
- July 29, 2025
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कवियों की भाव-संपदा, विचार-वीथिका और संवेदन-विश्व को खंगालती इस डायरी का मक़सद प्रकाशन पूर्व पाठक-लेखक संवाद बनाना है...
जयप्रकाश मानस की कलम से....
पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी : भाग-10
उल्लेखनीय
12 फरवरी, 2014
“कविता का संसार जितना अंतर्ग्रस्त और जटिल है उतना ही व्यापक और विशाल भी। मनुष्य के अनुभव के भीतर आने वाली सभी वस्तुओं के लिए कविता में स्थान है। जो कुछ भी जीवन के लिए प्रासंगिक या महत्वपूर्ण है, वह कविता के लिए भी उतना ही मूल्यवान है। इस तरह कविता के भी वही उपकरण हैं, जो जीवन के हैं। संसार का ऐसा कोई विषय नहीं है, जो काव्योचित न हो क्योंकि ऐसा कुछ भी नहीं है जो अनुभव की परिधि में न आ सके।” -प्रमोद वर्मा
न मनुष्य न ईश्वर
गाँव में मनुष्य के पड़ोस में मनुष्य और ईश्वर दोनों रहते थे। गाँव को उजाड़कर मनुष्य ने नगर बना दिया। नगर में अब न मनुष्य रहता है, न ही ईश्वर।
13 फरवरी, 2014
प्रेम का एक आशय
प्रेम न ही घड़ी, बेला, मुहूर्त, दिन, मास और वर्ष का गुलाम है, न ही देश या परिस्थिति का दास। वह संसार में सबसे अधिक बंधनमुक्त है। वह सर्वोच्च मुक्ति है। देह और उसकी भौतिकी से सर्वथा विलग।
प्रेम के बारे में सोचता हूँ, तो मन में जैसे कोई हल्की-सी हवा चलती है, जो न कहीं से आती है, न कहीं जाती है। प्रेम क्या है? मैं सोचता हूँ- यह कोई बंधा हुआ समय नहीं, न घड़ी की सुइयाँ, न दिन-मास-वर्ष का हिसाब। यह कोई देश की सीमा में नहीं बँधता, न परिस्थिति की रस्सी से जकड़ा जाता है। प्रेम, जैसे कोई ऐसी चीज़, जो सबसे ज़्यादा आज़ाद है। जैसे कोई बच्चा, जो बिना सोचे, बिना डरे, सिर्फ़ हँसता है।
मैं बाहर देखता हूँ। सड़क पर लोग चल रहे हैं, रिक्शा, गाड़ियाँ, सब अपने-अपने रास्ते। क्या इनमें से कोई प्रेम में है? शायद कोई, शायद सब। पर प्रेम वो नहीं, जो बस दो लोगों के बीच हो। प्रेम वो है, जो देह से, उसकी सारी भौतिकी से, उसकी सारी सीमाओं से परे चला जाये। मैं सोचता हूँ, कोई पेड़ अपनी छाया देता है, बिना जाने कि कौन उसकी छाँव में बैठेगा। क्या यह प्रेम नहीं? कोई नदी बहती है, बिना इस बात की परवाह किये कि उसका पानी कहाँ जाएगा। क्या यह प्रेम नहीं?
