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कविता में अर्थ की लय और अन्विति!

पहले भी मैंने कहा है और यह लगातार पहचानना-जानना और कहा जाना चाहिए भी कि पिछली शताब्दी के मध्य से जब कविता के आलोचकों ने आलोचना के भारतीय मानकों को छोड़कर पश्चिम के प्रचारित मानकों को मूल आधार बनाकर आलोचना शुरू की, तबसे यह आलोचना लगातार एक अपराध में संलग्न होती गयी। इसे अपराध कहना इसलिए ठीक है क्योंकि उसने लगातार न सिर्फ़ एक पूरी काव्य परम्परा को नकारा बल्कि कविता संज्ञा के अर्थ को ही बदलने का बहुत बड़ा भ्रम पैदा कर दिया। काव्य साहित्य में जहाँ कविता कई अलग-अलग प्रारूपों में स्वीकृत थी, वहाँ उन्होंने गद्य के प्रारूप में लिखी कविता को ही कविता कहना-मानना शुरू कर दिया। यह अलग बात है कि गद्य के प्रारूप में लिखी जा रही कविता, कविता से कविता जैसी हुई और फिर इस धारा का अधिकांश गद्य में ही लिखा जाने लगा। कुछ लोग हैं, जो अब तक इसमें लय, प्रवाह, भाव और भंगिमा को बचाये हुए हैं और ऐसे लोग न सिर्फ़ कविता के साथ, बल्कि अपने समाज और समय के साथ न्याय करते हुए लोक सरोकारों से कविता को कविता की तरह सम्पृक्त किये हुए हैं।

गद्य कविता से जब लय को बिदाई दी जा रही थी और कुछ प्रबुद्ध पाठकों ने लय का प्रश्न उठाना शुरू किया, तो गद्य कविता के आलोचकों ने एक आंतरिक लय और अर्थ की लय की खोज की। यह सचमुच अद्भुत चीज़ है, लेकिन पाठक इसे खोजने-पाने और समझने में बेचारा रह जाता है। पाठक को छोड़ दें, तो गद्य कविता के अधिकांश कवि भी इसके वास्तविक अर्थ को समझे बिना ही इसकी बात करते हैं और उनकी गद्य कविताओं से यह अद्भुत चीज़ नदारद रहती है। यदि सचमुच कविता के किसी भी प्रारूप में यह अर्थ की लय और आंतरिक लय की उपस्थिति हो, तो वह सचमुच कविता हो जाती है। इस तरह की इनकी उपस्थिति अनुभूत भी होती है। कविता को पढ़ते-सुनते हुए इसे महसूस किया जा सकता है, समझा जा सकता है। किन्तु यह अर्थ की लय और आंतरिक लय गद्य प्रारूप में लिखी जाने वाली कविता से लगातार अनुपस्थित होती गयी। विचार और वर्णन के कविता के केन्द्र और परिधि में भी स्थान बनाने के साथ ये दोनों तत्व छिटकते चले गये। आलोचक ने इन्हें अलौकिक तत्व की तरह परिभाषित किया। इससे गद्य में कविता लिखना आसान समझा जाने लगा। विचार और वर्णन कविता का प्रमुख तत्व बन गया।

दरअसल भारतीय काव्यालोचना को हेय समझने और हेय प्रमाणित करने के लिए ही इन शब्दों का ख़ूब प्रयोग किया गया है, जबकि भारतीय काव्य के मानकों में अन्विति एक ज़रूरी तत्व के रूप में पहले से ही उपलब्ध है। किन्तु अन्विति कहने के ख़तरे भी हो सकते थे। फिर निरे गद्य को कविता मानने में बड़ी समस्या खड़ी हो सकती थी इसीलिए अर्थ की लय और आंतरिक लय जैसी अलौकिक, अनानुभूत्य चीज़ की खोज की गयी। अब जिसमें कवि या आलोचक कहेगा कि आंतरिक लय है, तो है और यदि कहता है कि नहीं है, तो नहीं है। किसी कवि को निपटाने का यह बढ़िया टूल भी बन गया।

कविता की आलोचना से अन्विति शब्द ही किसी अलग और अबूझ अर्थ में प्रयोग किया गया है, ऐसा नहीं है। अन्विति हो, तो अर्थ की लय या आंतरिक लय भी होगी ही। अन्विति न हो तो फिर अर्थ की लय या आंतरिक लय भी संभव नहीं है। रस के साथ भी ऐसा ही किया गया है। रस के नाम से इस कालावधि का आलोचक बिदक जाता है। देखा जाये तो भाव एक ऐसा तत्व है, जिसके बिना आलोचना भोथरी हो जाएगी। साहित्य के द्वारा संप्रेषित भाव ही लेखक, पाठक और श्रोता को उनके उद्देश्य से जोड़ता है। उनके सरोकारों से जोड़ता है। उद्देश्य और सरोकारों से जुड़कर ही लेखक, पाठक या श्रोता किसी तृप्ति या बेचैनी का अनुभव करते हैं। प्रकारांतर से रस भी ऐसी ही एक चीज़ है। भारतीय काव्यशास्त्र में रस के विविध प्रकारों में ये सभी अनुभूतियाँ समा जाती हैं। भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस की उत्पत्ति मानी जाती है। तात्पर्य यह कि एक ही कोटि-क्षेत्र के विविध प्रकार के भाव मिलकर जो प्रभाव उत्पन्न करते हैं, उसे ही रस कहते हैं। भाव की अभिव्यक्ति के लिए ही कला को माध्यम बनाकर कलाकार या रचनाकार सृजन करता है। अपने सृजन के माध्यम से अभिप्रेत भाव की उद्भावना भावक में करना चाहता है। यह उद्भावना जिस अनुपात में होती है, सृजन की सार्थकता और सफलता भी उसी अनुपात में होती है।

आज ज़रूरत इस बात की है कि आलोचना को कविता को उसकी समग्रता में देखना चाहिए और उस पर बात करनी चाहिए। हिन्दी कविता पर बात करते हुए गद्य कविता, गीत, नवगीत, ग़ज़ल एवं अन्य छांदस काव्यरूपों को ही आधार बनाकर बात की जाएगी, तभी सम्पूर्ण हिन्दी कविता की प्रवृत्तियों, उपलब्धियों, सरोकारों और ज़रूरतों को जाँचा-परखा जा सकता है।

राजा अवस्थी

राजा अवस्थी

सीएम राइज़ माॅडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कटनी (म.प्र.) में अध्यापन के साथ कविता की विभिन्न विधाओं जैसे नवगीत, दोहा आदि के साथ कहानी, निबंध, आलोचना लेखन में सक्रिय। अब तक नवगीत कविता के दो संग्रह प्रकाशित। साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित 'समकालीन नवगीत संचयन' के साथ सभी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय समवेत नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित। पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, दोहे, कहानी, समीक्षा प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्र जबलपुर और दूरदर्शन केन्द्र भोपाल से कविताओं का प्रसारण।

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