
- November 12, 2025
- आब-ओ-हवा
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9 नवंबर को विश्व उर्दू दिवस मनाया गया। यह लंबा लेख आब-ओ-हवा के पाठकों के लिए ख़ास तौर से। यह चर्चित लेख लेखक ने उपलब्ध करवाया है, जो 2009 में प्रकाशित पुस्तक 'उर्दू शायरी में भारतीयता' में संग्रहीत भी है। लंबाई के कारण इस लेख को दो भागों में प्रकाशित किया जा रहा है...
डॉ. बानो सरताज की कलम से....
उर्दू शायरी में भारतीयता - भाग दो
भारत के पहाड़/नदियां:
भारतीयों के लिए देश का कण-कण आदरणीय है। आदरणीय है वह पहाड़ी सिलसिला जो वर्षों से देश की रक्षा कर रहा है। श्रद्धा की सूचक हैं वे नदियां जिनका पानी जीवन देता है और वे स्वयं जीने की प्रेरणा देती हैं, शरीर और आत्मा को शांति देती हैं … उर्दू शायरों ने भारत के गौरव, भारत की शान को अपनी शायरी में उच्चतम स्थान दिया है। ‘हिमाला’ (हिमालय) का उल्लेख जहां जहां भी हुआ है बड़ी शान से हुआ है। डॉ. इक़बाल ‘हिमाला’ नज़्म में भारत के उस दौर की कहानी वर्णित करते हैं जब यहां प्रथमतः मानव ने बस्तियां बसाई थीं –
ऐ हिमाला! ऐ फ़सील-ए-किश्वर-ए-हिंदोस्तां
चूमता है तेरी पेशानी को झुक कर आसमां।
तुझमें कुछ पैदा नहीं दैरीना रोज़ी के निशां
तू जवां है गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर के दरमियां।
ऐ हिमाला! दास्तां उस वक़्त की कोई सुना
मसकन-ए-आबा-ए-इंसां जब बना दामन तेरा।
हां दिखा दे ऐ तसव्बुर फिर वो सुबह-शाम तू
दौड़ पीछे की तरफ़ ऐ! गर्दिश-ए-एय्याम तू!
मिर्ज़ा मोहम्मद अशफ़ाक ‘शौक़ वालो’ नज़्म में नयी पीढ़ी को महान हिमाला की भांति महान बनने के लिए प्रेरित करते हैं-
हिमाला की तरह ख़ुद को बनाओ – वफ़ा व मेहर की नदियां बहाओ
हमेशा फूल दामन में सजाओ – शमीम-ए-गुल सरे-बाज़ार रखो
वतन वालो! वतन से प्यार रखो।
मुंशी हरदयाल ‘शौक़’ हिमाला पर नाज़ करते हैं, उसे सलाम करते हैं-
ऐ हिमाला! ऐ अमीन-ए-दौलत-ए-हिंदोस्तां
ऐ हिमाला! ऐ वक़ार-ओ-अज़मत-ए हिंदोस्तां।
ऐ हिमाला! ऐ शिकोह व सौलत-ए-हिंदोस्तां
ऐ हिमाला! जलाल व सतवत-ए-हिंदोस्तां।
ऐ हिमाला! ऐ अज़ीमुश्शान हस्ती अस्सलाम
अस्सलाम! ऐ ज़ात-ए-अक़दस, फ़ख्र-ए-गीती अस्सलाम!