प्रेम, जैसे कोई ऐसी मुक्ति, जो सबको छू लेती है, पर किसी की ग़ुलाम नहीं। मैंने एक बार एक बूढ़े को देखा था, जो अपनी झुर्रियों भरे चेहरे के साथ, एक गुलाब का फूल गमले में लगा रहा था। उसने फूल को पानी दिया, धीरे से छुआ, जैसे कोई बच्चा अपने दोस्त को गले लगाता है। मैंने सोचा, ये प्रेम है। न समय का, न परिस्थिति का, न देह का। बस एक फूल और एक बूढ़े के बीच की वो हल्की-सी बात।
मैं सोचता हूँ, प्रेम अगर कुछ है, तो वो सबसे ऊँची आज़ादी है। जैसे कोई पुरानी किताब, जिसके पन्ने पीले पड़ गये हों, पर शब्द अभी भी चमकते हों। जैसे कोई गीत, जो कोई गा रहा हो, बिना ये जाने कि कोई सुन रहा है या नहीं। प्रेम, शायद यही है। मैं अपनी डायरी बंद करता हूँ, पर मन में वो हल्की-सी हवा अभी भी चल रही है।
अमीर
सबसे अधिक उधार लेता है, पर वह सबसे कम उधार चुकाता है।
15 फरवरी, 2014
पुस्तकों की प्रार्थना
मेरे सैकड़ों, हज़ारों, लाखों साथी पहले से ही आपके आलमीरा में क़ैद हैं। कभी उन अछूतों का भी स्पर्श कर लीजिए। ख़ुद नहीं बाँचते तो ज़रूरतमंद में बाँट दीजिए। ऐसा नहीं कर सकते तो आपका फिर से पुस्तक मेले में आना हमारे लिए भला किस काम का? प्रिय पाठको, हमारी इज़्ज़त रख लें। हम बड़े दुखी हैं- आपके ऐसे पुस्तक प्रेम से।
ज्ञान
ज्ञान बादाम पिस्ता मिश्रित गोरस नहीं, देसी महानीम का विशुद्ध काढ़ा है, जो किसी-किसी के लिए ही रुचिकर है।
गर
किताब पर रोज़ होगी चर्चा – लेखक गर उठा सके ख़र्चा।
स्वर
स्वर भी एक काया है: मुख-मुद्रा, नैन-नक़्श, चाल-ढाल, हाव-भाव ठीक नहीं तो अकारज।
16 फरवरी, 2014
अहा!
हल्की-हल्की बारिश की ठंडक में गरमागरम मिर्ची भजिया!! फटाफट लगा दो भाई एक प्लेट!!!
चमेली के फूलों से गुफ़्तगू
“मेरी तमन्नाएं कोई नहीं, उम्मीदें कोई नहीं और मायूसियां भी कोई नहीं। मैं अक़्लमंदी के कारण किसी औरत से मोहब्बत नहीं करता और वो बेवकूफ़ी की वजह से मुझे प्यार नहीं करती। मैं लिखता हूँ, बस लिखते रहना चाहता हूँ। मुझे मज़हबी किताबों की ज़रूरत नहीं, क्योंकि इस बासी किताबों से अच्छी किताबें मैं लिख सकता हूँ। ज़िंदगी में मैंने हरे-हरे पत्तों और चमेली के फूलों से गुफ़्तगू की है। मैं काग की भाषा समझता हूँ। मेरा कुत्ता मुझे समझता है और मैं उसे। मैं एक इंसान की तरह ज़िंदा रहना चाहता हूँ तथा एक ऐसे मक़ाम तक पहुँचने की तमन्ना रखता हूँ, जहां बस सुख-शांति, अमन और प्यार के आम हालात हों- और बस्स।” -राजेन्द्र सिंह बेदी (डॉ. केवल धीर Kewal Dheer से बातचीत/दस्तक यादों की)
सरल-कठिन
एकमात्र भाषा है– हिंदी, जहाँ कवि, संपादक, समीक्षक, आलोचक, प्रकाशक बनना सबसे सरल और पाठक बनना सबसे कठिन है।
17 फरवरी, 2014
कोई बताये
धरती पर सबसे पहले जन्म लेने वाला व्यक्ति किस जात का था?
