करते हैं – “एक पुलिस स्टेशन पर ‘सत्यमेव जयते’ लिखा देखकर मुझे हँसी आ गई थी, पर मेरे रिक्शेवाले को उसमें हास्य का कोई कारण नजर नहीं आया।”
यह उदाहरण इस बात को रेखांकित करता है कि व्यंग्य मात्र शब्दों या घटनाओं का प्रस्तुतीकरण नहीं, बल्कि उनके भीतर छिपी सामाजिक विडंबनाओं और विरोधाभासों की पहचान और उनकी बारीक प्रस्तुति भी है। आलोचकों की दृष्टि जब इन बारीकियों को नहीं पकड़ती, तो यह खेदजनक होता है। इसी उपेक्षा के विरुद्ध दिनकर सोनवलकर अपने लेख ‘व्यंग्य की भूमिका’ में तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं – “सबसे अधिक व्यंग्य हिंदी पाठक की निष्क्रियता, हिंदी समीक्षक की धूर्तता और नए लेखक की स्नाबरी (दंभ) पर किया जाना चाहिए।” यह कथन न केवल गहरा आत्मालोचन है, बल्कि व्यंग्य के सामाजिक और साहित्यिक दायरे में उसकी जिम्मेदारी और उपेक्षा, दोनों को उजागर करता है।
1983 में प्रकाशित डॉ मलय की पुस्तक ‘व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्र’ हिंदी व्यंग्य-साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक कृति है। यह पुस्तक न केवल व्यंग्य की अवधारणा, प्रकृति और उसकी सांस्कृतिक-साहित्यिक उपयोगिता को स्पष्ट करती है, बल्कि व्यंग्य को एक स्वतंत्र, गंभीर और प्रभावकारी साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित करने का सशक्त प्रयास भी करती है। उनके अनुसार “व्यंग्य एक ऐसी विधा है जो अपनी भूमिका से भविष्य में आलोचनात्मक यथार्थ का वाहक होता है। वह अपने रुख और रुझान का अनुकूल विकास करता जाए तो जन-जन को क्रांतिकारी संवेदना से जोड़ सकता है।” वे यह भी मानते हैं कि “व्यंग्य में सौंदर्य तब आता है जब उसमें विचार और भाव की गहराई हो और वह अपने शिल्प के माध्यम से पाठक को सोचने के लिए बाध्य करे।”
शेरजंग गर्ग और मलय, दोनों की कृतियाँ हिंदी व्यंग्य-साहित्य में आलोचना की दो धाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं – एक शास्त्रीय संरचना की और सैद्धांतिक गहराई की ओर उन्मुख है, जबकि दूसरी सौंदर्यबोध और भाव-संवेदना की ओर केंद्रित है। इन दोनों आलोचकों का कार्य एक-दूसरे का पूरक प्रतीत होता है। यदि गर्ग ने व्यंग्य को आलोचनात्मक वैधता प्रदान की, तो मलय ने उसे कलात्मक गरिमा और अभिव्यक्ति की ऊँचाई दी। हिंदी में व्यंग्य आलोचना जिस उपेक्षा का शिकार लंबे समय तक रही, वह इन दोनों विद्वानों के गंभीर प्रयासों से काफी हद तक पाटी जा सकी है। आज जब व्यंग्य डिजिटल मीडिया विविध रूपों और नई चुनौतियों के साथ एक बार फिर अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है, तो गर्ग और मलय जैसे आलोचकों की अंतर्दृष्टि और गंभीरता पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो उठती है।

व्यंग्य की आलोचना को सुदृढ़ करने की दिशा में समय-समय पर कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ है। इनमें प्रमुख हैं –
- डॉ. बालेंदुशेखर तिवारी की ‘हिंदी का स्वातंत्र्योत्तर हास्य और व्यंग्य’ (1978),
- डॉ. बापूराव देसाई की दो पुस्तकें – ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी व्यंग्य निबंध एवं निबंधकार’ और ‘हिंदी व्यंग्य विधा: शास्त्र और इतिहास’,
- डॉ. इंद्रनाथ मदान की ‘हिंदी की हास्य-व्यंग्य विधा का स्वरूप और विकास’,
- हरीश नवल की ‘कुछ व्यंग्य की, कुछ व्यंग्यकारों की’,
- सुरेश कांत की ‘व्यंग्य: एक नई दृष्टि’,
- राहुल देव की ‘आधुनिक व्यंग्य का यथार्थ’,
- गौतम सान्याल की ‘कथालोचन के नये प्रतिमान’,