ऐ मेरे प्यारे वतन के पासबां
ज़िक्र तेरा जां-फ़िज़ा, रंगीन तेरी दास्तां।
जां, फ़िदा करते हैं तुझपे मेहर-ओ-माह व कहकशां
झुक रही है तेरे क़दमों पर जबीन-ए-आसमां।
तू वतन की शान है, हिंदोस्तां का नाज़ है
सर फ़राज-ओ-सर-बुलन्द-ओ-अफज़ल-ओ-मुमताज़ है।
‘मज़हर’ इमाम ने अपनी शायरी में नयी-नयी अलामतों का उपयोग किया है। हिमाला संबंधी उनका यह शेर देखिए-
आज के बौने उड़ाते हैं हिमाला का मज़ाक़
हाथ में पत्थर बहुत हैं सिर कोई ऊंचा नहीं।
उर्दू शायरी में जैहून व सैहून (बलख़ देश की नदियां), दिजला व फुरात (अरब की नदियां) और दरियाए-नील (मिस्र की नदी) का उल्लेख है तो गंगा, जमुना, सरस्वती, कावेरी, नर्मदा, सरजू, गोमती का उल्लेख उनसे अधिक हुआ है क्योंकि ये अपने देश की नदियां हैं। इनमें से प्रत्येक का अपना इतिहास है, अपना महत्व है। ये देश की धरती को सैराब करती हैं, किसानों को जीवन देती हैं तथा ईश्वर के प्रति आस्था जगाती हैं।
गंगा और जमुना पवित्र नदियां हैं। उर्दू शायरी में विपुलता से इनका उपयोग हुआ है। ‘सरवर’ जहांनाबादी ने ‘गंगा जी’ नज़्म में गंगा के हिमाला से निकलकर जनमानस का कल्याण करने की यात्रा का वर्णन किया है-
हिंदोस्तां है एक दरिया-ए-फैज़-ए-कुदरत
और इसमें पंखुड़ी है तू खुशनुमा कंवल की
निकली हिमालिया से मह्वे-फ़रोश होकर
तू आह! तिशना-लब थी वह जल्वा-ए-अजल की।
हिंदोस्तां को तूने जन्नत-निशां बनाया
नहरें कहां-कहां हैं तेरे करम की जारी।
‘सफ़ी’ औरंगाबादी ‘बनारस’ नज़्म में गंगा नदी के सुन्दर किनारों और गंगा में स्नान करने वालों का वर्णन करते हैं-
डूबकर कैसे निकलते हैं सितारे देख लो
ये तमाशा आके गंगा के किनारे देख लो।
वह धुंधलका सुबह का, वह दूर तक गंगा का पाट
वह कगारों से नुमायां, जा-बजा पानी की काट।
वह परीज़ादों के जमघट से परिस्तां राजघाट
दिल बदल जाए जो इंसां की तबीयत हो उचाट।
उतरें पानी में गजर-दम, रोज़ का मामूल है
हर हसीं नाजुक बदन, गोया कमल का फूल है।
गंगा नदी अपनी महानता के कारण उर्दू शायरों की प्रिय नदी रही है। कुछ और शेर देखें-
हिमाला की चांदी पिघलती रहे
मेरे घर में गंगा उबलती रहे।
(सुलेमान ख़तीब)
तेरी गंगा का वह ख़िराम नाज़
आब-ए-रूद-ए-चमन का वह अन्दाज़।
(‘शरर’ फ़तेहपुरी)
गई है दामन-ए-गंगा को छू के जब भी हवा
तमाम आलम-ए-मशरिक में फ़न के फूल खिले।
(नौशाद)
ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा, वह दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा।
(डॉ. इक़बाल)
एक परिंदा चीख़ रहा था मस्जिद के मीनारे पर
दूर कहीं गंगा के किनारे आस का सूरज ढलता है
(‘नूर’ बिजनौरी)
इतना दिल-ए-‘नईम’ को वीरां न कर हिज़ाज
रोएगी मौज-ए-गंग जो उस तक ख़बर गई।
(हसन ‘नईम’)
गंगा-जमुना पवित्र नदियां हैं। देश की मूल्यवान धरोहर हैं। ‘नाज़िश’ प्रतापगढ़ी ने इनकी पवित्रता के गीत गाये हैं-
ये रूद-ए-सरजू हैं या तक़द्दुस की आंच में रूह गल गई है
पवित्र जमुना के रूप में बांसुरी की इक तान बह रही है।
ये पाक गंगा, कि जिससे कल्ब-ओ-नज़र को आसूदगी मिली है
हमारी धरती ने हाथ फैला के हमको आशीर्वाद दी है।
ये नन्हीं मौजें हैं या किसी मह-जबीं के अब्रू की जुंबिशें हैं
ये गर्म लहरों का है तरन्नुम, कि दिल की मासूम धड़कनें हैं।
जैमिनी ‘सरशार’ ‘हिन्दोस्तां हमारा’ नज़्म में गंगा और जमुना के लिए निम्नलिखित भावनाएं प्रकट करते हैं-
पाकीज़गी के मज़हर गंग-ओ-जमन हमारे
अज़मत का अपनी पैकर कोह-ए-गरां हमारा।
यहां आस्मां-बोस कोह-ए-हिमाला
बने हिन्द के वास्ते वजह-ए-शोहरत
जहां से निराला भारत ये भारत।
फ़ख्र से गंग-ओ-जमन, हैं जिसके आंगन में रवां
ताज है जिस देश में मेहर-ओ-मुहब्बत का निशां
मिर्ज़ा मोहम्मद अशफ़ाक ‘शौक़’ ‘वतन वालो’ नज्म में देशवासियों से कहते हैं कि तुम्हारे देश ने तुम्हें बहुत कुछ दिया है। गंगा-जमना जैसी नदियां दी हैं, अवध और काशी जैसे नगर दिये हैं-
तुम्हारी हैं ये गंगा और जमुना अवध की शाम, काशी का सवेरा
तुम्हारा है ज़माने में चर्चा तुम अपने आपको बेदार रखो।
वतन वालो! वतन से प्यार रखो!
