
- May 3, 2025
- आब-ओ-हवा
- 1
बच्चों से भी सीखें
हम बच्चों को कितना निराश करते हैं! उस दिन मेरी बेटी और बेटा स्कूल से आने के बाद से ही बहुत उत्साहित थे। क्लास में ‘अर्थ-डे’ के बारे में जो उनकी टीचर ने उन्हें बताया था। दरअसल उस दिन अप्रैल महीने की 22 तारीख़ थी, जिसे पूरी दुनिया में पृथ्वी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। स्कूल में बच्चों से रात 8 बजे पांच मिनट के लिए लाइट ऑफ़ करके और सभी बिजली के उपराण बंद कर धरती व प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने और उसे सहज लेने का मौक़ा देने को कहा गया था। वैसे ये बात कुछ दिनों से रेडियो, एफ़एम, टीवी आदि पर भी कही जा रही थी। दिल्ली में तो नयी नवेली मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता जी की मधुर आवाज़ में एक आह्वान विज्ञापन भी ख़ूब चल रहा था।
उस दिन रात के आठ बजते ही मेरे सात साल के बेटे ने फ़टाफ़ट सभी बल्ब, पंखे, टीवी और बिजली के दूसरे उपकरण बंद कर दिये। बोला, ‘पापा बाहर चलो, आज सब लोग लाइट ऑफ़ करके पार्क में आएंगे। तारे देखने में मज़े आएंगे।’ बेटे के उत्साह ने मुझे भी उत्साहित कर दिया। पर बाहर निकलते ही बेटे का मुँह लटक गया। सब तरफ़ पहले जैसी ही जगमग थी। वह उदासी भरे स्वर में बोला, ‘कोई भी मदर अर्थ के लिए लाइट ऑफ़ करके बाहर नहीं आया। ऐसा क्यों है पापा?’
मैं क्या बोलता! यह वही समाज है जो कोविड के दौर में एक आह्वान मात्र से थाली व दूसरे बर्तन पीटते हुए और हाथ में दीया, मोमबत्ती लिये सड़क पर निकल आया था। पर ऐसे मौके पर जब सभी को अपनी धरती मां के प्रति भावनाएं दर्शानी थीं, पूर्ण शांति और सन्नाटा था। बेटे की निराशा देखकर मैं बस इतना ही बोल पाया कि, ‘देखो कुछ घरों की बत्ती बंद है। सब बाहर तो नहीं आ सकते न। बहुत से लोग बूढ़े भी तो होते हैं बेटा। और फिर आपने अपने हिस्से की समझदारी दिखायी, यह कम बड़ी बात है क्या?’ इक्का- दुक्का घरों में जहां रोशनी नहीं दिखायी दे रही थी मैंने उस ओर उसका ध्यान दिलाया। हो सकता है कि ये वो घर रहे हों जहां के बच्चे अभी स्कूलों में पढ़ते हों और उन्होंने भी ये रस्म निभायी हो।
जानता हूं ऐसे छोटे क़दम से कुछ ख़ास नहीं होगा। मानव ने धरती और प्रकृति को अपूर्णीय क्षति पहुंचा दी है। लेकिन हम अगर बड़े पैमाने पर सायास तरीक़े से काम करें तो बिगड़ी बात बन भी सकती है। याद करें कि कैसे कोरोना काल में इंसानी गतिविधियों में कमी आने से प्रकृति समृद्ध होते हुए दिखायी दी थी। उस तरीक़े से न भी सही किन्तु पेड़ लगाकर, पानी बचाकर, प्लास्टिक के प्रयोग को सीमित करके, बिजली और अन्य उपकरणों के कम और तार्किक प्रयोग जैसे क़दमों से हम ऐसा कर सकते हैं। अमूमन कहे और समझाये जाने पर बच्चे इन आदतों और गुणों को अपनाने को उत्साहित दिखायी देते हैं। कहीं कमी है तो हम वयस्क और बड़े लोगों की नीरस मनोवृत्ति और चलताऊ आदतों में है। हमें कुछ देर के लिए बत्ती बुझा देने जैसे प्रतीकात्मक क़दम भी उत्साहित नहीं करते। आख़िर ऐसे छोटे-छोटे कदम भी तो हमें थोड़ा संवेदनशील बनाते ही हैं। इस मामले में हमें अपने बच्चों से सीखना होगा कि कैसे नई खोजों, आदतों और तौर-तरीक़ों के लिए उत्साहित होकर आगे बढ़ा जा सकता है।
स्कूलों की भूमिका भी इसमें महत्वपूर्ण है। कक्षाओं में सिर्फ़ पूर्वनिर्धारित पाठ्यक्रम ही नहीं सतत पर्यावरणीय विकास के अनुकूल आदतों और रुचियों के विकास पर भी बातचीत होनी चाहिए। संभव हो तो बच्चों के माता-पिता व अभिभावकों को भी इससे जोड़ा जाना चाहिए। उन्हें अपने बच्चों को सुनने और उनसे सीखने की सलाह दी जानी चाहिए। आख़िर हमारे बच्चे कुछ मामलों में बड़ों से आगे जो हैं।

आलोक कुमार मिश्रा
पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।
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छोटे बच्चे सही बातें करें तो उनका साथ देना जरूरी है वरना वो भी आपका साथ नही देंगे।
सार्थक लेख बधाई