
- May 2, 2025
- आब-ओ-हवा
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कश्मीर : नरेटिव और मेरे अनुभव
‘नरेटिव-नरेटिव’ की चीख़ों से भरे गले तो बैठ जाने चाहिए अब तक…नहीं?
सौ बातों की एक बात यह है कि विगत पांच दशकों से कश्मीर में व्याप्त आतंकवाद एक मज़हबी आतंकवाद है और यह मज़हब है इस्लाम। इसकी शुरूआत ही मज़हबी ताने-बाने से हुई थी। अब चाहे वह दिसंबर 1963 में हज़रतबल से चोरी हुए “मू-ए-मुक़द्दस” (पैग़म्बर मुहम्मद की दाढ़ी के बाल) के बाद उठे हाहाकार की शिनाख़्त करनी हो या फिर उसके तुरंत बाद पाकिस्तान-प्रायोजित ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ के तहत घुसपैठियों द्वारा स्थानीय कश्मीरियों के मज़हबी जज़्बात को उकसाना हो।
“ब्लीड इंडिया विद थाउज़ेंड कट्स” की थ्योरी के पार्श्व में जनरल ज़िया उल हक़ का इरादा भी मज़हबी ज़ियादा था, ज़मीनी कम। तो इस बात को मान लेने में किसी भी पढ़े-लिखे इंसान को किसी भी क़िस्म का उज़्र क्यों होना चाहिए? क्या यह कह देने से यह कह देना होता है कि भारत के सारे मुस्लिम कश्मीरी आतंकवाद से जुड़े हुए हैं? क्या ही वाहियात नतीजा निकालना हुआ यह।
…लेकिन ‘हिंदी-पट्टी’ के अधिकांश लेखक व कवि, जो अमूमन सच और संवेदना की तुरही बजाते नहीं थकते, मजाल है कि कश्मीर में फैले आतंकवाद को एक मज़हब से जुड़ा मान लें! क्या यह मान लेने से मेरे इतने जो मुस्लिम दोस्त हैं मुझसे रूठ जाएंगे? हिंदी के लेखकों में अगर मैं भी शामिल हूं तो मैं तो इस आतंकवाद का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तौर पर सबसे बड़ा भुक्तभोगी हूं। मेरे जिस्म में पैवस्त गोली, जो अब भी इतने सालों बाद टीस मारती है, वो एक कश्मीरी मुस्लिम युवक की बंदूक़ से निकली थी। जाने कितने साथी खोये हैं मैंने इसी कश्मीरी आतंकवाद में! लगभग पंद्रह साल कश्मीर में गुज़ार लेने के बाद फिर तो मुझे इस्लाम धर्म मानने वाले किसी भी शख़्स के साथ उठने-बैठने से गुरेज़ होता!
एक मज़ेदार वाक़िया याद है ‘हिंदी-पट्टी’ का। मेरी लिखी एक कहानी है ‘गर्लफ़्रेंड्स’, जो कश्मीरी आतंकवाद की एक सच्ची मुठभेड़ पर आधारित है। उस कहानी को सबसे पहले मैंने तद्भव पत्रिका के लिए अखिलेश जी को भेजा था। उन्हें कहानी बहुत पसंद आयी। भाषा, शिल्प और कथ्य तीनों की तारीफ़ की उन्होंने, लेकिन कहानी एक हिस्से से उन्हें परेशानी थी। उस हिस्से में मुठभेड़ के दौरान आतंकवादी “नारा-ए-तकबीर अल्लाहू-अकबर” की आवाज़ बुलंद कर रहे थे। तद्भव के संपादक जी का कहना था कि मैं उस हिस्से को हटा लूं। मैंने उनसे कहा कि यह आतंकवादी “हर हर महादेव” का उद्घोष तो करेंगे नहीं। वो नाराज़ हो गये। हालांकि बाद में यही कहानी हंस में प्रकाशित हुई, वो और बात है।
कश्मीर में भी मेरे ढेर सारे दोस्त हैं। गांधरबल के रहने वाले सुहैल ने अभी कुछ दिन पहले ही मेरे कुछ रिश्तेदारों को डल झील की सैर करायी…मेरे बस एक कॉल पर। उससे ही बात हो रही थी कल कि पहलगाम त्रासदी के बाद वहां के बाशिंदों द्वारा आयोजित ‘कैंडल-मार्च’ निःसंदेह एक बढ़िया पहल थी। …लेकिन एक मिनट के लिए कल्पना करिए कि उस ‘शूट-आउट’ के बाद अगर इन आतंकवादियों की मुठभेड़ सुरक्षाबलों से हो जाती और उस मुठभेड़ में एक या दो आतंकवादी मारे जाते! यक़ीन मानिए कि उन मारे गये आतंकवादियों के जनाज़े में इस ‘कैंडल-मार्च’ से कई गुणा ज़ियादा भीड़ उमड़ आयी होती!
ये भी कश्मीर का ही सच है। कुदाल को कुदाल कह देना सांप्रदायिक होना नहीं हो जाता है। हां, कुदाल को बार-बार खुरपी कहते रहने से सच्चाई तो नहीं बदलती…कथित प्रतिबद्धताओं पर ज़रूर बड़ा-सा सवालिया निशान आ धमकता है। इति वार्ता।
(झूठ में शक की कम गुंजाइश हो सकती है/सच को जब चाहो झुठलाया जा सकता है -शकील जमाली)
(कश्मीर में आतंकवाद का मुद्दा बग़ैर मज़हब के ज़िक्र के पूरा नहीं होता। पूर्व कर्नल गौतम राजऋषि की फ़ेसबुक पोस्ट यहां साभार।)
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