अभिमान-अपमान
एक मित्र की बढ़िया बात: “चलनेवाले पैरों में कितना फ़र्क़ है! एक आगे एक पीछे, पर न तो आगे वाले को अभिमान है और न ही पीछे वाले को अपमान।”
ज़मीन पर चलने से गिरने का ख़तरा नहीं रहता।
जहाँ
जहाँ दरवाज़ा, खिड़की, आँगन, रसोई और दालान नहीं होते, वहाँ घर नहीं होता।
19 फरवरी, 2014
जीवन-मृत्यु
जो जी चुका, वो मर चुका। जिसे जीना है, वह मर रहा।
एक पाठ की याद
मैं किसी से भी बड़ा नहीं, कोई नहीं है मेरे मुक़ाबिले।
20 फरवरी, 2014
एक अनुभव
सचमुच साइकिल-सवारी सभी तरह की सवारियों में सबसे अधिक विनम्र सवारी है।
20 मार्च 2014
उदास रंग की हँसी
देर से ही सही। दुख तथा उदासी के रेगिस्तान को पार करने का प्रयास करते हुए मैंने होली मनाने का नया तरीक़ा अपनाया- अपने जीवनसाथी (कल्पना जी) का स्कैच पीसी के सौजन्य से तैयार किया फिर उन्हें बधाई दी। रंग का रंग और होली की होली।
जैसे ही कोई कहता है–
अँधेरा भीतर-ही-भीतर चमक उठती उजली चीज़ वैसे ही कोई।
कहा उन्होंने
फ़हमीदा रियाज़ (मशहूर साहित्यकार, पाकिस्तान) कल रायपुर में थीं। कल क्यों, लगभग एक हफ़्ते से रायपुर का वीज़ा लेकर। 19 और 20 मार्च को रायपुर के प्रगतिशील साहित्य प्रेमियों और पत्रकारों ने उनकी प्रतिष्ठा में दो कार्यक्रम भी आयोजित किये थे, जिनमें एक महिला कॉलेज में था और दूसरा रोटरी क्लब के सभागार में। सौभाग्य नहीं था मेरा, सरकारी चाकरी के कारण उन्हें मिलने, बतियाने और उन्हें समझने का। फिर भी मन था कि उनसे मिल आया, सुन आया।
साहित्य में रुचि और उदारवादी सोच रखने के कारण रियाज़ को अपने ही देश में कई विरोधों का सामना करना पड़ा। एक समय तो उनकी लेखनी और राजनीतिक विचारों के कारण उन पर 10 से ज़्यादा केस चलाये गये।
यही वो समय था जब पंजाब की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कहकर उनके रहने की व्यवस्था भारत में करवायी थी। …क्या-क्या ख़ास कहा उन्होंने:
1. मर्द को दर्द नहीं होता।
2. औरतें दर्द बयां नहीं कर सकतीं।
3. पाकिस्तान में लड़कियाँ सिकुड़ी जा रहीं हैं।
4. मैंने पाकिस्तान में बिना गुनाह जेल जाने से बेहतर भारत आना पसंद किया।
5. मैंने कभी आज़ादी हासिल करने की कोशिश नहीं की। मैं पैदाइशी आज़ाद हूँ।
6. भारत जो करता है पाकिस्तान उसका उल्टा।
7. पाकिस्तान में रेडियो में हारमोनियम इसलिए बंद करा दिया क्योंकि भारतीय फ़नकार इसमें माहिर थे। इसलिए ही बड़े ग़ुलाम अली जैसे लोग भारत लौट आये।
8. मेरी बेटी का नाम वीरता और बेटे का कबीर है।
21 मार्च 2014
संपादक का फिर क्या काम
चाहे वो अपने बचाव में कोई भी तर्क देता फिरे लेकिन हिंदी का हर संपादक एक न एक बार प्रूफ़ की ग़लती करता ही है। मेरे पास आज ही साहित्य की दो बड़ी यानी महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ पहुंची हैं- वागर्थ (कोलकाता, एकांत श्रीवास्तव) और उम्मीद (दिल्ली, जितेन्द्र श्रीवास्तव)। दोनों पत्रिकाओं के प्रारंभिक पेज की ही चूकों से पढ़ने का पूरा स्वाद बिगड़ गया मेरा- ये सब टायपिस्ट देखेगा या संपादक?
1. कुमार अम्बुज अब कुमार अम्बूज हो गये हैं। (वागर्थ)
2. ओमप्रकाश वाल्मीकि हिन्दी दलित कविता के पर्याय नहीं, पयार्य हैं। (उम्मीद)
22 मार्च 2014
फुटकर बात
टिकरा पारा की छोटे-से हटरी (बाज़ार) में सब्जी ख़रीद रहा हूँ। एकाएक कुछ फुटकर विचार आ रहे हैं मन में- सिलसिलेवार और एक दूसरे का अतिक्रमण करते हुए भी। घर लौटकर लिख लेता हूँ किसी कागज़ पर। रख लेता हूँ- संभाल कर भी। फिर कभी सिलसिलेवार इन्हें जमाऊँगा। कुछ और भी तब तक अनुभव हो जाये:
लेखक का पहला सपना प्रकाशन, प्रशंसा और पुरस्कार होता है और रचनाकार का परिवर्तन।
लेखक का भ्रम लेखक ने शायद यह मान रखा है कि ज़रूरी परिवर्तन के लिए उसका काम मात्र समाज को विचार प्रदान करना है। शेष सामाजिक संघर्षों से उसका कोई लेना-देना नहीं। यानी वह सुविधाभोगी अधिक संघर्षशील कम ही है।
बदलाव
लेखक जहाँ बदलाव की उम्मीद करता है, वहाँ जब तक उसका साहित्य पहुँचता ही नहीं तो बदलाव कैसे संभव है?
