rafi रफ़ी
ख़ुदेजा ख़ान की कलम से....

रफ़ी को नहीं सुना तो तुमने क्या किया...

             रफ़ी साहब अपनी मखमली आवाज़ का जादू इस जहां में छोड़ गये। जादू भी ऐसा जो किसी सूरत कम नहीं होता। वही खनक और ताज़गी।

एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत और यादगार नग़्मे, जिन्हें उनकी तरह फिर कोई नहीं गा पाया, हां, काॅपी होती रही लेकिन ज़ीराॅक्स में असल जैसी कशिश नहीं आ पायी।

उनके बेटे शाहिद मोहम्मद रफ़ी वही दोहराते हैं, जो ख़ुद रफ़ी साहब ने अपने साक्षात्कारों में कहा था- एक फ़क़ीर, एकतारा लेकर, गाते हुए घर के सामने से रोज़ाना गुज़रता था।
रफ़ी साहब को उसका गीत इतना अच्छा लगता कि उसके पीछे-पीछे जाते, उसके गाने की नक़ल करते। एक दिन फ़क़ीर ने पूछ ही लिया- “मेरा पीछा क्यों करते हो?”
– “आपके गाने की वजह से”
– “तो गाकर सुनाओ”
– रफ़ी साहब ने गाकर सुनाया। फ़क़ीर ने ख़ुश होकर दुआ दी- “एक दिन दुनिया में बहुत नाम होगा”…

फ़क़ीर की दुआ थी या उनकी गायकी का अंदाज़ और आवाज़ का जादू, रफ़ी साहब ने दुनिया में करिश्मा तो कर ही दिया। रफ़ी साहब का जन्म 14 दिसंबर 1924 को अमृतसर पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था। पहली बार इन्होंने 13 बरस की उम्र में मंच पर गाना गाया। इसके पीछे भी एक क़िस्सा है। प्रसिद्ध गायक कुंदन लाल सहगल अपने एक स्टेज प्रोग्राम के लिए आये हुए थे। लाइट गोल हो गयी तो उन्होंने गाने से मना कर दिया। इस अफ़रा-तफ़री में मंच पर मोहम्मद रफ़ी को भेजा गया और उन्होंने दर्शकों को तब तक बांधे रखा जब तक लाइट नहीं आ गयी।

रफ़ी को पहला ब्रेक श्याम सुंदर ने पंजाबी फिल्म “गुल बलोच” के लिए दिया। उसके बाद जब यह मुंबई आ गये, तब नौशाद ने 1946 में पहली बार इन्हें हिंदी फ़िल्म जगत में “अनमोल घड़ी” के लिए गीत- ‘तेरा खिलौना टूटा’ दिया। इसके बाद तो “बैजू बावरा” के गानों ने इन्हें मुख्यधारा के गायक के रूप में स्थापित कर दिया।

रफ़ी साहब को “शहंशाह-ए-तरन्नुम” कहा जाता है। सिनेमा जगत के संगीत के जानकारों का एक सुर में कहना रहा कि रफ़ी साहब के लिए किसी भी तरह का गाना क़तई मुश्किल न था। बल्कि वो जिस सिन्फ़ को अपनी आवाज़ देते, वह सहज हो जाती और सुनने वालों के भीतर तक उतर जाती।

क़व्वाली- ये इश्क़-इश्क़ है इश्क़
भक्ति गीत- ओ दुनिया के रखवाले
बाल गीत- रे मामा रे मामा रे
देशभक्ति गीत- यह देश है वीर जवानों का
विवाह गीत- बाबुल की दुआएं लेती जा
हास्य गीत- सर जो तेरा चकराये
शास्त्रीय गीत- मधुबन में राधिका नाचे रे

कुल 14 भाषाओं में इन्होंने गीत गाये, दो गाने तो अंग्रेज़ी भी। 6 फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड जीते और 16 बार फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड के लिए नामांकित हुए। 1956 से 1965 तक अपने पीक टाइम पर “बिनाका गीतमाला” में दो दशक तक छाये रहे। ऐसे तमाम कारनामों से रफ़ी नये गायकों के लिए प्रेरणास्रोत बने। नये दौर के जिन कई गायकों ने गायकी में अपना मुक़ाम बनाया- सोनू निगम, उदित नारायण, अनवर, शब्बीर कुमार आदि सभी रफ़ी से प्रेरित, प्रभावित तो रहे ही, उनके गानों को अपनी आवाज़ में मंचों पर गाकर ही बड़े मंचों तक पहुंचे।

बड़े दिल वाले रफ़ी साहब

एक क़िस्सा है कि रफ़ी साहब, ओ.पी. नैय्यर के स्टुडियो में एक घंटा लेट पंहुचे जबकि नैय्यर वक़्त के बहुत पाबंद थे। नैय्यर ने कहा- “ठीक है, तुम्हारे पास मेरे लिए समय नहीं है तो आज से मैं तुम्हारा हिसाब-किताब कर देता हूं”। पत्रकार ने इस मसअले को तूल देने के लिए रफ़ी साहब से बात की लेकिन रफ़ी साहब ने कहा- “ग़लती मेरी थी”। तीन साल बाद रफ़ी साहब नैय्यर के घर गये, तब नैय्यर ने कहा- “तुमने अपने अहंकार पर क़ाबू पा लिया लेकिन मैं क़ाबू नहीं कर पाया। ऐसा सादा दिल इंसान ही इतने ख़ूबसूरत गीत गा सकता है।”

