deepti naval, lamha lamha, दीप्ति नवल
(विधाओं, विषयों व भाषाओं की सीमा से परे.. मानवता के संसार की अनमोल किताब -धरोहर- को हस्तांतरित करने की पहल। जीवन को नये अर्थ, नयी दिशा, नयी सोच देने वाली किताबों के लिए कृतज्ञता का एक भाव। इस सिलसिले में लगातार साथी जुड़ रहे हैं। साप्ताहिक पेशकश के रूप में हर सोमवार आब-ओ-हवा पर अमूल्य पुस्तक का साथ यानी 'शुक्रिया किताब'.. इस बार एक अदकारा, चित्रकार व कवि की किताब को एक आभार -संपादक)
पाठकीय नोट ख़ुदेजा ख़ान की कलम से....

दीप्ति नवल: ख़ुद की तलाश का सफ़र

             1983 में प्रकाशित दीप्ति नवल का कविता संग्रह “लम्हा-लम्हा”, मुझे 1984 में पढ़ने का मौक़ा मिला। सोलह बरस की बाली उमर में जब मैंने इसे पढ़ा तब इसने मुझे चौंका दिया था। यही वह किताब थी, जिसने मेरे अंदर भावनाओं को समझने की एक अबूझ ललक पैदा कर दी। उनकी एक कविता जो अभी भी ज़ेह्न में है-

सर्द तन्हाई की रात
और कोई
देर तक चलता रहा
यादों की बुक्कल ओढ़े

चंद पंक्तियां और जीवन का इतना गहरा फ़लसफ़ा। बाद में धीरे-धीरे पता लगा कि दीप्ति नवल एक अदाकारा ही नहीं कवयित्री, चित्रकार और फोटोग्राफर भी हैं। यानी मेधा और प्रतिभा से संपन्न बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी।

deepti naval, lamha lamha, दीप्ति नवल

मन की अनंत गहराइयों से निकला उनका लेखन गहन संवेदना और मर्मस्पर्शी भावनाओं से उपजा मनुष्य की अंतरात्मा की तलाश में निकला किसी यायावर के कोलाज की तरह है; जिनमें प्रेम की अनेक छवियां और स्वर लहरियां रची-बसी हैं। स्मृतियों की अनंत भंगिमाएं, जीवन दर्शन के विभिन्न आयाम और सबसे अधिक इन्हें महसूस करने वाला एक संवेदनशील हृदय, जो पल-पल बदलती इस दुनिया में, दुनिया के लोगों के साथ, लोकाचार के मापदंडों में, अपने आप को फिट बैठाने के लिए कभी अपने आप से तो कभी बाहरी दुनिया के अंतर्विरोधों से मुठभेड़ करता रहता है।

“लम्हा-लम्हा” अंतर्मन के ख़ालिस अन्तर्द्वन्द की अभिव्यक्ति है, जिसे केवल लिखकर ही व्यक्त किया जा सकता है; बोलने में शब्द चुक जाते हैं। इसे पढ़ने वाला पाठक जब इन अनुभूतियों से गुज़रता है तो लगता है मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति इनसे दो-चार होता ही है।

भाव और भावनाएं सभी के अंदर न्यूनाधिक मात्रा में मौजूद रहकर जीवन को प्रभावित करतीं हैं।

दीप्ति नवल के यहां बिम्ब, प्रतीकों में कु़दरत साथ-साथ चलती है हमसफ़र की तरह। मन:स्थिति प्रकृति के साथ जुड़कर ख़ुद का अक्स अपने आसपास के पर्यावरण-वातावरण में सहजता से देखती प्रतीत होती है। आख़िर जो ख़ुद की तलाश में बीहड़ों के एकांत में विचरने से भी न कतराये, वो स्वयं से मुठभेड़ कर जीवन के असल सत्व तक पहुंचना चाहता है; जहां वास्तविक जीवन के यथार्थ का सत्य कई परतों में ढंका-छुपा, लगभग अदृश्य होकर बैठा रहता है। मित्रता हो, सामाजिक संबंध हों या सांसारिक मेल मिलाप, हर संबंध का एक ईमानदार सत्य ज़रूर होता है, जिस पर वह टिका होता है। इस टिकाऊपन को स्थायित्व तभी मिलता है, जब यह इमानदारी अपनी शुद्धता बनाये रखे। इसके बिगड़ते ही संबंध भी भुरभुरा कर बिखर जाते हैं।

स्त्री-पुरुष संबंधों की महीन लकीरों को अपनी कविता के कैनवास पर ख़ूब-ख़ूब उकेरा है दीप्ति नवल ने। नर-नारी के चिरकालीन शाश्वत रिश्तों की बारीक बुनावट को जानने-समझने और स्त्री मन के नाज़ुक गलियारों से “लम्हा-लम्हा” गुज़रना बहुत-सी अनजानी-अनछुई अनुभूतियों से भर देता है।

यह संग्रह मैं आज भी जब कभी उठाती हूं तो ऐसी ही एक दुनिया मेरे आगे खुल जाती है। ऐसी अजानी संवेदनाओं से भीग उठती हूं और हर बार इन पन्नों के भीतर से कुछ अनूठा, कुछ अद्भुत हाथ लगता जाता है। यह ​किताब एक भोली-सी सहेली की तरह जीवन भर मेरे साथ रही है। और मुझे लगता है कि जो मेरे साथ हुआ है, वह औरों के साथ भी हो सकता है।

(क्या ज़रूरी कि साहित्यकार हों, आप जो भी हैं, बस अगर किसी किताब ने आपको संवारा है तो उसे एक आभार देने का यह मंच आपके ही लिए है। टिप्पणी/समीक्षा/नोट/चिट्ठी.. जब भाषा की सीमा नहीं है तो किताब पर अपने विचार/भाव बयां करने के फ़ॉर्म की भी नहीं है। [email protected] पर लिख भेजिए हमें अपने दिल के क़रीब रही किताब पर अपने महत्वपूर्ण विचार/भाव – संपादक)

ख़ुदेजा ख़ान, khudeja khan

ख़ुदेजा ख़ान

हिंदी-उर्दू की कवयित्री, समीक्षक और एकाधिक पुस्तकों की संपादक। अब तक पांच पुस्तकें अपने नाम कर चुकीं ख़ुदेजा साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं और समकालीन चिंताओं पर लेखन हेतु प्रतिबद्ध भी। एक त्रैमासिक पत्रिका 'वनप्रिया' की और कुछ साहित्यिक पुस्तकों सह संपादक भी रही हैं।

1 comment on “दीप्ति नवल: ख़ुद की तलाश का सफ़र

  1. भवेश जी निरंतर साहित्य कर्म को अपनी कसौटी पर खरा उतार हरे हैं। उन्हें बधाई व आभार प्रदर्शित करती हूं।

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