विनोद निगम, vinod nigam
पाक्षिक ब्लॉग राजा अवस्थी की कलम से....

सहज रागबोध के समर्थ कवि डॉ. विनोद निगम

            कविता के विषय में विचार करने की एक लंबी और स्थापित परंपरा रही है। कविता भी समय, स्थितियाँ, जरूरतें और समाज में निरंतर हुए विकास व परिवर्तन के साथ कुछ-कुछ बदलती रही है। इसी बदलाव के साथ काव्याचार्य भी अपनी काव्य सम्बन्धी मान्यताओं में कुछ-कुछ जोड़ते आए हैं। पाँचवी-छठवीं शताब्दी के आचार्य भामह कहते हैं – “शब्दार्थो सहितौ काव्यम्।” तो 14वीं शताब्दी के साहित्यदर्पणकार संस्कृत आचार्य विश्वनाथ कहते हैं-” वाक्यम् रसात्मक काव्यम्।”  पंडितराज जगन्नाथदास रत्नाकर कहते हैं-“रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्।”

कविता की परिभाषाएंँ चाहे, जितनी तरह से दी गई हों,  किंतु परिभाषा देने वाले आचार्यों ने अपनी परिभाषाओं की व्याख्या करते हुए कविता के मूल प्रयोजनों और लक्षणों को उसमें शामिल कर लिया है। इसका तात्पर्य यह भी है, कि कविता चाहे जितने युग पार कर आई हो, किंतु उसके मूल प्रयोजन कभी नहीं बदले। कविता सदैव ही मनुष्य के द्वारा रची गई है और मनुष्य के लिए मनुष्यता के पक्ष में रची गई है। यही कारण है कि कविता, यानी कविता के आदि रूप गीत-कविता के सामूहिक श्रम के दौरान जन्मने से लेकर आज के बेहद जटिल और एकल होते जीवन-समाज के समय में भी मनुष्य मात्र के भीतर का राग बोध कविता के केंद्र में बना हुआ है। अनगिनत वादों-विवादों से गुजरती हुई सदियों के साथ कविता भी प्रकृति और पुरुष के अविच्छिन्न आत्मीय संबंधों को जाँचती-परखती हुई इन्हीं संबंधों के पोषण और रक्षा के लिए इन संबंधों में आए छिद्रों को इंगित करते हुए उनके उपचारार्थ आगे बढ़ती रही है। इसी क्रम में कविता भी न जाने कितने-कितने रूप और नाम धरती रही है। इन कई-कई रूपों और नामों के बावजूद भी कविता का अस्तित्व बना रहा। कविता मात्र के लिए रागबोध के महत्व और अनिवार्यता को इस बात से समझा जा सकता है कि पिछले आठ दशकों से गद्य पाठ के रूप में लिखा गया कथ्य भी कविता के रूप में न सिर्फ समादृत हुआ, बल्कि एक पूरे वर्ग द्वारा कविता की तथाकथित मुख्यधारा के रूप में स्थापित होने की घोषणा भी कर दी गई। यद्यपि उनका रचा हुआ वह कुहासा अब छँट चुका है। तदपि गद्य कविता की उपस्थिति, उसकी जरूरत और अनिवार्यता निरन्तर बनी हुई है। जटिल होते समाज व जटिलतम होती परिस्थितियों के बीच यह उपस्थिति , जरूरत व अनिवार्यता बनी भी रहेगी और गद्य कविता में उपस्थित गहन-सघन रागबोध और अटूट लय व प्रवाह के कारण अतुकांतता के बावज़ूद उसे कविता माना जाता रहेगा।