बड़े नेक दिल इंसान थे रफ़ी साहब। इंडस्ट्री में रहकर भी पाक दामन रहे। एक बार लता मंगेशकर जी के साथ रॉयल्टी को लेकर मतभेद हुआ और उन्होंने तीन साल तक साथ में कोई गाना नहीं गया। लेकिन फिर अन्य सहयोगियों के हस्तक्षेप से मंच पर एक साथ अपनी प्रस्तुति देने के लिए राज़ी हो गये।

एक क़िस्सा वह भी जो अमीन सायानी ने अपने कार्यक्रम में लक्ष्मीकांत के हवाले से बताया-“लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के पास इतने पैसे नहीं थे। उन्होंने कम पैसों में रफ़ी से गाना गवाया और जब रफ़ी साहब को पैसे देने गये तो उन्होंने, पैसे वापस करते हुए कहा- “दोनों आपस में इन्हें बांट लेना और ऐसे ही मिलकर काम करते रहना”।

रफ़ी के मुरीदों के शब्द

रफ़ी साहब अपनी गायकी में परफेक्शनिस्ट कहे जाते थे। भारत विभाजन के समय राजेंद्र कृष्ण के लिखे गीत- “सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी”, को रफ़ी साहब की आवाज़ में सुनने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अपने घर बुलाया और जब सुना तो उनकी आंखों में आंसू थे। सभी कलाकारों की राय बताती है कि रफ़ी साहब का क्या मुक़ाम था।

  • संगीतकार नौशाद ने रफ़ी को हिंदी फ़िल्मों के “तानसेन” की संज्ञा दी। नौशाद और रफी साहब ने 41 फ़िल्मों में एक साथ काम किया। नौशाद का कहना था- ‘वह सुरों से कभी नहीं हटे’।
  • पंडित जसराज का कहना था- “ग्रेट सिंगर थे, उनके लिए किसी भी प्रकार का गाना मुश्किल नहीं था”।
  • मन्ना डे ने एक इंटरव्यू में कहा- “रफ़ी साहब के मुक़ाबले का कोई गायक नहीं था। वह हर गाना गा सकते थे और हर गाने को कमाल बना सकते थे।”
  • ख़ैय्याम ने कहा- “अल्लाह ने एक ही रफ़ी पैदा किया”।
  • लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी के अनुसार- “सभी गायक उनके प्रशंसक थे”।
  • कल्याण जी-आनंद जी बताते हैं- “वह गानों को सही तरीक़े से गाने के लिए कहां-कहां कितना खींचना है, कहां कितना रुकना है सब लिख लेते थे”।
  • बक़ौल मुबारक बेगम- “इतना सीधा आदमी मैंने नहीं देखा”
  • अमित कुमार के शब्दों में- “उनकी आवाज़ में गमक है, वेलवेट वॉइस”।
  • पंकज उधास- “कंप्लीट सिंगर”।
  • कैलाश खेर के अनुसार- “भजन, सबद सुनकर ऐसा लगता है वह युगों से गाते आ रहे हैं”।
  • अनुराधा पौडवाल कहती हैं- “हमेशा महसूस किया कि यह ख़ुदा की आवाज़ है”।
  • लेख टंडन (निर्देशक) का मानना है- “वह एक्टर, गाने के मूड और सिचुएशन के हिसाब से अपनी आवाज़ को साध लेते थे”।

रफ़ी: कुछ और बेमिसाल बातें

“रागिनी” और “शरारत” इन दो फ़िल्मों में किशोर कुमार के लिए भी पार्श्वगायन किया।
1940 से 1980 के बीच उन्होंने 5000 गीत गाये। लगभग सभी नये-पुराने अभिनेताओं पर उनकी आवाज़ हमेशा जंचती रही।
1965 में उन्हें पद्मश्री मिला।
2016 में उन पर डाक टिकट जारी किया गया।

rafi रफ़ी

पतंग उड़ाने का उन्हें काफ़ी शौक़ था। वह भी काले रंग की। संडे को बच्चों के साथ कैरम और बैडमिंटन खेलते थे। बॉक्सिंग मैच देखना और हॉलीवुड की फ़िल्में देखने में भी उन्हें मज़ा आता था। हॉलीवुड फिल्मों की स्टोरी वह बच्चों से पहले ही सुन लेते थे। खाने के बेहद शौक़ीन रफ़ी साहब के लिए बैडमिंटन भी रूटीन में खेलना शामिल था।

चलते-चलते एक वाक़या और… जब रफ़ी 1980 में कोलंबो में अपने स्टेज प्रोग्राम के लिए गये तो वहां श्रीलंका के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी मौजूद थे। उद्घाटन के बाद दोनों को चले जाना था क्योंकि उनकी भाषा सिंहली थी और वह हिंदी नहीं समझते थे। लेकिन रफ़ी के गीत सुनकर दोनों अंत तक वहां बैठे रहे। ऐसी थी, उनकी गायकी की ताक़त।

ऐसी रूहानी आवाज़ के मालिक ने 31 जुलाई 1980 को मुंबई, महाराष्ट्र में हृदयगति रुक जाने से सिर्फ़ पचपन साल की उम्र में इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह दिया।

ख़ुदेजा ख़ान, khudeja khan

ख़ुदेजा ख़ान

हिंदी-उर्दू की कवयित्री, समीक्षक और एकाधिक पुस्तकों की संपादक। अब तक पांच पुस्तकें अपने नाम कर चुकीं ख़ुदेजा साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं और समकालीन चिंताओं पर लेखन हेतु प्रतिबद्ध भी। एक त्रैमासिक पत्रिका 'वनप्रिया' की और कुछ साहित्यिक पुस्तकों सह संपादक भी रही हैं।

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