
- October 30, 2025
- आब-ओ-हवा
- 1
पाक्षिक ब्लॉग डॉ. आलोक त्रिपाठी की कलम से....
आधुनिक चिकित्सा पद्धति: एक अर्धसत्य क्यों है?
आजकल के समय में, यह कहना भी जैसे एक पाप हो कि जो भी आपके डॉक्टर आपसे कह रहे हैं, वो शुद्ध सत्य नहीं है। उसके पीछे उनकी मंशा आपके स्वस्थ होने के अलावा कोई और भी है। वैसे कभी सोचा है कि भारी-भारी बैग लिये स्मार्ट टाइप के युवक-युवतियां, डॉक्टर साहेब के कैबिन के आगे उन्हें कौन-सा मेडिकल साइन्स पढ़ाने आये हैं? जो डॉक्टर साहेब ने अपनी चिकित्सीय शिक्षा में पढ़ना भूल गये थे। या फिर कुछ दिन पहले, किसी अन्य डॉक्टर द्वारा कराये हुए टेस्ट्स को दरकिनार करते हुए फिर से कराये हुए टेस्ट्स में क्या नया ढूंढ लेंगे साहब? ख़ैर मुझे क्या। बहरहाल यहां जो मुझे कहना है वह यह है कि प्रतिदिन के स्वास्थ्य संबंधी नित्य नये ज्ञान की तलाश में रहना और उसका त्वरित अनुपालन कोई आधुनिकता नहीं, मूर्खता है।
सच बताऊं तो क़रीब चार दशक से ज़्यादा हो गये इस विज्ञान के क्षेत्र में लिखते-पढ़ते। लेकिन इस सदी की शुरूआत से ही कुछ ऐसा लिखा जाने लगा है- जो कि पिछले 2 दशकों में जो भी पढ़ा- उसके बिल्कुल विपरीत है। शुरूआत में यह सोच स्वीकार करता रहा कि नित्य नूतन होना विज्ञान के संस्कार है। किन्तु बात इतनी ही नहीं है। कुछ उदाहरण देखिए। हमने पढ़ा था इस धरती पर ऊर्जा का एकमात्र स्रोत सूर्य ही है, और जीवन को गति उसी से मिलती है, लेकिन इधर पता चला कि सूर्य की किरणों से कैंसर होता है। अब न चाहते हुए भी यह प्रश्न उठता है कि अगर सूर्य के प्रकाश से कैंसर होता हैं तो हम इस धरती पर हैं ही कैसे? हमारे पूर्वज तो कपड़े ही नहीं पहनते थे, तो इसके अनुसार वह कैंसर से ही मर गये होते। और न होता बांस न बजती बांसुरी। फिर ये लिख-पढ़ कौन रहा होता? लेकिन इसकी अगली कड़ी में शायद आपको इसका उत्तर मिल जाये, कि विज्ञान के वो ही नये शोध ये आगे कहते है कि सनस्क्रीन लोशन लगाने से इससे बचा जा सकता है।
कोई बात नहीं, चलो कुछ पैसा ख़र्च करके स्किन कैंसर अर्थात त्वचा के कर्क से बच जाएंगे, तो कोई महंगा सौदा नहीं है! हो सकता हो सूर्य देव का मूड ख़राब हो गया हो! पर यहां पर एक और समस्या है। अगर सनस्क्रीन लगाते हैं और सूर्य की रोशनी में नहीं जाते हैं तो विटामिन डी की कमी हो जाएगी। यह तो शरीर के लिए इतना आवश्यक है, इसे पहले हार्मोन घोषित किया गया था, पर बाद में विटामिन। अतः इसके बिना काम नहीं चल सकता। लेकिन घबराने की ज़रूरत इसलिए नहीं कि इसके लिए भी अलग से टैबलेट कैप्सूल, या इंजेक्शन ले सकते हैं। लेकिन फिर एक समस्या आती है कि इन दवाओं के भिन्न-भिन्न माध्यम से सेवन के बाद भी शरीर उसे कितना उपयोग में लाएगा? इस पर प्रश्न चिह्न है। साथ ही वैज्ञानिकों के समूह ने 2016 में ईरान में किये प्रयोग से यह पाया कि बिना सूर्य के प्रकाश के विटामिन डी की कमी की भरपाई नहीं की जा सकती है।