गद्य कविता की ऐसी दीर्घकालीन उपस्थिति के बावज़ूद व्यापक मनुष्य समाज में केवल और केवल वही काव्य रूप स्वीकृत और समादृत रहा है, जो गीतात्मक है। जिसमें गति है, लय है और प्रवाह है और गद्य कविता में भी वे ही कविताएँ समादृत हो सकी हैं, जिनमें एक अटूट लय और प्रवाह आद्यान्त उपस्थित है। नागार्जुन और मुक्तिबोध जैसे कवियों की कविताएँ इसी कोटि की कवितायें हैं एवं इनकी दम पर ही वे बड़े भी हैं, यद्यपि कथ्य की भी एक बड़ी और निर्णायक भूमिका होती है। दरअसल यह गति, लय और प्रवाह ही जीवन के लक्षण हैं। मनुष्य को जीवन प्रिय है। जीवन चाहे कितने संघर्षों से भरा हो, प्रिय होता है। इसी जीवन को बचाने के लिए मनुष्य अथक संघर्ष करता है। कविता इसी जीवन में बसे राग-विराग, जिजीविषा और संघर्ष को रचती है, मनुष्य को प्रेरित भी करती है व रास्ता सुझाती है। मनुष्य के इन संघर्षों के और उसकी रागत्मकता के अनगिनत रूप और कारण हैं। इस तरह के राग बोध और जिजीविषा को जितनी आत्मीयता और संवेदना के साथ एक कवि अनुभव  कर सकता है और कह सकता है, उतना कोई और नहीं। ऐसे ही संवेदना और जिजीविषा से भरे राग बोध को जीते-कहते हुए कवि हैं-डॉक्टर विनोद निगम।

कीर्ति शेष डाॅ.विनोद निगम का जन्म 10अगस्त 1944 को बाराबंकी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनका जीवन होशंगाबाद (नर्मदा पुरम) में महाविद्यालय में अध्यापन करते हुए बीता। इनकी चार नवगीत संग्रह जारी हैं यात्राएँ, अगली सदी हमारी होगी, मौसम के गीत और जो कुछ हूँ बस गीत हूँ प्रकाशित हैं। एक बड़ा शोधग्रंथ भी प्रकाशित है। नवगीत दशक दो में भी ये शामिल थे।15 जून 2023 को इनका निधन हो गया।

विनोद निगम, vinod nigam

डॉक्टर विनोद निगम की ख्याति नवगीत कवि के रूप में है। वे डाॅ. शंभुनाथ सिंह के नवगीत दशक दो के सम्माननीय नवगीत कवि हैं। इनका रचना समय विगत सदी के सातवें दशक से अब तक यानी लगभग आधी शताब्दी के कैनवास पर फैला हुआ समय है। इस अवधि में इन्होंने नवगीत कविता से लेकर ग़ज़ल और मुक्त छंद तक में कविताएँ लिखी हैं। काव्य रूप चाहे जो हो, लेकिन एक सहज राग बोध उनकी कविताओं में सर्वत्र व्याप्त है। डॉ विनोद निगम की नवगीत कविताओं में यह राग बोध कई रूपों में आया है। उस रागबोध का एक रूप तो वह है, जो सहज मानवीय प्रेम से भरा है। यह प्रेम एक पुरुष का स्त्री के प्रति प्रेम है। एक स्त्री के मन में पुरुष के प्रति प्रेम है। उनकी इस तरह की कविताओं में जो एक खास बात है, वह यह कि जहाँ इनमें प्रेम के मादक  क्षणों की स्मृतियाँ हैं, चित्र हैं, तो वहीं एक विश्वास भी सर्वत्र विद्यमान है। इनमें जहाँ प्रेम की पिपासा है,  वहीं एक अतृप्त मन की तड़प भी मिलती है। मनुष्य की रागात्मक वृत्ति की जैसी सहज और विश्वसनीय पहचान डॉ. विनोद निगम को है, वैसी विरल ही मिलती है। देखिए-
“खुली भुजाएँ और नीम से छनी चाँदनी
लगता है, संकल्पों के दिन ठीक नहीं है।
अनगिन दर्पण उग आए, रेतीले मन में
टूट-टूट जाने की जिद करती सीमाएँ,
चुप हैं, नतमस्तक हैं, संयम की भाषाएँ,
खुले निमंत्रण, झाँक रहे खामोश नयन में,  
मदहोशी में डूबी, यह अनमनी चाँदनी,
लगता है, सारे आगत क्षण ठीक नहीं है”