क्या यह बिलकुल झूठ है- बड़ी से बड़ी साहित्यिक पत्रिका की साख आम जनता में नहीं के बराबर है।
नइ बोलय करौंदा रिसाय हावय का
बचपन में माँ जिस दिन करौंदे की चटनी बनाती थी, उस दिन मैं कुछ अधिक ही डकार जाता था। थोड़ी सी धनिया या पुदीने की पत्ती, कुछ हरी मिर्च और नमक मिला दो, बस्स… फिर देखो उसका रंग। बाज़ार में करौंदे देखकर उसकी याद आ गयी।
हिंदी में करौंदा। करमर्द, सुखेण, कृष्णापाक फल संस्कृत में। मराठियों के लिए मरवन्दी तो गुजरातियों के लिए करमंदी। बंगाली दादा कहे करकचा, तेलुगु भाई बाका। अंगरेज़ों के लिए जस्मीड फ्लावर्ड।
करौंदे में जाने कितने गुन! फलों में अनोखा। करोंदा भूख को बढ़ाता है, पित्त को शांत करता है, प्यास रोकता है और दस्त को बंद करता है। पका करौंदा यानी वातहारी। आम घरों में करौंदा सब्ज़ी, चटनी, मुरब्बे और अचार के लिए मशहूर। रस हाय ब्लड प्रेशर को कम करने में कामयाब। महिलाओं की मुख्य समस्या ‘रक्तहीनता’ (एनीमिया) से छुटकारा दिलाने में विश्वसनीय।
पातालकोट (मध्यप्रदेश) में आदिवासी भाई करौंदा की जड़ों को पानी के साथ कुचलकर बुखार होने पर शरीर पर लेपित करते हैं और गर्मियों में लू लगने और दस्त या डायरिया होने पर इसके फलों का जूस तैयार कर पिलाया जाता है, कहते हैं तुरंत आराम मिलता है।
भारतीय मूल का यह एक बहुत ही सहिष्णु, सदाबहार, कांटेदार झाड़ीनुमा पौधा है। इसके फूल सफ़ेद होते हैं तथा फूलों की गंध जुही के समान होती है। माँ के हाथों बनी करौंदा चटनी को याद करते-करते कवि त्रिलोचन की वे नायाब पंक्तियाँ भी बरबस याद आ रही हैं:
सघन अरण्यानी
कंटकित करौंदे की
फलों भरी
फल भी छोटे, मझौले
और बड़े
अलग अलग पेड़ों में
लगे हुए।
बड़े फल साथियों की राय से
हम सबने तोड़ लिये
घर के लिए
प्रसंस्करण दक्ष हाथ करेंगे।
बड़े करौंदे ही करौंदे कहलाते हैं
छोटे और मझोले/करौंदी
मशहूर हैं।
चटनी, अचार
नाना रकम और स्वाद के
अपनों को उनकी
रुचि जान कर देते हैं।
इधर मेरे जनपद में प्रेमिका को प्रेमी जब करौंदा कहकर पुकारता है तो उसका स्वाद केवल मेरे जनपद के प्रेमी-प्रेमिका ही बूझ पाते हैं। ऐसे में भैय्यालाल हेड़ाऊ, अनुराग ठाकुर जैसे छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों का स्वर भी मेरे भीतर उभरने लगता है:
आँखी में रतिहा बिताये हावे का
आँखी में रतिहा बिताये हावे का
कैसे संगी नई बोलय करौंदा रिसाय हावे का
ये रिसाय हावे का हां रिसाय हावे का
‘साल करोंटा (करवट) ले गई, राम बोध गये टेक, बेर करौंदा जा कहें, मरन न दे हों एक’। बुंदेलखंड में ये पंक्तियाँ 19 शताब्दी के अकाल के हालात में गुनगुनायी गयी थीं। भई, करौंदा को लोक-समाज भला भूल भी कैसे सकता है! क्या मैं भुला पा रहा हूँ– माँ को और उसे भी!!
क्रमश:

जयप्रकाश मानस
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।
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