अव्वल तो यह कि ये शोध, जिसका ज़िक्र किया, वो आपको आसानी से गूगल या एआई से नहीं मिलेगा, परंतु अगर आप खोजेंगे तो इस पेपर के खंडन में हज़ारों पेपर मिल जाएंगे। यह ध्यान रखिएगा, आगे काम आएगा।
और ये ही मुद्दा है इस लेख और इस कॉलम का और मेरे उस प्रश्न का कि कैसे इस सदी ने विज्ञान को विपरीत धारा में मोड़ दिया?
एक और उदाहरण देखते हैं। अगर आपकी तबीयत ख़राब हो गयी [भगवान न करे] और डॉक्टर साहेब के पास जाते हैं, तो प्रतीक्षा कक्ष में कुछ पोस्टर्स पर ध्यान दीजिए, जैसे विटामिन डी का टेस्ट रु. 2500 की जगह सिर्फ़ रु. 250 में! तो ये 2000 कहां से आ रहा है? वहीं से जहां से समझ रहे हैं।
अब आते हैं मूल प्रश्न पर कि क्या विज्ञान 180 डिग्री घूम गया है या घुमाया गया है?
तो अभी तक अध्ययन के आधार पर कह सकता हूं कि या तो घूम गया है या फिर घुमाया जा रहा है। मसलन एक प्रत्यक्ष परिवर्तन जो आप भी महसूस कर रहे होंगे कि कोविड के बाद आजकल ज्त्रयादातर बीमारियां, जो तुलनात्मक तौर पर ज़्यादा लोगों में पायी जा रही हैं, उसका एकमेव उपचार वैक्सीन हो गयी है। जिस कैंसर की दवा ये पूरा मेडिकल/फ़ार्मा जगत लगभग एक सदी में नहीं खोज पाया, उसकी भी वैक्सीन बना लिये! कैसे?
जब मैं प्राकृतिक स्रोतों पर काम कर रहा था, तभी मैंने महसूस किया कि किसी भी शोध पत्र में ये नहीं लिखा है कि यह “प्राकृतिक स्रोत या पदार्थ, इस बीमारी में कारगर है”। और मेरे लिए यह मानना दुरूह है कि यह सच है। कोई 200 साल पहले क्या लोग बीमार नहीं पड़ते थे, और अगर पड़ते थे तो कैसे इलाज करते थे? शायद ऐसा भी नहीं है कि इलाज नहीं होता था। बीमार पड़ते भी थे और ठीक भी होते थे। और उस दवा के दुष्परिणाम से भी मुक्त रहते थे।
फिर आख़िर कोई भी पेपर ये दावा क्यों नहीं करता? मसलन एक पेपर ने ऐसा दावा किया था, जो बाद में लेखक को वापस लेना पड़ा। लेकिन इतने सारे दुष्परिणाम के बाद भी ऐसे उदाहरण कम हैं कि फ़ार्मा को लाभ पहुंचाने वाले पेपर को वापस लिया गया हो। तो मैं ये बता दूं कि फ़ार्मा कंपनियां बहुत-सा “अनुदान/दान” भी देती हैं प्रकाशनों को, और लिखने के लिए लेखकों को भी।
ऐसे कई उदाहरण हैं। फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग और चिकित्सा शोध में व्याप्त पक्षपात कोई पहली या अनोखी घटना नहीं है, जिसमें उद्योग द्वारा वित्त पोषित शोध, प्रायोजकों के उत्पादों के लिए सकारात्मक परिणामों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, जबकि प्राकृतिक चिकित्सा जैसे आयुष के प्रभावी परिणामों को भी दबाया जाता है। PSA टेस्ट की अनिश्चितता, प्राकृतिक उत्पादों के शोध में बाधाएं और उद्योग प्रायोजन के प्रभाव जैसे उदाहरण बताते हैं कि फ़ार्मा फ़ंडिंग ट्रायल डिज़ाइन और साक्ष्य आधार को तोड़-मरोड़ सकती है। बैड फ़ार्मा जैसी आलोचनाएं इस बात की पुष्टि करती हैं कि चिकित्सा साहित्य वाणिज्यिक हितों के अधीन है, जिससे प्राकृतिक चिकित्सा के लिए संरचनात्मक सुधारों की ज़रूरत पड़ती है।

‘क्राइम्स ऑफ द ग्लोबल फ़ार्मास्युटिकल इंडस्ट्री’ (संभवतः डेडली मेडिसिन्स एंड ऑर्गनाइज़्ड क्राइम का जापानी संस्करण) आज भी प्रासंगिक है। जैसा कि लेखक ने सुझाया। पीटर सी. गोट्जचे की यह पुस्तक फ़ार्मा कंपनियों को संगठित अपराध की तरह चित्रित करती है, जो भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, और डेटा छिपाने में लिप्त हैं। यह दर्शाता है कि नैदानिक परीक्षणों में हेराफेरी से मरीज़ों और डॉक्टरों को गुमराह किया जाता है और प्राकृतिक चिकित्सा को वाणिज्यिक हितों से दबाया जाता है, जो भारत जैसे देशों में आयुष को बढ़ावा देने के प्रयासों के लिए एक सबक है
अंततः मैं सिर्फ़ यह कहना चाहता हूं जागरूक होना आवश्यक है किंतु अतिउत्साहित होकर और समाज में अपना प्रभाव डालने के उद्देश्य से हर लिखी हुई बात को गीता का श्लोक न मान लें। दिनचर्या में किसी भी बदलाव को करने के पहले थोड़ा ठहरें, और सोचें कि अपने पूर्वज ऐसा करते थे? अगर करते थे तो मानने में कोई संशय ही नहीं है और अगर यह नयी जानकारी उसके विपरीत है, तो कारण ढूंढिए। यह समाज में प्रभाव डालने के लिए और ज्ञान देने के लिए तो ठीक है, आंख बंद करके आत्मसात करने के लिए नहीं।

डॉ. आलोक त्रिपाठी
2 दशकों से ज्यादा समय से उच्च शिक्षा में अध्यापन व शोध क्षेत्र में संलग्न डॉ. आलोक के दर्जनों शोध पत्र प्रकाशित हैं और अब तक वह 4 किताबें लिख चुके हैं। जीवविज्ञान, वनस्पति शास्त्र और उससे जुड़े क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखने वाले डॉ. आलोक वर्तमान में एक स्वास्थ्य एडवोकेसी संस्था फॉर्मोन के संस्थापक हैं।
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हमारी अगली पीढ़ी अपने बच्चों सहित इस तरह बाजार के चंगुल में फस गई हैं कि हर सटीक बात के जवाब में ज्ञान से लिपटे विज्ञापन दिखाती है।
मुश्किल घड़ी है ।ड्रग /दवा माफिया के सामने खड़े होना है।
बहुत सुंदर उपयोगी जरूरी लेख है । फारवर्ड करना चाहिए
अगले अंक की प्रतीक्षा है।