
- July 19, 2025
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कवि सम्मेलनों में ठेकेदारी आ गयी: गोपालदास नीरज
4 जनवरी 1925 को जन्मे गोपालदास नीरज परिचय के मोहताज नहीं हैं। फ़िल्मी गीत हों या हिन्दी साहित्य, उनका आला मुकाम रहा है। जन्मशती वर्ष और 19 जुलाई को उनकी याद का दिन। तक़रीबन एक दशक पहले नीरज से हिंदी कवि अशोक अंजुम ने ग़ज़लों पर केंद्रित ख़ास बातचीत की थी। यह वार्ता अब भी न केवल पठनीय है, बल्कि विचारणीय है। यहां प्रस्तुत हैं इस प्रासंगिक वार्ता के अंश…
अंजुम – आप हिन्दी काव्य-मंचों से कब और किस उद्देश्य से जुड़े?
नीरज – मैंने एक हिन्दी कवि गोष्ठी में सर्वप्रथम 1941 में एटा में काव्य-पाठ किया था। उस समय मेरा उद्देश्य भाषा का प्रचार-प्रसार और साथ ही साथ अच्छी से अच्छी कविता लिखना था।
अंजुम – आप इस बात से किस हद तक सहमत हैं कि पिछले दशकों की अपेक्षा आज के हिन्दी काव्य-मंचों की दशा और दिशा में भारी बदलाव आया है?
नीरज – आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व हिन्दी के कवि सम्मेलनों में हिन्दी के श्रेष्ठतम कवि और समालोचक अध्यक्षता करते थे और सुनने के लिए पढ़ा-लिखा, साहित्यप्रेमी, काव्यप्रेमी, बुद्धिजीवी वर्ग उपस्थित होता था। उस समय दद्दा मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृकृष्ण शर्मा नवीन, निराला जी, पंत जी, महादेवी जी, बच्चन जी आदि काव्य के पुरोधा अध्यक्षता करते थे और उस समय उसी कवि को मंच पर प्रवेश मिलता था, जिसकी कविता उनके मानदण्डों के अनुसार सही होती या जिसकी कोई पुस्तक प्रकाशित हो चुकी होती थी। मेरा पहला काव्य-संग्रह 1954 में प्रकाशित हुआ। धीरे-धीरे कवि सम्मेलन, जो विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, विद्यालयों में पढ़े-लिखे लोगों के बीच होते थे, वे वहाँ से निकलकर प्रदर्शनियों में, मेलों में, पशुमेलों में पहुँचने लगे और वहाँ शनैः शनैः बुद्धिजीवियों के स्थान पर नासमझ भीड़ का बहुमत हो गया और कवियों ने नीचे उतरकर उनके मनोरंजन को कविता का साधन मान लिया। कवि का धर्म होता है वो नीचे बैठे आदमी को ऊपर उठाये, इसके विपरीत काम कवियों ने किया। इस गिरने के पीछे यशलिप्सा और अर्थलिप्सा थी।
अंजुम – गीतों-ग़ज़लों और छन्दों के एकाधिपत्य को तोड़ते हुए, उसी के समानान्तर हास्य-व्यंग्यकारों की जिन रोचक रचनाओं के द्वारा हिन्दी काव्य-मंचों को व्यापक लोकप्रियता मिली, कालान्तर में भी उन्हीं हास्य-व्यंग्यकारों की अश्लील पैरोडियों, बासी चुटकुलों और भद्दे लतीफ़ों पर रचित नितांत फूहड़ कविताओं और सम्प्रेषण शैली की हास्यास्पद भाव-भंगिमाओं के कारण हिन्दी काव्य-मंचों की लोकप्रियता में भारी गिरावट आयी। आप इस बात से कहाँ तक सहमत हैं?
