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जवाहरलाल नेहरू की जयंती पर विवेक रंजन श्रीवास्तव की कलम से....

पं. नेहरू: बेटी का पिता होने की सोच-समझ

           बेटियाँ अक्सर पिता की आँखों में अपने सपनों की पहली झलक देखती हैं। पर जब उस पिता का नाम जवाहरलाल नेहरू हो और बेटी का नाम इंदिरा गांधी, तब यह रिश्ता सिर्फ़ घर की चारदीवारी में नहीं रहता, इतिहास के पन्नों पर उतर आता है। नेहरू ने इंदिरा की परवरिश जिस तरह की, वह आज भी बेटियों के पिताओं के लिए प्रेरणा बन सकती है। उन्होंने उसे केवल पाल-पोसकर बड़ा नहीं किया, बल्कि अपने आदर्शों, संघर्षों और विचारों से गढ़ा, जैसे कोई मूर्तिकार पत्थर में प्राण फूंकता है।

इंदिरा का बचपन किसी राजकुमारी की कहानी नहीं था। मां कमला नेहरू की बीमारी, पिता का जेल जीवन और आज़ादी की लड़ाई की आँधियों के बीच वह अकेली बच्ची थी जो पत्रों में पिता को ढूंढ़ती थी। नेहरू के लिखे वे पत्र, जिन्हें बाद में ‘पिता के पत्र बेटी के नाम’ के नाम से पुस्तक रूप मिला, किसी स्कूली पाठ्यपुस्तक से अधिक जीवन दर्शन से भरे थे। उनमें विज्ञान था, प्रकृति थी, इतिहास था और सबसे बढ़कर विचारों की आज़ादी थी। नेहरू ने इंदिरा को यह नहीं सिखाया कि क्या सोचना है, बल्कि यह सिखाया कि ख़ुद सोचना कितना ज़रूरी है। यही शिक्षा आगे चलकर उनके राजनीतिक व्यक्तित्व का मेरुदंड बनी।

कभी इंदिरा ने अपने पिता से शिकायत की थी कि वे हमेशा जेल में क्यों रहते हैं। जवाब में नेहरू ने लिखा “जब स्वतंत्रता ख़तरे में हो, तब घर में बैठना कैसा पिता होना होगा।” शायद इसी संवाद ने इंदिरा को समझा दिया था कि देश के लिए संघर्ष करना घर की चिंता से बड़ा कर्तव्य है। यही वह बीज था, जिससे भविष्य की लौह महिला का व्यक्तित्व अंकुरित हुआ।

बचपन की एक घटना दिलचस्प है। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में इंदिरा ने अपने मोहल्ले के बच्चों के साथ मिलकर ‘वानर सेना’ बनायी। कोई और पिता होता तो शायद बच्ची की शरारत समझकर हँस देता, पर नेहरू ने इसे प्रोत्साहित किया। उन्होंने देखा कि बच्ची में नेतृत्व के गुण हैं। उन्होंने उसे वही ज़िम्मेदारी दी, जो बेटों को दी जाती है, कभी हिचकिचाये बिना।

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नेहरू के लिए इंदिरा बेटी नहीं, एक साथी थी। जेल से भेजे पत्रों में वह अपने अनुभव, अपने अध्ययन, अपने स्वप्न साझा करते। इंदिरा ने एक बार कहा था “हमारा रिश्ता पिता-पुत्री का कम, साथी का ज़्यादा था।” यह कथन नेहरू की उस आधुनिक सोच का प्रमाण है, जो उस समय दुर्लभ थी जब अधिकांश पिता बेटियों को पर्दे में रखना गर्व समझते थे।

इंदिरा के विवाह के समय जब तरह-तरह की अफ़वाहें फैलीं, तब नेहरू ने सार्वजनिक रूप से बेटी के निर्णय का समर्थन किया। उन्होंने कहा “इंदिरा अपना जीवन साथी चुनने के लिए स्वतंत्र है।” यह एक पिता की वही आवाज़ थी, जो बेटी के आत्मसम्मान के साथ खड़ी रहती है, भले संसार क्या सोचे। इस एक घटना ने उस दौर की सामाजिक रूढ़ियों को हिला दिया। आज भी यह मिसाल पिताओं के लिए प्रेरणा है।