‘अली सरदार जाफ़री’ उर्दू ज़बान की मिठास और शक्ति का वर्णन करते हैं तो गंगा के जल को भी इसका श्रेय देते हैं-
ज़बां वह, धुल के जिसको गंगा के जल से पाकीज़गी मिली है
अवध की ठंडी हवा के झोंकों से, जिसके दिल की कली खिली है।
जो शेर-ओ-नग़मा के ख़ुल्द-ज़ारों में आज कोयल सी कूकती है
इसी ज़बां में हमारे बचपन ने माओं से लोरियां सुनी हैं।
इसी ज़बां ने वतन के होंटों से नारा-ए-इंकलाब पाया
इसी से अंग्रेज़ हुकमरानों ने ख़ुदसरी का जवाब पाया।
गंगा जल के बहुत-से लाभ हैं। हिन्दू घरों में गंगा जल अवश्य ही रखा जाता है। उर्दू शायर ख़ुदा की तारीफ़ में शेर कहते हैं तो उसमें भारतीय रंग मिला देते हैं। देश की हर वस्तु में उन्हें वही कुछ दिखायी देता है जो दूसरी भाषाओं के कवियों को दिखायी देता है। धार्मिक नगरी से आने वाले बादल भी सादा पानी ही लाये तो क्या? उन्हें तो पवित्र जल लाना चाहिए। ‘मोहसिन’ काकोरवी कहते हैं-
सम्त-ए-काशी से चला, जानिब-ए-मथुरा बादल
बर्फ़ के कांधे पे लायी है, सबा गंगा जल।
कृष्ण बिहारी ‘नूर’ श्रद्धावनत होकर कहते हैं-
बहार देवी है अपनी, तो देवता बादल
हमारी आंख के आंसू ही हमको गंगा-जल।
प्रेम वारबर्टनी का अनुभव कुछ दूसरा है-
मेरे शीतल मन की ज्वाला को तो, और भी भड़काया है
लोग तो न जाने क्या कहते हैं गंगा-जल के बारे में।

गंगा-जमुना में स्नान करके आने का अवसर क़िस्मत वालों को मिलता है। जो यह गौरव प्राप्त करते हैं उनको बधाई दी जाती है। ‘मोहसिन’ काकोरवी का एक शेर है-
घर में अश्नान करें, सरु कदान-ए-गोकुल
जा के जमना पे नहाना भी है एक तूल अमल।
उर्दू शायरी में भारत की कुछ और महत्वपूर्ण नदियों का उल्लेख मिलता है, देखिए ये शेर-
हैं दिलफ़रेब मंज़र, पहलू में नर्बदा के
रूह-ए-रवां है गंगा, आब-ए-रवां हमारा।
(नातिक़ गुलावठवी)
मंदाकिनी नदी सी लगे वह सुबक-ख़िराम
मन की पवित्रता में वह गंगा दिखाई दे।
(डॉ. शबाब ललित)
कभी गंगा में भटकता है कभी जमना पर
घाघरा से कभी गुज़रा, कभी सू-ए-चंबल।
(‘मोहसिन’ काकोरवी)
बहार-ए-जन्नत से ता अरज़-ए-कावेरी
वतन में मेरे कितनी नकहतें आबाद हैं।
(आले अहमद सुरुर)
भारत के नगर, एतिहासिक धरोहर
भारत में क्या नहीं है? सुन्दर वैभवशाली नगर हैं, ऐतिहासिक धरोहरें हैं, सुन्दर पर्यटन स्थल हैं…. ताजमहल, लाल क़िला, कुतुब मीनार, गोलकुंडा, अजंता, एलोरा हैं, जो देश के गौरवशाली इतिहास की कथा सुनाते हैं। आकर्षक दिल्ली है, सुब्ह-ए-बनारस, शाम-ए-अवध है, मालवे की रातें हैं… गोया उर्दू के शायरों ने भारत के अतीत, तथा भारत के वर्तमान दोनों को उर्दू शायरी में समो दिया है। पत्थरों तथा शब्दों में अतीत को सुरक्षित कर दिया है। उर्दू शायरी में भारतीयता के ये सुन्दर उदाहरण देखिए:
सलामत रहें मेरे गंग-ओ-जमन
ये अजमेर-ओ-काशी की बांकी फबन।
एलोरा-अजंता का रंगीं सुहाग
सलामत रहे मेरा प्यारा वतन।
(सुलेमान ख़तीब)
ये है हिमाला की ज़मीं, ताज-ओ-अजंता की ज़मीं
संगम हमारी शान है, चितौड़ अपनी आन है
गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट, गोकुल का बन
गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं
(‘सीमाब’ अकबराबादी)
ये लाल क़िले की सुर्ख़ तामीर, जम गया हो गुलाल जैसे