नीरज – शुरू-शुरू में जब हास्य-व्यंग्य का प्रादुर्भाव मंच पर हुआ तब श्रेष्ठ से श्रेष्ठ रचनाएँ लिखी गयीं। इस दिशा में कवि अशोक चक्रधर, माणिक वर्मा, सुरेश उपाध्याय आदि का बहुत बड़ा योगदान रहा, लेकिन धीरे-धीरे अर्थलिप्सा के कारण बहुत-से अनाधिकारी व्यक्तियों ने मंच पर प्रवेश कर लिया, जो कविता के नाम पर चुटकुले, मिमिक्री, अभिनय आदि लेकर आये, जिन्होंने हास्य-व्यंग्य की परम्परा को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। एक बार एक कवि मंच से चुटकले सुना रहा था, तो नीचे बैठे एक श्रोता ने कहा कि ‘भाई कुछ कविता सुनाइए, चुटकले तो हमने बहुत सुने हैं।’ वह बोला कि ‘भाई मैं तो आपको हँसाने आया हूँ, वही कर रहा हूँ’। वह जानता है कि भीड़ जितनी मेरी प्रस्तुति पर तालियाँ बजाएगी उतनी ही सफलता मिलेगी। इसमें मीडिया की भी ग़लत भूमिका रही क्योंकि जो रिपोर्टर थे उनके पास कविता की समझ का अभाव था। काव्य मंच के पतन के पीछे बस दो ही कारण हैं, अर्थलिप्सा और यशेष्णा।
अंजुम – मंचों से जुड़ी ‘हास्य-व्यंग्य मंडली’ के कुछ कवि कारीगरों, व्यावसायिक विदूषकों और आयोजनों द्वारा परस्पर आदान-प्रदान वाली अर्थात ‘तू मुझे बुला, मैं तुझे बुलाऊँ’ की एक नूतन संस्कृति को जन्म देने वाले धन्धेबाज़ संयोजकों के अनेक गुट अब काव्य-मंचों पर काबिज़ हो गये हैं, जिससे मंच की सारी मर्यादाएं धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। फलस्वरूप अधिकांश काव्य-मंच अब राजकीय संस्थानों अथवा महानगरों के तनावग्रस्त धन-कुबेरों की मानसिक-तुष्टि का साध्य बनकर एक बार फिर उन्हीं नव-धनाढ्य दरबारों की संकुचित सीमाओं में सिमटता जा रहा है… और अधिकांश शालीन-शिष्ट मंच प्रतिष्ठापित कवि उससे कतराते जा रहे हैं। मंच की इन त्रासद स्थितियों के लिए आप किसे उत्तरदायी मानते हैं?
नीरज – सच ही है, आजकल का नियम यह बन गया है कि ‘तू मुझे बुला मैं तुझे बुलाऊँ।’ आजकल कवि संयोजक यह देखते हैं और उन लोगों को बुलाते हैं जो किसी क्षेत्र के संयोजक हों, और कार्यक्रम में दिखावे के लिए किसी एकाध स्थापित गीतकार को बुला लेते हैं। अब कवि सम्मेलनों के ठेकेदार पैदा हो गये हैं। दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, कोलकाता, मुम्बई आदि जगह ठेकेदारी की प्रथा हो गयी है। लोग मिमिक्री करते हैं, लालू आदि की मिमिक्री की जाती है। कवि सम्मेलनों का मंच जितना पतित अब हुआ है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। कभी-कभी तो इनमें भाग लेने में शर्म आती है। अब तो मैं यह करता हूँ कि अधिकांश एकल काव्य-पाठ करता हूँ, जिनमें 200 से 500 तक पढ़े-लिखे लोग आते हैं।
अंजुम – आप हिन्दी काव्य-मंचों के प्रादुर्भाव और उसकी अतीत-यात्राओं से जुड़े मंचों के आलोक-शिखर रूप में समादृत हैं। हिन्दी काव्य-मंचों पर आपके विराट-व्यक्तित्व की एक हनक भी है। उक्त स्थितियों में मंचों की विलुप्त होती स्वस्थ-परम्पराओं और टूटते नैतिक-मानदण्डों के प्रति आप की क्या भूमिका होनी चाहिए?
नीरज – कवि गोष्ठियों का आयोजन किया जाये, वह भी आमंत्रित श्रोताओं के मध्य, जिससे कविता की खोती हुई पहचान पुनः लौटेगी। कविता को जो बुरी तरह से नकार रहे हैं, उसके नाम पर गंदगी फैला रहे हैं, उनके लिए चार पंक्तियां कहूँगा-
तू कवि है तो फिर काव्य को बदनाम न कर
जो मन में गंदगी है उसे आम न कर
कविता तू जिसे कहता वो बेटी है तेरी
चौराहे पर लाकर उसे नीलाम न कर
अंजुम – और अंत में, हिन्दी काव्य-मंचों से जुड़े रचनाकारों और उसके संयोजकों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
नीरज – कवि सम्मेलनों का संयोजन पढ़े-लिखे सुधी लोगों के हाथ में होना चाहिए और संचालन करने वाले को पूरी साहित्यिक गरिमा और परम्परा का ज्ञान होना चाहिए।

अशोक अंजुम
गीत, ग़ज़ल, दोहे और अन्य छन्दों में भरपूर रचनाएं एवं प्रकाशित पुस्तकें अपने नाम कर चुके अशोक अंजुम हिंदी साहित्य की एक लघु पत्रिका 'अभिनव प्रयास' का संपादन भी वर्षों से कर रहे हैं। कवि सम्मेलनों के मंच से लेकर यूट्यूब तक आप सक्रिय हैं। देश के प्रतिष्ठित पत्र, पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ ही अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से भी नवाज़े जा चुके हैं।
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बहुत सटीक सुझाव दिया है नीरज जी ने।
पहल करने की जरूरत है।