राजीव गांधी के जन्म पर परिवार चाहता था कि नाम राहुल रखा जाये, पर नेहरू ने अपनी राय दी और राजीव नाम चुना गया। इंदिरा ने बिना विवाद किये पौत्र के लिए ‘राहुल’ नाम आगे सुरक्षित रखा, पिता के निर्णय का सम्मान और अपनी स्वतंत्र सोच, दोनों का संतुलन। यह संतुलन शायद केवल वही रख सकती थीं, जिन्हें पिता ने संवाद की आज़ादी दी थी।

नेहरू ने कभी यह नहीं जताया कि उन्हें पुत्र की इच्छा थी। उन्होंने इंदिरा में वही सामर्थ्य देखी, जो किसी पुत्र में देखी जाती है। बल्कि उनसे भी अधिक, क्योंकि इंदिरा केवल नेहरू की बेटी नहीं थीं, उनकी विचारधारा की वारिस थीं। यह बात उस समय कही गयी, जब समाज बेटी को परिवार का उत्तराधिकारी नहीं मानता था। नेहरू ने इस धारणा को अपने आचरण से तोड़ा, किसी भाषण से नहीं।

नेहरू की परवरिश का असर यह हुआ कि इंदिरा ने नारीत्व को कमज़ोरी नहीं, शक्ति के रूप में पहचाना। उन्होंने राजनीति में वही दृढ़ता दिखायी, जो नेहरू ने उन्हें दी थी। जब कभी उन्होंने विरोधों और संकटों का सामना किया, भीतर से पिता के पत्रों की पंक्तियाँ गूंजती होंगी “संकट में जो शांत रह सके, वही सच्चा नेता होता है।”

आज जब समाज फिर से बेटी और बेटे के बीच भेदभाव की लकीरें खींचने लगा है, नेहरू और इंदिरा की यह कहानी हमें याद दिलाती है कि बेटियों को सशक्त बनाने के लिए भाषण नहीं, विश्वास चाहिए। वह विश्वास जो नेहरू ने इंदिरा में किया था।

हर पिता अगर अपनी बेटी में वही आत्मबल, वही जिज्ञासा, वही सोचने की स्वतंत्रता पैदा करे, तो यह देश सचमुच उस भारत का रूप ले सकता है जिसका सपना नेहरू ने देखा था, जहां हर नागरिक सोचने और चुनने के लिए स्वतंत्र हो।

नेहरू ने केवल भारत का भविष्य नहीं गढ़ा, उन्होंने एक बेटी के माध्यम से यह सिद्ध किया कि जब पिता पुत्री में विश्वास करता है, तो वह समाज की दिशा बदल देती है। शायद यही कारण है कि आज भी जब कोई पिता अपनी बेटी को आत्मविश्वास से भरी आंखों से देखता है, तो उसमें नेहरू की छवि झलकती है। एक ऐसे पिता की, जिसने अपनी बेटी को सिर्फ़ जन्म नहीं दिया, बल्कि उसे ‘भारत की इंदिरा’ बनाया।

(तस्वीर गेटी इमेज के ज़रिये इंटरनेट से साभार)

विवेक रंजन श्रीवास्तव, vivek ranjan shrivastava

विवेक रंजन श्रीवास्तव

सेवानिवृत मुख्य अभियंता (विद्युत मंडल), प्रतिष्ठित व्यंग्यकार, नाटक लेखक, समीक्षक, ई अभिव्यक्ति पोर्टल के संपादक, तकनीकी विषयों पर हिंदी लेखन। इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स के फैलो, पोस्ट ग्रेजुएट इंजीनियर। 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। हिंदी ब्लॉगर, साहित्यिक अभिरुचि संपन्न, वैश्विक एक्सपोज़र।

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