आज के हिन्दुस्तान की कहानी

आज के हिन्दुस्तान की कहानी

मेरे सामने युवा कथाकार सोनी पांडेय का उपन्यास ‘सुनो कबीर’है। आज के कवियों में सोनी पांडेय का विशिष्ट स्थान है। इधर उन्होंने कहानियाँ लिखीं और कथाकार के रूप में भी अपनी पहचान बनायी है। उनके तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं जिनमें ‘बलमा जी का स्टूडियो’ बहुत चर्चित रहा है। इधर, वह लगातार संपादन और आलोचना के क्षेत्र में काम कर रही हैं। पिछले वर्ष लोकभारती से प्रकाशित ‘सुनो कबीर ‘उनका पहला उपन्यास है। इसमें वह उत्तर प्रदेश के ज़िला आज़मगढ़ के एक गांव इब्राहिमपुर की कथा कह रही हैं। यह गांव शहर के पास है और लगातार आवाजाही के कारण परंपरागत ग्रामीण माहौल के साथ वर्तमान राजनीति में विकास के स्वरूप और बदलते सामाजिक संबंधों की छाया भी यहां वर्तमान में दिखायी दे रही है। पूरा उपन्यास ज़िला आज़मगढ़ की साहित्य-संस्कृति की ज़रखेज़ ज़मीन पर बुना गया है जहां का सामाजिक ताना-बाना बेहद आत्मीय है। सोनी पांडेय आज़मगढ़ के पूरे इतिहास के साथ मौजूदा समाज को प्रस्तुत करती हैं लेकिन यह आज के मुकम्मल हिन्दुस्तान की कहानी बन जाती है।

इब्राहिमपुर मूलतः बुनकरों की सघन आबादी वाला गांव है। यहां के माहौल का जीवंत चित्रण लेखिका ने किया है जो भारत की मूल आत्मा का प्रतिबिंब है। वह कहती हैं- “बिना किसी जातिगत बंटवारे के एक तिहाई घरों में करघों का नाद सौन्दर्य व्याप्त है। चंपा की उलझी तानी सलमा सुलझा जाती है तो सलमा को सुन्दर बेलबूटे बनाना चंपा सिखा जाती है। इस गांव में मेहरुन्निसा-प्रेमशंकर का क़िस्सा हुआ तो मुहल्ला जगा देने वाली इमरती देवी वर्तमान में भी मेहरुन्निसा की पड़ोसी हैं। इब्राहिमपुर देश की साझी विरासत का नमूना है। शहीद बाबा के मज़ार से लोहबान की गंध तो बगल में बैठे ब्रह्म बाबा के चौरे से अगरबत्ती की सुगंध उठती। मौलाना से लेकर बड़े मियाँ तक पुजारी जी के दरवाज़े पर भरूके में चाय पी आते… रास्ते में चूड़िहारिन शबनम भी पड़ती और चढ़ावे का जल लेकर जाती बूढ़ी आजी, छी मानुस छी मानुस करती इधर-उधर बचती और शबनम मज़े लेने के लिए उन्हें गली में घेरती तो लोग हँस-मुस्कुरा लेते पर गाली-गलौज से बचते।”

उपन्यास के मुख्य पात्रों में मास्टर उस्मान हैं जिनका जीवन नाटक, थिएटर के लिए समर्पित है। उनके नौटंकी ग्रुप का ख़ासा असर है गांव में। महत्वपूर्ण आयोजन रामलीला में उनकी पूरी भागीदारी है जिसमें सभी शामिल हैं। मास्टर उस्मान लेखक, शायर, निर्देशक… सभी कुछ हैं। वह गांव के जीवन की धड़कन हैं। उनका सहयोगी फेकू है जो नाटकों में स्त्रियों की भूमिका करता है और बारातों में ज़नाना बनकर नाचता है। उसकी अलग संघर्ष गाथा है। समानांतर चलने वाली मोनिका की कहानी है जो अपने धनी, निकम्मे और मारपीट करने वाले पति को छोड़ अपनी बेटी को लेकर इब्राहिमपुर में रहने लगती है जहां प्राथमिक विद्यालय में वह अध्यापिका है। मोनिका मास्टर उस्मान के पुस्तकालय और रंगमंडल में भी सक्रिय है। वह गांव की स्त्रियों और पढ़ने वाली लड़कियों को परंपरागत पारिवारिक शोषण से मुक्त होकर नयी राह तलाशने में भी मदद करती है। वह गांव में रहते हुए स्त्री-चेतना की प्रतीक है। उस्मान का मित्र और शहर में किसी न्यूज़ चैनल से जुड़ा पत्रकार मनोहर भी विशिष्ट भूमिका में है जो अंततः भावात्मक रूप से मोनिका से जुड़ता है। पिंकी जैसी लड़कियां हैं जो परिवार के भीतर शारीरिक और मानसिक शोषण के खिलाफ़ संघर्ष करती हैं और अपनी पहचान बनाती हैं।

गांव इब्राहिमपुर का जिस तरह ख़ाका खींचा गया है वह अद्भुत है। चुनरमा पंडित की गाथा, अहीराने में मोहन यादव के क़िस्से, ये माहौल बनाती अंतरंग गाथाएँ हैं। लेखिका ने जिस प्रवाहपूर्ण स्थानीय बोली-बानी के साथ पूरा वातावरण चित्रित किया है वह किसी चलचित्र से कम नहीं। दंगों के दौरान त्रासद स्थितियाँ, मास्टर उस्मान का न रहना, मोनिका का उतार-चढ़ाव भरा जीवन… पूरे देश और समाज की कहानी बन जाती है।

अपने कथ्य और भाषा से प्रभावित करने वाला यह एक ज़रूरी उपन्यास है जो पढ़ा जाना चाहिए।

नमिता सिंह

नमिता सिंह

लखनऊ में पली बढ़ी।साहित्य, समाज और राजनीति की सोच यहीं से शुरू हुई तो विस्तार मिला अलीगढ़ जो जीवन की कर्मभूमि बनी।पी एच डी की थीसिस रसायन शास्त्र को समर्पित हुई तो आठ कहानी संग्रह ,दो उपन्यास के अलावा एक समीक्षा-आलोचना,एक साक्षात्कार संग्रह और एक स्त्री विमर्श की पुस्तक 'स्त्री-प्रश्न '।तीन संपादित पुस्तकें।पिछले वर्ष संस्मरणों की पुस्तक 'समय शिला पर'।कुछ हिन्दी साहित्य के शोध कर्ताओं को मेरे कथा साहित्य में कुछ ठीक लगा तो तीन पुस्तकें रचनाकर्म पर भीहैं।'फ़सादात की लायानियत -नमिता सिंह की कहानियाँ'-उर्दू में अनुवादित संग्रह। अंग्रेज़ी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में कहानियों के अनुवाद। 'कर्फ्यू 'कहानी पर दूरदर्शन द्वारा टेलीफिल्म।

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