प्रेम और आसक्ति के ऐसे क्षणों में एक संयम के टूट जाने के प्रति सजग रहना एक अच्छे मनुष्य की निशानी है। और यह अच्छा मनुष्य जो प्रेम में डूबा हुआ है, वही डॉक्टर निगम के गीतों का प्रमुख पात्र है। वह लिखते हैं-
“और अधिक इस खुली चाँदनी में मत बैठो,
जाने कब, संयम के कच्चे धागे,अलग-अलग हो  
जाएँ /वैसे ही यह उम्र, बहुत ज्यादा सहने के 
योग्य नहीं है/ जो अधरों पर लिखा हुआ है, वह
कहने के योग्य नहीं है/ फिर यह बहकी हवा,
सिर्फ बैठे रहने के योग्य नहीं है/
और अधिक इस धुली चांँदनी में मत बैठो,
जाने कब यह आकर्षण सारी मर्यादाएँ धो जाए। “

डॉ विनोद निगम के गीतों में ऐसे मादक बिंब मिलते हैं, कि उनके अर्थ में डूबते हुए पाठक का अपना ‘स्व’ खोने लगता है। कविता के रसबोध को यहाँ पूरी अंतरंगता से भोगा जा सकता है। ये अपने गीतों में बड़ी सूक्ष्मता से प्रतीकों को लाते हैं। देखिए-
“अब तक एहसास के निकट है, कंधों पर झुका हुआ भारीपन।  श्याम पंख हंसों का, नील भरी झील के किनारों तक झुकना/और किसी धुँधली खामोशी में, आलिंगित आकृतियों का रेखिल दिखना/ और किन्हीं पिघले बेहोश क्षणों का, वर्तमान के पृष्ठों पर भविष्य लिखना/ अब तक आभास के निकट है, आंखों तक पुता हुआ सम्मोहन। ” इस गीत में कंधों पर झुके हुए भारीपन की सम्मोहित करती निकटता, आलिंगित आकृतियों के रेखिल दिखने एवं पिघले बेहोश क्षणों का वर्तमान के पृष्ठों पर भविष्य लिखना’ के निहितार्थ से उभरते व्यंजक दृश्यों की मादकता अवर्णनीय है। ऐसे अंतरंग बिंब विधान से भरे गीतों का जो भावानुक्रम है, वह राग से एक अतृप्ति और विराग की और भी जाता हुआ दिखता है। देखें–
“बिखर गए पारे-सा यह टूटा मन /कब तक हम जोड़ेंगे। आंखों से बूँद-बूँद चुक गया / सारा का सारा आकाश / कोई स्वर लौट कर नहीं आया/ जंग लगे कानों के पास/ सुखा गया अधरों को/ मुश्किल से जुड़ा एक नाम/ छोड़ गया, खारे जल से सनी हथेलियाँ /नम स्पर्शों वाला एहसास। यह सूखा तन इससे /अब कितने क्षण /उम्र भर निचोड़ेंगे। “

