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हास्य-व्यंग्य आदित्य की कलम से....

साहब की डिग्री और नैतिकता की दुहाई

             मेरा मानना है देश के युवा साहब की डिग्री इसलिए देखना चाहते हैं ताकि इससे प्रेरणा लेकर उस कोर्स में दाखिला ले सकें, जिसने साहब को प्रखर, मेधावी, ओजपूर्ण वाणी के धनी व्यक्ति बनने में मदद की। साहब के सफलतम राजनीतिक जीवन को देखते हुए मुझे लगता है साहब ने यह डिग्री ज़रूर करुणावश बेरोज़गार डिग्रीधारियों का मनोबल बढ़ाने और आत्मीयता प्रदर्शित करने के लिए ही जीवन के उत्तरार्ध में धारण की है, जिसे उन्होंने एक गुप्तदान की तरह विश्वविद्यालयों में सहेज दिया।

वर्षों तक साहब ने अपने उच्च शिक्षित होने को गोपनीय रखा। उस पर लेशमात्र भी घमंड नहीं किया। वह देश की अल्पशिक्षित बहुसंख्य जनता के साथ खड़े दिखायी दिये। एक कम पढ़े-लिखे होनहार बिरवान की तरह। वे अनेक अवसरों पर अपने कम पढ़े-लिखे होने का ज़िक्र निःसंकोच भाव से सार्वजनिक मंचों से करते रहे हैं। इससे हुआ यह कि जनता की लोकतंत्र पर आस्था मज़बूत हुई और साहब का वोट बैंक। बहुत कम समय में साहब ने भिन्न-भिन्न अवसरों पर अपने ज्ञान से लोगों को आश्चर्यचकित किया। धर्म-शास्त्र, दर्शन, इतिहास, विज्ञान, अर्थशास्त्र, खेल, गणित, सिनेमा, शिक्षा पर उनके अद्भुत विचारों ने उन्हें न केवल भारत बल्कि विश्व भर में विख्यात कर दिया।

साहब की बहुमुखी प्रतिभा से जलने वालों ने उन्हें अल्पशिक्षित मानने से इनकार कर दिया और उनकी शैक्षणिक योग्यता पर अनुसंधान ऐसे शुरू हुआ। अंतत: चुनाव आयोग के हलफ़नामे में साहब द्वारा सत्यनिष्ठा से दी गयी शैक्षणिक जानकारी खोज निकाली। जानकारी सार्वजनिक होते ही देश भर में हर्ष और विषाद दोनों की लहर एक साथ दौड़ पड़ी। साहब के बालपन के क़िस्सों से प्रेरणा पाने वाले समर्थकों ने इस उपलब्धि का जश्न मनाया और विरोधियों ने संदेह जताते हुए इसकी जांच की मांग की।

साहब ‘मन की बात’ और कितनी ही बातों/भाषणों के विशेषज्ञ माने जाते हैं। डिग्री प्रकरण के प्रकट होने पर साहब ने मौन धारण कर लिया। साहब ने अदालतों में लम्बी लड़ाइयां लड़कर एक अद्भुत सत्य की खोज की, जिसे “मौन” कहते हैं। अदालतों में मौन रहकर आप शत-प्रतिशत दोषमुक्त बने रह सकते हैं। अदालतें गवाहों, सबूतों और बयानों पर चलती हैं और जाँच एजेंसियाँ सरकार के रहमो-करम, पैसे और रसूख़ पर। यह एक लम्बी प्रक्रिया है। साहब इन बातों से भली-भाँति परिचित हैं। हर बार की तरह साहब डिग्री प्रकरण की ज़िम्मेदारी अपने शिष्यों और सहयोगियों पर छोड़कर राष्ट्रसेवा में प्रवृत्त हो गये।

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अबकी बार मामला थोड़ा पेचीदा हो गया। फिर भी साहब ने विरोधियों की क़ानूनी चालों सूचना का अधिकार, अदालती जांच जैसी हर दलील को एक ही वार में काट दिया। उन्होंने संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत “निजता का हनन” वाला ब्रह्मास्त्र विरोधियों पर छोड़ दिया। विश्वविद्यालयों ने मामले की संवेदनशीलता को भांपते हुए आम लोगों को डिग्री दिखाने और उसे सार्वजनिक करने से साफ़ तौर से इनकार कर दिया। यहाँ तक कि विश्वविद्यालयों ने निजता का सम्मान करते हुए यह लोभ संवरण भी कर लिया कि उनके विश्वविद्यालय का एक मेधावी छात्र विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के उच्चतम शिखर पर सुशोभित हो रहा है।

प्राथमिक तौर पर अदालत ने भी विश्वविद्यालयों की संवेदनशीलता और त्याग को सही मानते हुए उन्हें डिग्री दिखाने की बाध्यता से मुक्त रखा है। साहब ने अपनी निजता की पवित्रता बनाये रखने के लिए संसद तक को टका-सा जवाब दे दिया और भारत के उच्चतम लॉ अधिकारी को डिग्री न दिखाने की पैरवी करने में लगा रखा है। थके-हारे विरोधी फिर भी हठधर्मिता नहीं छोड़ रहे और अब नैतिकता के आधार पर डिग्री दिखाने की मांग कर रहे हैं।

निजता की अप्रत्याशित स्वीकार्यता के बाद देश में एक नये संकट की आशंका गहरा गयी। साहब द्वारा चुनाव आयोग के समक्ष दो डिग्रियों का उल्लेख किया गया, जो अब केंचुआ के गोपनीय दस्तावेज़ों मे शामिल है। केंचुआ की उदारता और कठोरता के अलग-अलग चेहरे चर्चा में बने हुए हैं। इस बीच नौकरियों में चयन के लिए वांछित डिग्री की मांग या अनिवार्यता को अब किस नज़रिये से देखा जाये? चयन के बार यदि कोई उम्मीदवार अपनी निजता की दुहाई देकर डिग्री दिखाने से इनकार कर दे तो क्या उसे साहब की तरह छूट मिल पाएगी? या नियोक्ता उम्मीदवार की निजता के सम्मान में उसकी डिग्री 20 फीट दूरी से देखकर संतुष्ट हो जाएंगे? उसकी घोषणा को अनंतिम स्वीकार कर लेंगे?

(रचनात्मक तस्वीर आफ्टरनून वॉइस से साभार)

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आदित्य

प्राचीन भारतीय इतिहास में एम. फिल. की डिग्री रखने वाले आदित्य शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न एनजीओ के साथ विगत 15 वर्षों से जुड़े रहे हैं। स्वभाव से कलाप्रेमी हैं।

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