नुक़ूश-ए-एलोरा के पत्थरों पर के चश्म-ए-गीती में ख़्वाब जैसे-
कुतुब की ये लाट, अज़्म-ए-आदम की सूरत कामियाब जैसे।
कमाल-ए-फ़न की करिश्मा-साज़ी से, इक-इक अंग बोल उठा है
नज़र अजंता की सम्त उठाओ, जहां दिल-ए-संग बोल उठा है
(‘नाज़िश’ प्रतापगढ़ी)
कुतुब लाट-ओ-ताज-ओ-अजंता-एलोरा
हर इक चीज़ है शाहकार-ओ-अजूबा।
बने हिन्द के वास्ते वजह-ए-शोहरत
जहां से निराला हमारा ये भारत।।
(‘नूर’ इन्दौरी)
किसने देखे होंगे अब तक ऐसे निराले पत्थर
मैंने अपने ताजमहल में चुनवाए हैं काले पत्थर
(‘प्रेम’ वारबर्टनी)
भारत के राज्यों और शहरों की झलकियां उर्दू शेरों द्वारा प्राप्त करना हो तो पढ़िए ये शेर-
वही है मय आज भी, ताज के जाम-ए-बल्लूरीं में
अवध की शान के वो मैकदे आबाद हैं अब भी।
बहारें मेरी सदियों की चमनबन्दी का हासिल हैं
लब-ए-तारीख़ को मेरे फ़साने याद हैं अब भी।
(आले अहमद सुरूर)
उड़ी है संगम से जब भी ख़ुशबू, तो आबरू-ए-ख़ुतन गई है
हंसी है जब रात मालवे की, तो रौशनी दिल में छन गई है।
पठार अरज़-ए-दकन के हैं या निगाह-ए-महबूब तन गई है
कोई अमावस की रात लहरा के जुल्फ-ए-बंगाल बन गई है।
निगार-ए-दिल्ली की ये सजावट कथाकली का रूप हो जैसे
यह लखनऊ की हसीन शामें गुलाबी जाड़े की धूप हों जैसे।
(‘नाज़िश’ प्रतापगढ़ी)
शब्दों की शमएं पिघलीं,
लो ख़ामोश हुआ गुजरात।
(‘आदिल’ मंसूरी)
‘अमीक़’ छेड़ ग़ज़ल, ग़म की इंतहा कब है
ये मालवे की जुनूं-ख़ेज़ चौधवीं शब है।
(‘अमीक़’ हनफ़ी)
दिल से दूर हुए जाते हैं ग़ालिब के कलकत्ते वाले
गौहाटी में देखे हमने ऐसे-ऐसे चेहरे वाले।
(मज़हर इमाम)
क्या जाने जा बसा है वह किस चित्रकूट में
जिसके बिरह में रोती-बिलखती रहती है रूह।
(डॉ. शबाब ललित)
तग़ाफुल कमाल-ए-फ़न मिज़ाज रामपुर है
तू मुझसे बे-रूख़ी में, बज़्म-ए-दोस्त बे-कसूर है।
(‘शाद’ आरिफ़ी)
ऐ ‘मुज़फ़्फ़र’ किसलिए भोपाल याद आने लगा
क्या समझते थे कि दिल्ली में न होगा आसमां।
(‘मुजफ़्फ़र’ हनफ़ी)
दिल्ली भारत का दिल है। ये कई बार उजड़ी और बसी। इसके उजड़ने, बसने की दास्तां ‘मीर’ की इन पंक्तियों से प्रकट है-
क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनो
हमको ग़रीब जान के, हंस-हंस पुकार के।
दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतेख़ाब
रहते थे मुंतख़िब ही जहां रोज़गार के।
उसको फ़लक ने लूट के वीरान कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के।
मौलाना मुहम्मद अली ‘जौहर’ ने भी दिल्ली के उजड़ने पर दुख प्रकट किया है-
रौनक़-ए-देहली पे रश्क था कभी जन्नत को
यों ही यह उजड़ा दयार देखिए कब तक रहे।
‘दाग़’ देहलवी की ज़िंदगी दिल्ली में गुज़री। वह उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते, पर उसको किसी की नज़र लग जाने, उसके उजड़ जाने पर मन मसोसकर रह जाते हैं-
फ़लक-जवाब व मलायक-जवाब थी दिल्ली
बहिश्त, खुल्द-ए-बरीं इंतख़ाब थी दिल्ली।
जवाब काहे को था, लाजवाब थी दिल्ली
मगर ख़्याल से देखो, तो ख़्वाब थी दिल्ली।
पड़ी हैं आंखें वहां, जो जगह थी नर्गिस की
ख़बर नहीं के उसे खा गई, नज़र किसकी।
‘हसन’ नईम अपने एक शेर में दिल्ली की गलियों को याद करते हैं –
ए सबा! मैं भी था आशुफ़्त-सिरों में यकता