डॉ विनोद निगम के नवगीतों में राग बोध का जो दूसरा आयाम है, वह प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों से जाकर जुड़ता है। प्रकृति के मोहक रूपों में ऋतुएँ, मौसम, पेड़, फूल, फल, नदी हवा और न जाने कितने-कितने तत्वों को वे अपनी कविता का आधार बनाते हैं। इस सब के बीच जो विशेष बात है, वह यह कि यह सारे प्रकृति रूप मानवीय भावनाओं के ही प्रतिरूप बन जाते हैं। मनुष्य के ही रागबोध के प्रतीक और पोषक बन जाते हैं। इस सबको इस तरह अपनी कविता में लाने में डॉ. विनोद निगम की संवेदनशील काव्य- कला देखी जा सकती है। यहाँ कवि की भाव दशा और संवेदनशीलता उनकी कविता से होकर पाठक के भीतर तक प्रवाहित होती है। इनके नवगीत संग्रह ‘मौसम के गीत’ के सभी गीतों में भी यह देखने को मिलती है। मौसम के गीत में मौसम, केवल जिल्द बसंत, ओ फागुन, फागुनी बयार, फगुनाई धूप मढ़े, बँटने लगे धूल के पर्चे, इच्छाओं के तन पर, गाढ़ी हो गई धूप, इतनी तपन न बाँधो, जेठ के दिन, हवा और मैं, झुलसते क्षण, झुलसती हवाओं के धूल भरे पाँव/ फिर उड़े पत्ते, सूखे मौसम के आयाम, निचुड़ गई हरियाली, सड़कों का पीलापन, गुलमोहर, फिर घिर आया सावन, यह बरसात, सावन, सावन के फूल और नम हुए हम, सावन भादो भीगे गाँव, अभी बरसेंगे घन जैसे सभी गीतों को पढ़ते हुए पाठक जिस मौसम को जीता है वह कभी पाठक या श्रोता के बाहर मात्र का मौसम नहीं है। वह मौसम कवि पाठक और श्रोता के भीतर का मौसम है। इन गीतों में जिस भी मौसम को आधार बनाया गया है, वह हर जगह मनुष्य की नर्म, रसवान, प्रेमिल अनुभूतियों, इच्छाओं को बिम्बवान करने में सफल हुआ है। डॉ. विनोद निगम मनुष्य की राग भरी हृद्तंत्री को ऐसे छेड़ जाते हैं, कि उसके बजते ही वह मन किशोर वय त्यागते और युवावस्था में प्रवेश कर रहे  देह-मन में कब जीने लगता है, यह पता ही नहीं चलता। देखें- “महुओं पर शर्मीले आंचल-सी सरक गई/ आँगन में बहक गई/ फागुनी बयार।” या “कली-कली खिले नयन/ दूब-दूब पाँव/फगुनाई धूप मढ़े / पियराये गाँव। यादों की नागफनी, वादों की फाँस/ बँसवट- सी उलझी-उलझी है हर साँस /सूनापन, उस पर यह उम्र का चढ़ाव।” वहीं यह भी पढ़ें –
“फिर बजे उठे हवा के नूपुर / फूलों के भँवरों के 
चर्चे /खुले आम आँगन-गलियारों/ बँटने लगे 
धूल के पर्चे। बैर भँजाने हमसे-तुमसे/ मन
हारेगा, फिर मौसम से। निपटे नहीं हिसाब पुराने/
तन, रस, रूप, अधर, संयम से। फूलों से बच भी 
जाएँ तो, गंधों के तेवर हैं तिरछे।”

