‘हमें तो लूट लिया’ से ये फ़नकार हुए मक़बूल लेकिन फिर न हुए क़ुबूल

‘हमें तो लूट लिया’ से ये फ़नकार हुए मक़बूल लेकिन फिर न हुए क़ुबूल

साल 1958 में एक फ़िल्म आई- ‘अल हिलाल’। अल हिलाल का मतलब होता है नया चांद। यानी अमावस्या के बाद शुक्ल पक्ष की पहली रात का चांद, जो इतना कमनीय होता है कि उसकी तुलना सुंदरियों की कमानदार भौंहों से की जाती है। तो यह फ़िल्म बनायी थी किन्हीं अक्कू ने और इसमें संगीत दिया था बुलो सी.रानी ने। इनका पूरा नाम था बुलो चंडीराम रामचंदानी। चालीस से साठ के दशक में सक्रिय और सत्तर के दशक में यदा-कदा सिंधी और ग़ैर-फ़िल्मी गीतों को स्वरबद्ध करने वाले बुलो सी. रानी द्वारा कंपोज़ एक क़व्वाली इतनी मक़बूल हुई कि आज तक नयी और पुरानी पीढ़ी के लोग उसे चाव से सुनते और गुनगुनाते हैं। अल हिलाल की इस क़व्वाली के बोल हैं- हमें तो लूट लिया मिलके हुस्नवालों ने, काले काले बालों ने, गोरे गोरे गालों ने। लगभग छह मिनट इक्कावन सैकेंड वाली इस क़व्वाली के रचयिता थे शेवान रिज़वी और गाया था इस्माइल आज़ाद क़व्वाल ने।

परदे पर इस क़व्वाली का चित्रीकरण बेशक लाउड और तकनीकी ख़ामियों से ग्रस्त है, लेकिन फिर भी इसे देखने वाले के होठों पर मुस्कान बिखेरने में सक्षम है। इस मुस्कान को जगाने का काम किया है शेख़ फ़ज़लू नाम के हास्य अभिनेता ने। बाक़ी कोरस के नामों का उल्लेख संभव नहीं हो सका। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे महिपाल और शकीला। मज़े की बात है कि क़व्वाली में न तो बैठक का वो ताम-झाम है न तालियों की धनक बल्कि पूरी क़व्वाली में कलाकारों का फ्रीस्टाइल पर तालबद्ध आंगिक अभिनय और देहगतियाँ हैं, जिसने इस प्रस्तुति को विलक्षण बना डाला है। गीतकार शेवान रिज़वी का हर अंतरा बेहतरीन है। बानगी देखिए-

नज़र में शोख़ियाँ और बचपना शरारत में
अदाएं देखके हम फंस गये मोहब्बत में
हम अपनी जान से जाएंगे जिनकी उल्फ़त में
यक़ीन है कि न आएंगे वो ही मय्यत में
तो हम भी कह देंगे, हम लुट गये शराफ़त में

संगीतकार बुलो सी.रानी के संगीत की बात करें तो धुनों का सादापन और मैलडी उनकी धुनों की विशेषता रही है। आपने मशहूर और मारूफ़ संगीतकार खेमचंद प्रकाश के सान्निध्य में बतौर सहायक, संगीत निर्देशन की बारीक़ियाँ सीखीं। फ़िल्म “बिल्वामंगल” और “जोगन” में उनकी बनायी धुनें काफ़ी सराही गयीं। ख़ासकर दिलीप कुमार और नर्गिस अभिनीत “जोगन” के गीता दत्त के गाये भजन आज भी पसंद किये जाते हैं। यथा ‘घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे’ बहुत कर्णप्रिय है और उस पर नर्गिसजी का अभिनय भी लाजवाब।