पूछना दिल्ली की गलियों से मेरा नाम कभी।
भारत के त्योहार
‘नसर’ कुरैशी का निम्नलिखित शेर उर्दू शायरी में भारतीयता का उत्तम उदाहरण है क्योंकि इसमें भारतवासियों के कई त्योहारों का उल्लेख आ गया है-
होली, दीवाली, दशहरा हो, कि वो ईद का दिन
प्यार के रंग के हर चेहरे को चमकाते चले।
कुछ और उदाहरण देखें जहां भारत के त्योहारों की छटा बिखरी नज़र आती है। दीवाली भारत का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। ‘नज़ीर’ अकबराबादी, ‘सीमाब’ अकबराबादी, आले अहमद सुरूर, गुलाम रब्बानी ‘ताबां’, ‘मख़्मूर’ सईदी, हुरमतुल-इकराम, ‘अफ़सर’ मीरठी, ‘नाज़िश’ प्रतापगढ़ी, ‘क़तील’ शिफ़ाई, ‘शौक़’ जालंधरी, ‘मुनव्वर’ लखनवी आदि के साथ उर्दू के कई शायरों ने दिवाली पर सुन्दर नज़्में लिखी हैं। हुरमतुल-इकराम ने दीवाली मनाने के कारणों का उल्लेख किया है-
रौशनी पुल है अंधेरों के समन्दर के लिए
रौशनी फ़तह-ए-निशां, रौशनी उनवान-ए-मुराद।
जान-ए-अफ़साना है कन्दीलों के परतो-फिगनी
कैकेयी जीत के हारी है, अमावस है यही
राम की हार में थी जीत, ये दीवाली है!
मोमिन खां ‘शौक’ ने दीपावली के दीयों से फैलने वाले प्रेम के प्रकाश से दामन भर लेने की बात कही है-
भारत धर्मों का गुलदस्ता, सबका अपना-अपना रस्ता
प्यार मुहब्बत को अपनाओ, दीवाली के दीप जलाओ।
ईद मुसलमानों का सबसे बड़ा त्योहार है। डॉ. ‘इकबाल’, ‘दानिश’ लखनवी, ‘जफ़र’ शाहिदी, ‘साहिर’ शिफ़ाई, ‘अंजुम’ सिद्दीकी, ‘फ़राज’ हामिदी, ‘नाजिश’ प्रतापगढ़ी आदि ने ईद पर नज़्में लिखी है तो रवींद्र जैन, सुरजीत सिंह बक्शी, कृष्णकुमार ‘मयंक’ आदि ने भी इस त्योहार के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त की है। कृष्णकुमार ‘मयंक’ ईद को संपूर्ण भारत का त्योहार मानते हुए कहते हैं कि इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए… एक दूसरे के गले मिलकर द्वेष, ईर्ष्या का अन्त कर देना चाहिए-
रौशनी को दोस्ती में ले बदल, देख मौक़ा मत गंवा ईद का
सिख ईसाई हिन्दु मुस्लिम ही क्या, है यहां आशिक ज़माना ईद का।
रवींद्र जैन ईद की सेवईयों की मिठास में सबसे मिलकर रहने के गुण से मीठा करने का संदेश देते हुए कहते हैं-
प्यार का लाई है पैग़ाम ज़माने के लिए
ईद आई है गले सबको मिलाने के लिए।
अपने अख़्लाक की शीरीनी भी घोलें इसमें
ईद को सिर्फ़ सिवईयों ही से मीठा न करें।
होली पर उर्दू में असंख्य नज़्में लिखी गयी हैं। शाह ‘हातिम’, ‘नज़ीर’ अकबराबादी, ‘नूर’ नारवी, ‘मीर’, ‘रंगीन’, ‘जोश’, ‘हसरत’, ‘फाईज़’ देहलवी, जान निसार ‘अख़्तर’, बहादुरशाह ‘जफ़र’ आदि ने होली पर यादगार नज़्में लिखी हैं। उदाहरण स्वरूप ‘नज़ीर’ अकबराबादी की नज़्म का एक बन्द पेश है-
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
और सागर मय के छलकते हों तब देख बहारें होली की।
विजयादशमी, रक्षा-बंधन, गणेश-चतुर्थी, राम-नवमी, जन्माष्टमी, बुद्ध पूर्णिमा आदि त्योहारों पर भी उर्दू शायरी में प्रचुर मात्रा में नज्में मिलती है।
कृषि प्रधान देश : भारत
भारत कृषि प्रधान देश है। यहां के गांवों की गोरियां, मेहनत करने वाले किसान, सामाजिक जीवन सब कुछ दर्पण की भांति उर्दू शायरी में झलकते हैं। उदाहरण के लिए भारत की प्रमुख फसलों की जानकारी निम्नलिखित शेरों से प्राप्त कीजिए-