- कैलाश मंडलेकर की ‘हिंदी व्यंग्य की प्रवृत्तियाँ और परिवेश’।
इसी क्रम में प्रेम जनमेजय की पुस्तक ‘हिंदी व्यंग्य की धार्मिक पुस्तक: हरिशंकर परसाई’ भी उल्लेखनीय है, जो न केवल परसाई के लेखन की सूक्ष्म व्याख्या करती है, बल्कि समकालीन व्यंग्य की विचारभूमि को भी समृद्ध करती है।
एक समय ‘व्यंग्य विविधा’ पत्रिका के माध्यम से मधुसूदन पाटिल ने व्यंग्य को आलोचनात्मक मंच प्रदान किया। वहीं, पिछले दो दशकों से ‘व्यंग्य यात्रा’ के माध्यम से प्रेम जनमेजय व्यंग्य की जमीन को निरंतर पोषित कर रहे हैं। इन प्रयासों ने व्यंग्य को सतही मनोरंजन से ऊपर उठाकर साहित्यिक विमर्श का गंभीर विषय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पिछले तीस वर्षों से प्रकाशित अट्टहास ने अनेक नए व्यंग्यकारों के लिए उर्वरा भूमि तैयार करने में सशक्त भूमिका निभाई है।
नये डिजिटल माध्यमों ने युवा व्यंग्यकारों को अभिव्यक्ति की अभूतपूर्व स्वतंत्रता प्रदान की है। आज कोई भी लेखक ब्लॉग, यूट्यूब या सोशल मीडिया के अन्य प्लेटफार्मों के माध्यम से अपने व्यंग्य को व्यापक पाठकवर्ग तक सहजता से पहुँचा सकता है, और त्वरित प्रतिक्रिया भी प्राप्त कर सकता है। इसने व्यंग्य-लेखन को अधिक लोकतांत्रिक, सुलभ और प्रयोगशील बना दिया है। हालांकि, इस रचनात्मक विस्फोट के बावजूद व्यंग्य की आलोचना और मूल्यांकन का परिदृश्य अभी भी सीमित और संकुचित बना हुआ है। डिजिटल माध्यमों पर प्रस्तुत हो रहे व्यंग्य की विधिवत समीक्षा या विवेचना विरले ही देखने को मिलती है। यह एक प्रकार की विडंबनात्मक स्थिति है कि जिस समय व्यंग्य-साहित्य अधिक गतिशील, जनसंपृक्त और बहुआयामी हुआ है, उसी समय उसकी साहित्यिक आलोचना लगभग ठहराव की स्थिति में दिखाई देती है।
आज जब व्यंग्य लेखन में अनेक युवा, शिक्षित, और डिजिटल-प्रवीण रचनाकार आ रहे हैं, और जब व्यंग्य उपन्यास, कथा एवं निबंध जैसी विधाओं में विविध प्रयोग हो रहे हैं, तो जरूरी है कि व्यंग्य आलोचना भी न केवल रूपात्मक विश्लेषण करे, बल्कि व्यंग्य के उपकरणों, विमर्शों और प्रभाव के स्तर पर भी मूल्यांकन की नई कसौटियाँ विकसित करे। साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या आज का व्यंग्य अपने मूल उद्देश्य – सत्ता और सामाजिक संरचनाओं पर प्रहार से कहीं भटक तो नहीं गया है?
इस समूचे परिदृश्य से यह स्पष्ट होता है कि व्यंग्य साहित्य का मूल्यांकन अभी भी मुख्यधारा की साहित्यिक आलोचना का हिस्सा नहीं बन सका है। इसकी गंभीर समीक्षा अब भी अधिकतर व्यंग्यकारों के आत्म-प्रयासों तक ही सीमित है, जबकि इसकी आवश्यकता व्यापक स्तर पर है। व्यंग्य को केवल लेखक नहीं, आलोचक भी जितनी ईमानदारी और गहराई से समझेगा, तभी यह विधा अपनी पूरी ऊँचाई तक पहुँच सकेगी।

अरुण अर्णव खरे
अभियांत्रिकीय क्षेत्र में वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त। कथा एवं व्यंग्य साहित्य में चर्चित हस्ताक्षर। बीस से अधिक प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त। अपने माता-पिता की स्मृति में 'शांति-गया' साहित्यिक सम्मान समारोह आयोजित करते हैं। दो उपन्यास, पांच कथा संग्रह, चार व्यंग्य संग्रह और दो काव्य संग्रह के साथ ही अनेक समवेत संकलनों में शामिल तथा देश भर में पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन। खेलों से संबंधित लेखन में विशेष रुचि, इसकी भी नौ पुस्तकें आपके नाम। दो विश्व हिंदी सम्मेलनों में शिरकत के साथ ही मॉरिशस में 'हिंदी की सांस्कृतिक विरासत' विषय पर व्याख्यान भी।
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