फिर ऐसा हुआ कि हिंदी फ़िल्म संगीत में पचास-साठ के दशक से जिस तरह शंकर जयकिशन, सलिल चौधरी, सचिन देव बर्मन, हेमंत कुमार का जलवा बढ़ने लगा, बुलो सी.रानी अप्रासंगिक होते गये। उन्हें काम मिलना बहुत कम होता गया। यूं उन्होंने इस्माइल आज़ाद की “हमें तो लूट लिया” से अर्जित धुंआधार सफलता को भुनाने की कुछ फ़िल्मों में कतिपय कोशिशें कीं भी मगर पहले वाली बात न बन सकी। इस क़व्वाली का सही मायने में फ़ायदा हुआ गीतकार शेवान रिज़वी को। 1968 की फिल्म “हमसाया’ के जॉय मुखर्जी पर फिल्माये लाजवाब गीत- “दिल की आवाज़ भी सुन मेरे फ़साने पे न जा” तो याद है ना। ओपी नैयर द्वारा संगीतबद्ध यह गीत शेवान साहब का ही लिखा है। नैयर जी के साथ शेवान रिज़वी काफ़ी समय तक व्यस्त रहे और कुछ नायाब गाने भी हमें मिले। मसलन “हमको तुम्हारे इश्क़ ने क्या-क्या बना दिया” (रफ़ी), इक बार मुस्कुरा दो, कहाँ से उठे हैं क़दम याद रखना (किशोर-आशा) आदि। बहरहाल न इस्माइल क़व्वाल चल सके और न ही बुलो सी. रानी, यह कड़वी हक़ीक़त है।

सबसे अफ़सोनाक बात यह हुई कि अपने को लगातार मिलने वाली नाकामी और पारिवारिक विषम परिस्थितियों ने बुलो सी. रानी को इस क़दर मायूस और अवसादग्रस्त कर दिया कि वर्ष 1993 की 23 मई को सत्तर पार की आयु में इस संगीतकार ने ख़ुद पर मिट्टी का तेल छिड़ककर अपने ही घर की सीढ़ियों पर आत्मदाह कर लिया। उनके पड़ोसी जब तक उनको बचाने की तरतूद करते, बुलो सी. रानी इस फ़ानी दुनिया से रुख़सत हो चुके थे। उनकी इस दर्दनाक मौत पर अखबारों में छोटी-सी सिंगल या डबल कॉलम में खबर छपीं और बस। बॉलीवुड की किसी भी बड़ी शख़्सियत ने उनके कठिन परिश्रम को और उनके मधुर संगीत को याद करने की या ख़िराजे अकीदत देने की ज़हमत तक नहीं उठायी। “जोगन” फिल्म के गीता दत्त के गाये एक और गीत की पंक्तियाँ बरबस याद आती हैं- ‘संगी सहेली कोई न अपना, सर पर जम का दूत.. उठे तो चले अवधूत..’

विवेक सावरीकर मृदुल

विवेक सावरीकर मृदुल

सांस्कृतिक और कला पत्रकारिता से अपने कैरियर का आगाज़ करने वाले विवेक मृदुल यूं तो माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्ववियालय में वरिष्ठ अधिकारी हैं,पर दिल से एक ऐसे सृजनधर्मी हैं, जिनका मन अभिनय, लेखन, कविता, गीत, संगीत और एंकरिंग में बसता है। दो कविता संग्रह सृजनपथ और समकालीन सप्तक में इनकी कविता के ताप को महसूसा जा सकता है।मराठी में लयवलये काव्य संग्रह में कुछ अन्य कवियों के साथ इन्हें भी स्थान मिला है। दर्जनों नाटकों में अभिनय और निर्देशन के लिए सराहना मिली तो कुछ के लिए पुरस्कृत भी हुए। प्रमुख नाटक पुरूष, तिकड़म तिकड़म धा, सूखे दरख्त, सविता दामोदर परांजपे, डॉ आप भी! आदि। अनेक फिल्मों, वेबसीरीज, दूरदर्शन के नाटकों में काम। लापता लेडीज़ में स्टेशन मास्टर के अपने किरदार के लिए काफी सराहे गये।

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