चुपके-चुपके क्या कहते हैं तुझसे धान के खेत
बोल री निर्मल नदिया, क्यों है चांद उदास।
(‘इरफ़ान’ अज़ीज)
कुछ मधुर तानें फ़िजा में थर-थराकर रह गई
धान के खेतों में चंचल पंछियों का शोर था।
(अब्दुर रहीम ‘नशतर’)
जिस खेत से दहक़ां को मयस्सर न हो रोजी
उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो।
(डॉ. ‘इकबाल’)
अगर जौ बेचने वालों के चेहरे लिख लिए जाएं
हमारे मुल्क से गंदुम-नुमाई ख़त्म हो जाए।
(‘शाद’ आरिफ़ी)
मौसम ने खेत-खेत उगाई हैं फ़सलें ज़र्द
सरसों के खते हैं जो पीले नहीं रहे।
(‘मुजफ्फ़र’ हनफ़ी)
भारत की वन संपदा
भारत के वन प्रसिद्ध हैं। इन्हीं वनों में भारतीय संस्कृति जन्मी, पली, बढ़ी है। ऋषि-मुनियों के आश्रमों और गुरुकुलों ने ही देश का इतिहास रचा है। देश के महानतम ग्रंथ इन्हीं वनों के शांत वातावरण में लिखे गये। इन्हीं वनों में श्रीराम और पांडवों ने वनवास का समय गुज़ारा। किस-किस का उल्लेख किया जाये! इन वनों के वृक्षों की ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, परोपकारी वृत्ति से जीवन स्मशान बनने से बचा हुआ है। ये वृक्ष जो त्याग और परोपकार की शिक्षा देते हैं बरगद हैं, पीपल हैं, शीशम, शहतूत हैं, नीम, बबूल हैं। उर्दू शायरी से आइए कुछ शेर इनके विषय में पढ़ें। बरगद, पीपल के वृक्षों का धार्मिक महत्व तो है ही ये अपनी घनी छाया के कारण भी वन्दनीय हैं-
बरगद की छांव में राही, पल दो पल को बैठ गए
पत्तों के दरमियां से आकर, लगा गई फुलवारी धूप।
(‘ख़ालिद’ महमूद)
देखूं तो मेरे जिस्म पे शाख़ें हैं न पत्ते
सोचूं तो घनी छांव है, बरगद से ज़ियादा।
(‘इक़बाल’ साजिद)
बहुत चैन मिलता था पीपल की छांव में
छुट्टियां मनाने जब जाते थे गांव में।
वो जुम्मन की बकरी, वो चौधरी की बछिया
अठखेलियां करती थीं पीपल की छांव में।
(ख़्वाजा मसूद हमन कुरैशी)
जगमगाहट से परों के कुछ चमक उठी थी शाम
फिर घना पीपल इसी जुल्मत में डूबा जा रहा।
(‘ज़ेब’ ग़ौरी)
बचपन में आकाश को छूता सा लगता था
इस पीपल की शाख़ें अब कितनी नीची हैं।
नीम एक बहु उपयोगी वृक्ष है। नीम कड़वा होता है परंतु उसके लाभ अनगिनत हैं। नीम और कीकर कड़वे-कंटीले होकर भी सबके काम आते हैं-
तल्खियां नीम के पतों की मिली हैं हर सू
ये मेरा शहर किसी फूल की खुशबू भी नहीं।
(‘जुबैर’ रिज़वी)
यारो मेरे पागलपन का सचमुच कोई इलाज नहीं है
नीम-नीम पर कोयल चाहूं, कीकर-कीकर जामुन ढूंढू।
(बिमल कृष्ण ‘अश्क’)
शीशम की लकड़ी, शहतूत के फल और चिनार की सुन्दरता के भी उर्दू शायरी में स्थान-स्थान पर उदाहरण मिलते हैं। कुछ शेर देखें-
मेरे शीशमों की छांव में हैं धूप के ठिकाने
मेरी नदियों की लहरों में है आग का बसेरा।
(शेर अफ़ज़ल जाफ़री)
शाख़ें बहुत क़रीब थीं शहतूत की मगर
अपनी गिरफ़्त डूब गयी नीम के तले।
(‘अहमद’ अज़ीमाबादी)
चनार शाख़ ज़र-निगार धूप मेरे साथ थी
गुबार-ए-बाम-ओ-दर बिना ज़मीन सख्त हो गई।
शहर-ए-जुनूं की धूप जला देगी जिस्म-ओ-जां
चलिए चलें घनेरे चनारों के पास हम।
(‘प्रेम’ वारबर्टनी)
आम और महुआ की सुगंध से भारतीय फ़िज़ायें महकती रहती हैं। कोयलों की कूक मन को अनायास खींच लेती है-