अपने बिंब विधान में एक व्यञ्जना को पिरो देना उनके काव्य कौशल की खास विशेषता है।डॉ. विनोद निगम के गीतों में गाँव में बसा उनका मन भी बार-बार आता है। कभी वे घर लौट चलने की बात करते हैं, तो कभी बाराबंकी में रहने की बात करते हैं। यहाँ भी उनका राग बोध अपने चरम पर दिखता है। उनके नवगीत ‘आओ, घर लौट चलें’ पर ही बात करें, तो यह नवगीत अपने दृश्य विधान, ग्राम्य जीवन, कृषक संस्कृति के चित्र के साथ अपने शिल्प में भी विशिष्ट है। देखने पर यह नवनीत दो अंतरों का लग सकता है, किंतु कवि ने यह गीत एक अंतरे का ही रचा है। अंतरे का पहला हिस्सा तो स्वयं में एक पूर्ण अंतरे की तरह ही बुना गया है, किंतु जब दूसरा हिस्सा पढ़ते हैं, तो पता चलता है कि दोनों हिस्से मिलकर एक पूर्ण अंतरे का निर्माण कर रहे हैं। इस तरह का शिल्प कौशल इनके गीत-काव्य में खूब देखने को मिलता है। महत्वपूर्ण यह है कि ये शिल्प को चमत्कृत करने के लिए उपयोग नहीं करते, बल्कि कविता के कथ्य को संप्रेषणीय, प्रभावी और स्मरणीय बनाने के लिए विविध शिल्पगत प्रयोग करते हैं। इसे प्रयोग कहना भी पूरी तरह ठीक नहीं होगा, बल्कि यह कहें कि कथ्य और कविता की आवश्यकतानुसार कवि सहज ही इस तरह के गीत बुन लेता है। यह सहजता और इस सहजता के भीतर ही प्रभावित करने वाली नवगीत – कविताओं का सृजन ही डाॅ विनोद निगम की विशेषता भी है और शक्ति भी। यह नवगीत उनके नवगीत संग्रह ‘जो कुछ हूंँ! बस गीत हूँ” के पृष्ठ 80 पर मुद्रित है। इस तरह हम भाव प्रवणता, संवेदना की गहनता, अनुभूति की प्रगाढ़ता, प्रभावी व्यंजनात्मक सामर्थ्य, आंतरिक मनःस्थितियों के अंतरंग चित्र, डॉक्टर विनोद निगम की नवगीत कविताओं में पाते हैं। इतना ही नहीं इनके नवगीत अति बौद्धिकता और शब्दों की बाजीगरी से बहुत दूर हैं। जब ठेठ आँचलिक शब्द ही नहीं बल्कि ऐसे अबूझ आँचलिक शब्दों का प्रयोग, जो अपने प्रचलन क्षेत्र के बीस-तीस किलोमीटर के दायरे के भी बाहर अर्थ संप्रेषित नहीं कर पाते, ऐसे शब्दों का प्रयोग नवगीत कविता की श्रेष्ठता का प्रमाण बताने की कोशिश कुछ कवियों द्वारा की जा रही हो, तब डाॅ. विनोद निगम की नवगीत कविताओं में आँचलिक शब्दों का अभाव या अत्यल्पता चौंका सकती है, किन्तु आँचलिक शब्दों की यह अत्यल्पता ही इनके नवगीतों की सहजता, संप्रेषणीयता और अर्थप्रभाविता को बढ़ाती है। सहज और सुबोध भाषा के साथ प्रत्येक पंक्ति और पद में अर्थ संगति के साथ इन्होंने अपने नवगीतों में भाषा का एक नया सौंदर्य विधान बनाया है। रागात्मक संबंधों को व्यक्त करने की इनकी प्रणाली जितनी सरस व सुबोध है, जितनी रसबोधी है, अपने अर्थ निर्माण में उतनी ही उत्तेजक भी है।

डॉ. विनोद निगम के रागबोध का एक तीसरा पहलू भी है। यहाँ उनकी आत्मीयता, उनकी संवेदना, रिश्तों-नातों से भरे समाज में निकटस्थ मित्रों, रचनाकारों-कलाकारों आदि से जुड़ती है और वे उन्हें याद करते हुए भी कई नवगीत लिखते हैं।

डाॅ. विनोद निगम की नवगीत कविताओं को एक चौथे पहलू से भी देखा जा सकता है, जहाँ वे पूरे देश और समाज में व्याप्त विसंगतियों, संत्रास, भ्रष्टाचार आदि से प्रभावित देश की दशा से असंतुष्ट हैं और इसके कारणों की पड़ताल करते हैं।

इस तरह डॉ. विनोद निगम सही मायनों में भाषा, शिल्प, अनुभूति, संवेदना, अर्थसंगति काव्योद्देश्य, जीवनानुभव व उनकी अभिव्यक्ति आदि सभी स्तरों पर एक सहज किंतु गहन रागबोध के कवि हैं। उनके गीत पाठक को पसंद आने और प्रभावित करने की सामर्थ्य रखने वाले ही नहीं, बल्कि पाठक को अपने भीतर डुबो लेने की सामर्थ्य रखने वाले नवगीत हैं। इन गीतों को पढ़ते हुए पाठक एक नई, किन्तु अपनी ही जानी-पहचानी दुनिया में प्रवेश कर जाता है। यही इन नवगीत-कविताओं की सार्थकता है और कवि की भी।

राजा अवस्थी

राजा अवस्थी

सीएम राइज़ माॅडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कटनी (म.प्र.) में अध्यापन के साथ कविता की विभिन्न विधाओं जैसे नवगीत, दोहा आदि के साथ कहानी, निबंध, आलोचना लेखन में सक्रिय। अब तक नवगीत कविता के दो संग्रह प्रकाशित। साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित 'समकालीन नवगीत संचयन' के साथ सभी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय समवेत नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित। पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, दोहे, कहानी, समीक्षा प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्र जबलपुर और दूरदर्शन केन्द्र भोपाल से कविताओं का प्रसारण।

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