इसी आम की कोख से एक दिन मेरा भोलापन उपजा था
इसी आम की जड़ें खोदकर इक दिन अपना बचपन ढूंढूं।
(बिमल कृष्ण ‘अश्क’)
भीनी-भीनी महुआ की बू, दूर गांव से आये है
भूली-बिसरी कोई कहानी नस-नस में आग लगाये है।
(शमीम अनवर)
भारत के फलों को भी उर्दू शायरी में जगह मिली है। आम, अनार, सेब तो प्रसिद्ध फल हैं, केले, शरीफ़े, नींबू आदि पर भी शेर मिल जाते हैं। पेश हैं चंद शेर-
शरीफ़े के दरख़्तों में छिपा घर देख लेता हूं
मैं आंखें बन्द करके, घर के अन्दर देख लेता हूं
(मुहम्मद अल्वी)
झूमकर केले के पौधे ने बुलाया था हमें
वह भी निकला कोयले की गर्द में लुथड़ा हुआ
(अज्ञात)
सिमटी हुई चौखट पर इक धूप की बिल्ली सी
नीबू की क्यारी में चांदी के कई कंगन
(‘निदा’ फाज़ली)
अहल-ए-हुनर सलामत, दुनिया का ग़म न कर
बेरी अगर है घर में, तो पत्थर भी आएंगे
(‘ख़लिद’ मेहमूद)
भारत का राष्ट्रीय फूल कमल है जो उर्दू में कंवल कहलाता है। कंवल पर दो शेर पेश हैं-
ये मौज़-ए-नूर ये भरपूर खिली हुई रात
कि जैसे खिलता जाए एक सफ़ेद कंवल।
(‘फ़िराक’ गोरखपुरी)
वक़्त का दरिया, कि मैं जिसमें कंवल बन कर खिला
सोचिए तो बहर है, और देखिए तो आब-जू।
(‘आरिफ़’ अब्दुल मतीन)
सोसन, यास्मीन, गुलाब आदि ईरान के फूल हैं, उनका उल्लेख उर्दू शायरी में है तो भारत के जाई, जूही, सूर्यमुखी, चंपा, चमेली, सेवंती, रात की रानी आदि भी उर्दू शायरी के बगीचे को महकते हैं-
ख़ाकस्तर जान को मेरी महकाए था लेकिन
जूही का वह पौधा मेरे आंगन में नहीं था।
(‘ज़ेब’ गौरी)
घर-घर खिले हैं नाज़ से सूरजमुखी के फूल
सूरज को फिर मानेअ-दीदार कौन है?
(शम्सुर रहमान फ़ारुक़ी)
बाद-ए-शाम आए महक उठे मेरा सेहन ‘रियाज़’
बे-महक झाड़ियों से रात की रानी निकले।
(‘रियाज़’ मजीद)
जिस तरफ़ देखिए बेले की खिली हैं कलियां
लोग कहते हैं कि करते हैं फ़िरंगी कौंसिल।
(‘मोहसिन’ काकोरवी)
खड़ा है ओस में चुपचाप हरसिंगार का पेड़
दुल्हन हो जैसे हया की सुगंध से बोझिल।
(‘फिराक़’ गोरखपुरी)
भारत में भांति-भांति के पक्षी हैं। कोयलों की कूक, पपीहे की पी कहां, मोर का नृत्य काव्य के जाने-पहचाने अंग हैं। उर्दू शायरी में भारतीय पशु-पक्षियों का वर्णन देखिए-
शोख़ हिरनों ने कुलांचे मारीं
मोर के रक्स हुए जंगल में।
(मुहम्मद अल्वी)
‘प्रेम’ तुम्हारे शेर तो चलते-फिरते जादू हैं देखो
सारी बगिया चहक उठी है इन अलबेले मोरों से।
(‘प्रेम’ वारबर्टनी)
मेरे ख़्याल के जुगनू भी साथ छोड़ गए
उदास रात के सूने खण्डहर में तनहा हूं।
(‘मख़्मूर’ सईदी)
शब को ये जज़्ब-ए-मुहब्बत का तमाशा देखा
शमअ परवाने के साथ उड़ गई जुगनू होकर।
(‘मोहसिन’ काकोरवी)
आंख मुश्किल ही से कर पाती है दोनों को अलग
रंग तोतों का हरे पत्तों से मिलता-जुलता है।
(‘ज़ेब’ गौरी)
सब्ज़ा ख़त से हवा होने लगी सुर्ख़ी-ए-लब
चमन-ए-हुस्न से लाल उड़ गये बनकर हरियल।
(‘मोहसिन’ काकोरवी)
ओस का आंचल ओढ़ के रखियो देखें न अलबेले फूल।
हंस चुनेंगे दूर से आकर मोती आज कटोरों से।
(‘प्रेम’ वारबर्टनी)
साफ़ आमादा-ए-परवाज़ है शामा की तरह
पर लगाए हुए मिज़गान-ए-सनम से काजल।
(‘मोहसिन’ काकोरवी)
कितनी वीरान है उजड़े हुए ख़्वाबों की मुंडेर
भूली-बिसरी हुई यादों के पपीहे चुप हैं।
(‘प्रेम’ वारबर्टनी)
भारतीय संगीत
भारतीय शास्त्रीय संगीत की अपनी समृद्ध परंपरा है। भारत के अलग-अलग प्रांतों का लोक संगीत भी अद्वितीय है। भारत में संगीत की विकास यात्रा में सूफ़ियों का भी योगदान रहा है। सूफ़ियों ने न केवल संगीत का प्रचार-प्रसार किया अपितु संगीत में विभिन्न प्रयोग भी किए। नये रागों का, वाद्यों का आविष्कार किया। सहतार (आज का सितार) अमीर खुसरो की ईजाद है। उसी ने पखावज के स्थान पर ढोलक और तबले की परंपरा डाली। क़ौल, कुलबाना, नक्श-ए-गुल, तराना आदि राग-रागनियां बनायीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि उर्दू शायरी में डफ़, रुबाब के स्थान पर भारतीय वाद्य तथा भारतीय राग ही अधिक दिखायी देते हैं। देखें सरगम और कुछ रागों का उल्लेख-
सातों सुरों के राग से जलती है दिल की आग
बाद-ए-फना में भी मेरा शोअला संभल गया।
(‘शहाब’ जाफ़री)
आंखों से उबले हैं दरिया, दिल में लगी है आग
बरखा रुत में छेड़ दे जैसे कोई दीपक राग।
(‘हनीफ़’ कैफ़ी)
मल्हारें गाते हैं मेंढक, ताल किनारे
आसमान पर भूरे बादल मटक रहे हैं।
(‘मुजफ़्फर’ हनफी)
आइए अब कुछ उदाहरण और देखें। उर्दू शायरी में कफ़न, जनाज़ा, तुर्बत पर सहस्त्रों अशआर कहे गये हैं तो चिता, मरघट, राख-धुआं पर भी शेर कहे गये हैं-
अर्थियां शान से ख़्वाबों की सजाओ अब तो
चांदनी ढूंढ़ के लाई है कफ़न ग़ज़लों के।
(‘प्रेम’ वारबर्टनी)
खुशबू के ख़्वाब में न ढली ज़िंदगी मगर
चंदन की लकड़ियों से जलाना मेरी चिता।
(‘प्रेम’ वारबर्टनी)
ग़ल्बा-ए-हक़ है यहां फ़ितरत-ए-इंसानी पर
राजा मजबूर है मरघट की निगहबानी पर।
(‘नाज़िश’ प्रतापगढ़ी)
जिस तरह हसरतों के मरघट में
धीरे-धीरे सुलग रहा है धुआं।
(‘प्रेम’ वारबर्टनी)
मंदिर, पूजा की थाली, आरती, जोगी, ज्योतिष-शास्त्र, पुनर्जन्म आदि भारतीय जीवन में रचे-बसे, घुले-मिले तथ्य हैं फिर उर्दू शायरी में उनका उल्लेख कैसे नहीं मिलेगा? भारत की शायरी में भारतीयता तो होगी ही-
आरती हम क्या उतारें हुस्न-ए-माला-माल की
बुझ गयी हर जोत पूजा के सुनहरे थाल की।
(प्रेम वारबर्टनी)
चली जो याद तुम्हारी जगाती हुई
भटक गया कोई जोगी किसी ठिकाने का।
(प्रेम वारबर्टनी)
आंसू बन कर टूट गया था, जो सपनों की पलकों में
सात युगों से सोच रहा हूं, मैं उस पल के बारे में।
उर्दू भारत की ज़बान है, उर्दू भारत के प्रत्येक नागरिक की ज़बान है, इसीलिए भारतीयता उसकी पहचान है।
भाग-एक के लिए क्लिक करें
उर्दू शायरी में भारतीयता – भाग एक

डॉ. बानो सरताज
17 जुलाई 1945 को जन्मीं डॉ. बानो सरताज महत्वपूर्ण लेखक हैं। राष्ट्रपति अवार्ड सहित साहित्य अकादमियों से पुरस्कृत हो चुकी हैं और सामाजिक संस्थाओं से भी। साहित्य की तमाम विधाओं में क़रीब ढाई दर्जन किताबें प्रकाशित हैं। तीन विषयों में एम.ए. के बाद एम.एड., पीएच.डी. सहित अनेक कोर्स भी आपने किये और लंबा जीवन अध्यापन में व्यतीत किया। साहित्य, सामाजिक सरोकार और शिक्षा से लगातार संबद्ध रहने वाली डॉ. बानो इन दिनों भी सक्रिय हैं और अपने जीवन भर के लेखन को प्रकाशन के लिए संजो रही हैं।
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